05.April.2025

Dear X,

जहाँ बैठकर मैं तुम्हे यह चिठ्ठी लिख रहा हूँ, मार्च अप्रैल की सफेद मुलायम नर्म धूप मेरे चेहरे पर लकीरें बना रही है। धूप का इतना सुकूनदेह स्वरूप साल के इन्ही दिनों में नसीब होता है। स्मृतियाँ उंगली थामे बचपन की तरफ़ खींच ले जाती हैं। जहाँ एक अलग सा मार्च अप्रैल का महीना है, बोर्ड की परीक्षाएँ हैं, लंबे हो रहे दिन हैं और महुए के पीले रसभरे फूल ज़मीन पर बिखरे हैं। जीवन की तरह प्रकृति के सौंदर्य का अपना चक्र है।

इंसान भी तो स्वभावतः उत्सवधर्मी है। उसने भी प्रकृति के बदलते रूप से जोड़कर कई त्यौहार बना लिए । इन दिनों चैत्र नवरात्रि है। माँ के नव रूप हैं, हमारी संस्कृति के रोल मॉडल राम का जन्म है, गुड़ी पड़वा है, उगादी है, चेटी चाँद है। हर संस्कृति, सभ्यता और लोक ने ख़ुश रहने के अपने बहाने ढूँढ लिए हैं।

मैं हमेशा से सृजनशील रहा । कुछ नया सोचने और गढ़ने को लेकर भीतर से एक हूक उठती रही। सृजनशीलता का लक्षण है कि आपको दुहराव में ऊबन महसूस होगा। फिर चिंतन करेंगे और कुछ नया गढ़ने का तर्क निकालेंगे। जो जैसा बताया जा रहा है, उसे एक बार भले स्वीकार कर लें किंतु बार बार नहीं करेंगे। बाज दफ़ा इसे मैं सृजनशीलता का अभिशाप भी कहता हूँ क्यूँकि यह आपको आनंद के पुराने क्षणों को दुहराते हुए उतना आनंद नहीं लेने देता ।

किसी कविता में मैंने इस बात का जिक्र भी किया है कि मुझे सर्कस की उस लड़की से ईर्ष्या होती है जो बाँस की बल्लियों के बीच बँधी रस्सी पर पूरे संतुलन के साथ चल लेती है। क्या उसका मन नहीं पूछता कि क्यों चलना है, कहाँ चलना है। उसे बस चलना है / वह सवालों में नहीं उलझती और इसी लिए वह संतुलन बैठा लेती है।

किंतु मेरे मन में “क्यों, कहाँ, कौन” जैसे सवाल खूब आते हैं। अंग्रेज़ों ने शायद इसी को “मिडलाइफ़ क्राइसिस “का नाम दिया है। आज तुमसे इसी पर बात करने की इच्छा हुई।

एक चीज़ जो सबसे ज़्यादा दुख देती है वह है जीवन का एक बड़ा हिस्सा लोगों को खुश करने के लिए जीना । समाजिक प्राणी होने में इतने व्यस्त हो गए कि प्राणी बचा ही नहीं सिर्फ़ समाज रह गया। माता पिता, स्कूल कॉलेज के दोस्त, ऑफिस के लोग बाग, हम हमेशा इनके मुँह से अपनी तारीफ़ सुनना चाहते रहे । हमने ज्यादातर काम बिना ज़्यादा विचार किए इसलिए कर लिए कि लगा इन सबको अच्छा लगेगा, यही सही है, इसी से प्रतिष्ठा रहेगी। और अब, लगभग आधा जीवन ज़ाया करने के बाद अचानक लगता है कि अपने लिए जी रहे हैं या दूसरों के लिए? क्या एक उम्र तक आते आते मन में यह सवाल आना लाज़मी नहीं?

इतने सालों में हम कितने रिश्ते बनाते हैं। परिवार के लोग बचपन से इस क़दर घेरे होते हैं कि लगता है यही जीवन हैं । स्कूल कॉलेज में दोस्तों के साथ नयी नयी  आज़ादी का जश्न मनाते लगता है एक दूसरे के लिए जान ले भी लेंगे और दे भी देंगे। ऑफिस के दोस्तों के साथ फ्राइडे नाईट के जश्न में हम न जाने ख्यालों के कितने पुल बना लेते हैं। किंतु आधा जीवन गुजारने तक लगता है कि ज्यादातर लोग, रिश्तें, बातें कितनी छिछली थी । उनमें कोई गहराई नहीं। हम सिर्फ कहने के लिए कहते हैं, निभाने के लिए नहीं। और फिर तलाश होती उन लोगों की जिनसे बने रिश्तों में , जिनसे किये बातों में एक गहराई मिल सके। और जब यह ढूंढने निकलते हैं तो अचानक वही लोगों की भीड़ से भरा मैदान खाली खाली सा नज़र आता है।

क्या एक उम्र तक आते आते रिश्तों में गहराई की तलाश लाज़मी नहीं?

और एक आख़िरी बात, जो ताबूत के आख़िरी कील सी चुभती है। मृत्यु की आहट, स्वयं के नश्वर होने का आभास। जब हम अपने क़रीबी लोगों को खोते हैं जिनके बिना जीवन की कल्पना भी मुश्किल थी, हम सोचने को मजबूर हो जाते हैं। किसी श्मशान घाट पर बैठे जलती चिता की राख को देखते, सोचते हैं कि क्या सारी इच्छायें, उपलब्धियां, महत्वाकांक्षाएं, कुछ क्षणों में नष्ट होकर राख सी उड़ जाती हैं।

क्या एक उम्र तक आते आते मन में दिनों की उल्टी गिनती चलना लाज़मी नहीं है?

मैं जानता हूँ कि ये सारी बातें कितनी बोरिंग लगती हैं । पर चिट्ठियों का काम ही है मन की बातें लिखना । मैं जानता हूँ जैसे फ़िल्म अभिनेता “स्वर्गीय मनोज कुमार” समय की धारा में बह गए, एक दिन यह मिड लाइफ भी बह जाएगी। एक नई उम्र के लिए अंग्रेज़ एक नया क्राइसिस बतायेंगे।

अभी के लिए इतना कि लोगों के लिए बहुत जी लिया, कुछ अपने लिए जिया जाये। बेवजह छिले रिश्तों की कान्त छंट कर सिर्फ गहरे रिश्तों में वक्त गवायाँ जाए। और यह सब ज़रूरी है क्यूंकि वक्त निश्चित है, अनंत नहीं। 

मेरी लिखी पंक्तियों के तुम सौंपते हुए विदा लेता हूँ:

यात्रा चाहे कितनी सुखद हो,

हर यात्रा का निश्चित अंत है,

जन्म से मृत्यु की हमारी यात्रा,

आह! यह भी कहाँ अनंत है, वीकेंड वाली चिट्ठी

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