ऐसी कई लड़ाइयाँ होती हैं,
जो अकेले लड़ता है इंसान,
भीतर से टूटा, उदास, खाली,
बाहर हँसता रहता है इंसान…
हालात, लोग या घटनाएँ,
हर कहानी में एक विलेन है,
हम सबके सीने पर,
किसी पत्थर का भारी वजन है…
अपने कई निजी दर्द,
वो जमाने से छुपाये रहता है,
“सब ठीक है” कहकर खुद को,
कई सवालों से बचाये रहता है…
पर कई दफ़ा थककर, चाहता है,
कि सारी ज़िद छोड़ दे और हार जाए,
रोने के लिए अब एकांत न ढूँढे,
मुस्कराते चेहरे का नकाब उतार पाए…
दर्द उड़ेल दे सबके सामने,
कह दे कि वो कितना उदास है,
भीतर सब खोखला है,
ये झूठी मुस्कान तो बकवास है…
लेकिन तभी उमड़ आती है,
उसके आत्मसम्मान की लहर,
क्या हारने के लिए शुरू किया था,
मैंने ये तन्हा अकेला सफ़र…
और फिर एकांत में रोकर वो,
आँसुओं को ताकत में गढ़ता है,
चेहरे पर मुस्कान का लेप लगाकर,
सफ़र में फिर से चल पड़ता है,
ऐसे न जाने कई होंगे,
आपके साथ इस सफ़र में,
आप हँस न दे कहीं उनपर,
कुछ नहीं कहते हैं इसी डर में…