दोस्त मज़ाक़िया तौर से पूछते हैं,
ये जो तुम काग़ज़ काले करते हो,
ये कौन से ख़ज़ाने की गुल्लक है,
जिसे तुम हफ़्ते दर हफ़्ते भरते हो?
मैं भी सोच में पड़ जाता हूँ,
कि ये कैसा अजब जुनून है?
बेवजह लिखते चले जाना,
यह कौन-सा खास सुकून है?
फिर लगता है कि…
कोई पूरी ताक़त लगाने पर भी,
हारकर कोने में कहीं बैठा होगा।
क़िस्मत से जिसको जीत मिली,
वो अपने दंभ में कहीं ऐंठा होगा।
कहीं कोई छोटी-सी बात पर,
अपनों से देर तलक रूठा होगा।
जुड़ने की कोई सूरत नहीं होगी,
कोई रिश्ता इस कदर टूटा होगा।
कहीं किसी का कोई अपना,
बिन बताए छोड़ गया होगा।
ख़ुशी हो या ग़म हर मौसम,
वो बरबस याद आ रहा होगा।
जज़्बातों की इस बूँदाबाँदी से,
जब मन का कुआँ भर जाएगा।
कितनी बातें कहने को होंगी,
पर वो कुछ कह नहीं पाएगा,
तब शायद मेरी कविताएँ…
किसी अवसाद के अंधेरे में,
रोशनी बन रास्ता दिखाएँगी।
किसी टूटे मन को गले लगा,
ठीक होने का भरोसा दिलाएँगी।
किसी ज़िद्दी संघर्ष में पराजित,
इंसान की पीठ थपथपाएँगी।
हमारी बेज़ुबान भावनाओं को,
अपने शब्दों के बोल दिलाएँगी।
खामोशी से लिखते चले जाना,
ये भी एक अलग-सा जुनून है,
मेरा लिखा किसी को सुकून देगा,
लेखक का बस यही सुकून है…!