08. March. 2025

Dear X,

आज स्त्री दिवस है। चारो तरफ इस बारे में लोगों के विचार और जागरूकता देखकर अच्छा लग रहा है। मेरे शहरी जीवन के एक मित्र इस बात से व्यथित रहते हैं कि स्त्रियां इस बात का फायदे उठाने लगी हैं। उन्हें यहाँ तक चिंता है कि अब तो पुरुषों का जीवन ज्यादा कठिन हो चला है , स्त्रियों का जीवन आसान। मैं जानता हूँ कि उनके सोच की परिधि वही छोटी सी शहरी सभ्य दुनिया है , जिसे वह जी रहे हैं । उन्होंने कभी बैठकर पीढ़ियों से स्त्रियों के साथ हुए अन्याय के बारे में सोचने की ज़हमत भी नहीं उठायी गयी। इतिहास को पढ़ना, अपनी परिधि से बाहर सोचना, यह सब आसान नहीं। तब और भी आसान नहीं जब इंस्टा रील का क्षणिक सुख सामने मुंह बाए खड़ा हो।

मैं सोचता रहा कि कायदे से पुरुष और स्त्री जीवन के संगम की कहानी थे। फिर एक दूसरे को ठीक से न समझने की वजह से इस अलग अलग स्वभाव की अनोखी कहानी को हमने क्या ही रूप दे दिया।

दोनों के स्वभाव अलग होने का मतलब यह बिल्कुल नहीं कि एक सही है और दूसरा गलत। भगवान ने पुरुष और स्त्री को अलग-अलग नायाब गुणों से नवाजा है। दोनों का सोचने का तरीका अलग है, दुनिया को देखने का नजरिया अलग है, और परिस्थितियों से निपटने का ढंग भी अलग है।

अगर मुझे कल्पना की आज़ादी हो तो मैं मान लूँगा कि पुरुष को ईश्वर ने एक शांत योद्धा बनाकर भेजा होगा। जब कोई परेशानी आती है, तो अधिकतर पुरुष उसे अकेले ही सुलझाने की कोशिश करते हैं। वे चाहते हैं कि उन्हें कुछ समय अकेला छोड़ दिया जाए। उनका स्वभाव ऐसा होता है कि वे बिना कोई शिकायत किए, बिना कोई दर्द जाहिर किए, खुद ही हालात से जूझते हैं। वे अपने भीतर के तूफान को छुपा लेते हैं, बाहर से शांत दिखते हैं, जैसे कुछ हुआ ही न हो।

अटल बिहारी वाजपेयी जैसा कोमल ह्रदय का लौह पुरुष तभी तो लिखता है :

“ना हार में, ना जीत में,

किंचित नहीं भयभीत मैं।”

इसे कुछ लोग पुरुषों का ‘ईगो’ कह सकते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि वे मुश्किल समय में बोलना पसंद नहीं करते। वे अकेले सोचते हैं, समाधान खोजते हैं। शायद यही कारण है कि परिवार में जैसे-जैसे पिता, चाचा, ताऊ बड़े होते जाते हैं, वे कम बोलते हैं और ज्यादा सोचते हैं।

और उसी कल्पना की आज़ादी से सोचता हूँ तो लगता है स्त्री एक निर्मल नदी है। स्त्री का स्वभाव एक बहती हुई नदी की तरह होता है , भावनाओं से भरी, सजीव और स्पंदित। जब कोई स्त्री परेशान होती है, तो उसका चेहरा साफ बता देता है। अगर आप उससे पूछें, तो वह एक पल में अपनी सारी पीड़ा उझल कर रख देगी। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह समाधान चाहती है। उसे बस कोई ऐसा चाहिए जो उसकी बातें सुने, बिना किसी निर्णय के, बिना किसी सलाह के, बस सुने और समझे।

स्त्री की सबसे बड़ी जरूरत है—सम्मान और समझदारी। जब वह अपने मन की गिरह खोलकर सब कुछ कह देती है, तो वह हल्की महसूस करने लगती है। उसे सलाह नहीं चाहिए, उसे बस वक्त चाहिए—बस कोई जो धैर्य से उसकी बातें सुने। और जैसे ही वह अपनी भावनाओं को बहा देती है, वह फिर से पहले की तरह निर्मल, शांत और संतुलित हो जाती है।

कितनी अद्भुत बात है कि यही संतुलन जीवन का सौंदर्य है। तो जब कोई पुरुष परेशान हो, तो उसे कुछ समय अकेला छोड़ देना चाहिए। वह खुद ही अपने उत्तर ढूंढ लेगा और लौट आएगा। और जब कोई स्त्री उदास हो, तो उसे प्यार से सुना जाए, बिना टोके, बिना उसकी बात काटे। यही रिश्ता निभाने की समझदारी है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि ईश्वर ने पुरुष और स्त्री को अलग-अलग गुणों और कमजोरियों के साथ बनाया है। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि हर पुरुष या हर स्त्री एक ही फैक्ट्री से बनकर नहीं निकले हैं। हां, पर सच्ची खुशहाली इसी में है कि दोनों एक-दूसरे को समझें, एक-दूसरे की विशेषताओं का सम्मान करें। जीवन का असली सौंदर्य इसी संतुलन में है। जैसे कीबोर्ड पर एक मधुर संगीत तभी बजता है जब सरगम के सातों सुर अपनी जिम्मेदारी अपने तरीके से निभाते हैं, किसी भी स्त्री पुरुष में अपनी जिम्मेदारी का एहसास और दूसरे की विशेषता का आभास अगर हो, तो उनके जीवन का संगीत मधुर होना तय है ।

तुम्हे यह पंक्तियाँ सौंपते हुए विदा लेता हूँ:

प्रकांड पंडित ब्रह्मा नहीं,

प्रेमी शिव या कृष्ण बनाकर आओगे,

तब शायद हो कि पुरुष!

तुम स्त्री को थोड़ा समझ पाओगे,

वीकेंड वाली चिट्ठी

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