Dear X,
“कोपीतियाम” — सिंगापुर की चाय और नाश्ते की टपरी ☕
कभी जो ठेले-खोमचे हुआ करते थे, वे विकसित देशों में अब साफ़-सुथरी दुकानों में बदल गए हैं।
मेज़ पर रखी चाय, कॉफी, टोस्ट — या फिर कोई सुबह का हल्का नाश्ता।
जैसे सिंगापुर सुबह-सबेरे खुद को ऊर्जा से भर रहा हो, दिनभर की भागदौड़ के लिए तैयार हो रहा हो।
ऐसा दृश्य हर थोड़ी दूर पर दिख जाता है।
यह चिट्ठी मैं किसी पास के “कोपीतियाम” की एक खाली कुर्सी-मेज पर बैठकर लिख रहा हूँ।
लिखने के लिए चाहिए भी क्या — एक कुर्सी, मेज़, कलम और एक सफेद पन्ना।
मैं इधर-उधर देखता हूँ। ढेरों उम्रदराज़ लोग हैं। नवयुवक कम। ज़्यादातर अकेले, जोड़े में कम।
हर विकसित देश की तरह — समय और समाज से आगे बढ़ती हुई, बुज़ुर्ग होती आबादी।
ऐसे में निर्मल वर्मा का उपन्यास “अंतिम अरण्य” याद आता है।
जिसे पढ़कर मैं कई दिन डूबा रहा था।
और तब किसी कविता में विचारों को विश्राम दिया था:
कभी देखा है तुमने,
किसी के जीवन का आख़िरी पड़ाव?
एक सम्पूर्ण अधूरापन,
उदास मन…
मैं “कोपीतियाम” के पास बने घरों की ओर देखता हूँ।
जून और दिसंबर, सिंगापुर में बच्चों की छुट्टियों के महीने हैं।
सिंगापुर इन दिनों में थमता है — जैसे सारे प्रवासी पक्षी किसी आरामगाह को उड़ गए हों…
सुकून की तलाश में — भले ही वो अस्थायी ही क्यों न हो।
लोग खुश हैं — भले क्षणिक ही सही।
इन बुज़ुर्गवारों की उनींदी आँखें देखता हूँ।
वे भी मेरी तरह एक बोझिल मुस्कान प्रस्तावित करते हैं।
उन्हें आदत नहीं कि कोई उन्हें गौर से देखे।
मुझे लगता है — वे जिम्मेदारियों से मुक्त हैं।
उन्हें रोज़ ऑफिस नहीं जाना।
शायद उन्हें लगता होगा कि मेरे पास समय है, ऊर्जा है।
मैं सोचता हूँ — क्या मैं उनसे जीवन की अदला-बदली करना चाहूँगा?
शायद नहीं। क्योंकि समय से कीमती कुछ भी नहीं।
मध्यमवर्गीय जीवन में नौकरियाँ इस तरह दी जाती हैं जैसे किसी ने एक घेरा खींच दिया हो —
“लो पैसे, खाओ-पीओ, ऐश करो… पर इस घेरे से बाहर मत जाना।”
हम कई बार जोश में इस घेरे की परिधि तक पहुँच जाते हैं —
फिर मन में भय का अलार्म बजता है, और हम फिर उसी केंद्र की ओर लौट आते हैं।
जिस क्षेत्र में एक बार नौकरी लगी — वही काम, वही रिश्ते, वही जगह।
हमने एक छोटा-सा घेरा बनाया — और पूरा जीवन उसी में बिता दिया।
छुट्टियों में बाहर जाते हैं, तो असल में खुशी इस बात की होती है कि उस घेरे से बाहर झाँक रहे हैं।
नई जगहें, नए लोग — आँखों में उजास भरते हैं।
मगर फिर वही डर — कि इस घेरे से बाहर जाना कहीं कोई गलती तो नहीं?
नया अनुभव करने का सुख,
हमारे पुराने अनुभवों को बचाकर रखने की डर से हार जाता है।
कुछ हफ्तों के लिए घेरे से बाहर जाना अच्छा लगता है,
क्योंकि मन में संतोष होता है कि कुछ दिनों में फिर उसी घेरे में लौट आएँगे।
पर क्या आपने कभी सोचा —
कि वो घेरा किसी और ने खींचा था?
या आपने खुद चुना था?
जिंदगी आपकी है — तो यह तय करना भी आपका ही हक़ है कि
आपका घेरा कितना बड़ा हो।
🧳 जब अगली छुट्टियों में बाहर निकलें, तो सिर्फ जगह मत बदलिए — सोच भी बदल कर देखिए।
विदा,
वीकेंड वाली चिट्ठी