अज्ञेय

कुशीनगर की धरती पर जन्मा,
वो बुद्ध सा स्वच्छंद था,
नाम भी रखा पिता ने,
सत चित आनंद था,
यूँ ही अकेले घूमता था,
मौन रहकर सोचता था,
संसार के हरेक वज़न को,
अपनी तराज़ू से तौलता था,
बुद्ध सा ही शांत था मन,
निर्मल था, श्रद्धेय था,
साहित्य ने जने हैं कई लाल,
पर वो इकलौता अज्ञेय था।
क्रन्तिकारी चित्त जिसका,
बम बनाना जानता था,
हिरोशिमा विध्वंस वो,
आंसू भी बहाना जानता था,
जेल की उस कोठरी में,
जो शेखर की जीवनी रच पाया,
ध्यानलीन योगी की उस पर,
होगी कोई सात्विक छाया,
शांति की तलाश में,
वो क्रांतिकारी अजेय था,
साहित्य ने जने हैं कई लाल,
पर वो इकलौता अज्ञेय था।
कभी पर्वतारोही या फोटोग्राफर,
तो कभी संपादक या पत्रकार,
कभी विश्वयात्री या प्लम्बर,
तो कभी मोची, बढ़ई या चित्रकार,
छायावाद के बिम्ब छोड़कर,
वो अपने नए प्रतीक बनाता था,
अपनी हरेक रचना में वो,
सिर्फ़ अपने दिल का हाल सुनाता था,
नूतन प्रयोगों से वो सिद्ध करता,
साहित्य का हर कठिन प्रमेय था,
साहित्य ने जने हैं कई लाल,
पर वो इकलौता अज्ञेय था।
कितनी नावों में कितनी बार,
कभी आंगन के द्वार पार,
चढ़ा गया वो साहित्य कोष में,
कई बेशकीमती उपहार,
जब भी कोई शेखर अपनी शशि को,
दुनिया से विदा करेगा,
जब भी कोई हारिल ओछा तिनका ले,
पंखों से उड़ा करेगा,
जब भी कोई प्रियम्बद राजमहल में,
असाध्य वीणा साधेगा,
हिंदी साहित्य को उसका लाल,
अज्ञेय याद आएगा।

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