डियर X,
हम सब कैसी यूनिक सी भावनाएं अपने अपने भीतर समेटे होते हैं। अब मुझे ही देखो। यात्रा के लिए सिर्फ सुबह का वक्त ठीक लगता है । मेरे लिए शाम की यात्रा अजीब सी उदासी लिए होती है। दिन के बीत जाने का एहसास यात्रा में और भी गाढ़ा हो जाता है। नींद भी जबरन तो नहीं आती। कितनी किताबें पढ़ें या कोरे पन्ने भरें । मन ही तो है, थककर डूबने लगता है।उदासी सी बचने के लिए, फ़ोन की फोटो गैलरी से पुरानी तस्वीरें खंगालकर मिटाने लगता हूँ।
मुझे लगता है मेरा अल्पवादी स्वभाव , हमेशा कुछ मिटाना चाहता है। पर क्या इतना आसान है, तस्वीरों को डिलीट कर देना? हर तस्वीर अपने आप में एक कहानी है। कहीं किसी दोस्त के साथ, कहीं परिवार के साथ, कहीं छुट्टियों की तस्वीरें, कहीं अपने बचपन की।
इन तस्वीरों को देखते हुए क्षण भर को मन उन दिनों में प्रवेश कर जाता है। जहाँ बचपन की मासूमियत, स्कूल के दिनों की शरारतें, कॉलेज के दिनों का प्रेम, नौकरियों का दंभ और न जाने क्या-क्या है। इतना ही नहीं, जो प्रियजन छूट गए, तस्वीरों में उनके चले जाने का विषाद भी है। इतनी सारी तस्वीरों को देखकर मन कंफ्यूज है। खुश रहे या उदास । कितना कुछ तो पीछे छूट गया। कितने गहरे दोस्त , जानी दुश्मन हुए। और कितने नए इस कदर जुड़े कि पहले किसी तस्वीर में न थे, और आज सब में हैं।
जो लोग छूट गए , जो वक्त बह गया, उसे फिर से न जी पाने का संताप कलेजे में हूक की तरह उठता है। हर वर्ष के बर्थडे की तस्वीर ही कितनी बदल गई है। बर्थडे मनाने से पिछले साल के दिन तो नहीं लौटते न । हाँ, बस उन दिनों के लौटने का वहम लौटता है। हर साल की तस्वीर में उम्र अपने निशान चेहरे पर चस्पा किए जाती है । हर निशान फुसफुसाकर कानों में कहते हैं कि – जन्मदिन तो बस कहने की बात है, जो हो चुका वो हो चुका.. मन निराश हो उठता है क्यूंकि उसे तो पुरानी यादों को पकड़कर रखना था।
जब भारत छुट्टियों में लौटता हूँ, एकाध पुराने दोस्त के साथ पुराना जीवन दुहराने की कोशिश करता हूँ। पुरानी कोचिंग, कॉलेज, मंदिर या चाय की दुकान पर उनके साथ बैठता हूँ। कितनी भी कोशिश कर लूँ, पर पहले जैसा कुछ भी नहीं रहता। न दोस्त और न मैं। कुछ बाल सुफ़ेद हुए हैं, हल्की तोंद निकल आई है, बातों में बच्चों के भविष्य की चिंता है, बीमारियों का ज़िक्र है। अब वो बेफिक्री, सपनों की बातें और अल्हड़पन नहीं रहा ।
बीच बीच में मुआ फोन भी तंग करता है। “ कब तक आओगे, आते समय अमुक चीज़ लिए आना” फ़ोन स्क्रीन के पर्दे के पीछे से आवाज़ें उठती हैं। अब समय गिनकर मिलता है, तब पैसे गिनकर मिलते थे। समय पैसे से ज़्यादा क़ीमती है। तभी तो जब दोस्त कहता है – “ चल यार, अगली बार पहले से बताना, थोड़ी और फुर्सत से मिलेंगे ।” मैं हामी भरता हूँ जबकि दोनों का दिल जानता है – अब कहाँ बची है फुर्सत??? जिस जेब में रखी थी, उसमे जिम्मेदारियों ने छेंद कर दी, जैसे गुम हो गई सारी फुर्सत।”
दोस्त से मिलकर लौटा हूँ तो फिर अकेला हूँ। बस साथ गुजारे पलों की यादें हैं जिन्हें सोचकर अब भी हँसा और रोया जा सकता है। थोड़ी ज़्यादा याद आई तो अगली मुलाक़ात की तारीख़ मुक़र्रर की जा सकती है। किंतु जब मिलेंगे भी तो कितना बदल चुके होंगे। वो दो दोस्त फिर कभी नहीं मिलेंगे जो पिछली दफ़ा BHU कैंपस की चाय की दुकान पर मिले थे।
तिसपर जिस जीवन को हम ढो रहे हैं, उसमें कुछ न जोड़ते जा रहे हैं। अब सिर्फ हम दोनों की बातें नहीं होती, औपचारिकता भी एक चीज़ होती है।
बीबी , बच्चे , नौकरियाँ , बीमारियां और न जाने क्या क्या घुल गया है, हमारी बातों में । कभी कभार लगता है कि कोई सुनेगा तो सोचेगा, ये वही दोनों हैं या अबकी कोई दो नए दोस्त आए हैं।
पर इन सारे दुखों के भीतर आज और अभी में जीने का सुख भी छुपा है। शुभांशु शुक्ला तो पृथ्वी की मोह माया वाली सीमा से परे अंतरिक्ष में हैं। उनसे पूछने को जी करता है कि क्या क्या दिखा वहाँ ? सचमुच कोई स्वर्ग है जहाँ अप्सराएँ पुण्य करने वालों को नृत्य दिखा रही हैं या फिर कोई नर्क भी है, जहाँ गर्म तेल के कड़ाहों में पापियों को तला जा रहा है। मुझे विश्वास है , उन्होंने ऐसा कुछ न देखा होगा। जो कुछ है , बस यहीं है। जो खाया, पिया, जिससे मिले, जो छूटा, जो कुछ भी महसूस किया, बस उन सबका अहसास भर हमारा है। बाकी सब गल्प है । जो मैंने और तुमने नहीं देखा , उसे गल्प ही तो कहेंगे, कोरी कल्पना।
इसलिए सोचा तुमसे कहूँ – जो इंसान पसंद है उससे मिल लो, जो व्यंजन पसंद है उसे चख लो, जो संगीत प्रिय है उसे सुन लो , जो यात्रा पसंद है वहाँ हो आओ।
क्षणिक ही सही सुख तो इसी वर्तमान में है। बाकी कितना भी गीता पुराण दुहरा लो, बीत जाने का दर्द हूक की तरह उठता ही रहेगा।
विदा,
वीकेंड वाली चिट्ठी