अंतिम पड़ाव

कभी देखा है तुमने किसी इंसान के,
जीवन का अंतिम पड़ाव?
सब कुछ हासिल करने के बाद का अधूरापन,
कितना खालीपन लिए होता है।
जैसे डूबते सूरज के सिंदूरी आकाश में,
कोई वक्त के बचे खुचे तारे गिन रहा हो,
या जैसे वक्त की रील कहीं फँस गयी हो,
रोज जैसा ही आज का भी दिन रहा हो।
धूप के बुखार सा तपता,
एक जर्जर शरीर दिखता है,
जो गुजरे वक्त के अवशेष की तरह,
सीली दीवार बन किसी कोने में ढह रही हो,
होने और ना होने के दो किनारों के बीच,
जैसे देह पीछे छोड़ आत्मा आगे बह रही हो।
चेहरे पर तैरता दर्द दिखता है,
लोगों से एक नियत दूरी बन जाने का,
सारे रिश्ते जैसे किवाड़ बंद करके,
खुद को दो बित्ता पीछे खिसका लेते हैं,
नास्तिक हो चले मन का सुख दुःख,
बाँटने को अब तो ईश्वर भी नहीं आते हैं।
उजास आँखें दिखती हैं,
यादों की खाईं लांघते हवा में ठिठकी,
जो स्मृति के चिमटे के सहारे,
बीती घटनाओं को बाहर सूंघ लाती हैं,
यूँ तकते हैं घर के ईंट पत्थरों को जैसे,
इनमें इंसानों की शक्लें नज़र आती है।
पछतावे की एक टीस दिखती है,
उन जिंदगियों की जो ठीक से जी नहीं पाये,
जैसे मन के ढेरों मैल तन की,
शुष्क त्वचा के ऊपर संचित हैं,
पूरी जिंदगी जिस ‘मृत्यु’ से भागते रहे,
अब सिर्फ वही एक चीज़ निश्चित है।

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