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10. May .2025

डिअर X,

मैं एक कॉफ़ी हाउस में बैठा हूँ। यह कॉफ़ी हाउस किसी बागीचे के बीचोबीच है। इस कॉफ़ी हाउस का यह नीरव कोना मुझे प्रिय है। यहाँ से लोग कम और बागीचा ज़्यादा दिखता है। जहाँ लोग कम और प्रकृति ज्यादा दिखे, वह जगह प्रिय होना लाज़मी है। 

सफ़ेद कागज़, नीली स्याही वाला पेन, मग के झाग से उठती कॉफ़ीयाना ख़ुशबू। “हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले” – जगजीत गाते कम हैं और आत्मा से संवाद ज्यादा करते हैं । वीकेंड के शुरूआती क्षण इससे बेहतर भला क्या हो सकते हैं?

सिंगापुर भूमध्य रेखा पर बसा है। भूमध्यरेखीय धूप किसी अपने मिज़ाज वाली लड़की की तरह है। कब बारिश में बदल जाए, कौन जाने? हवाएँ तेज़ हो गईं। एक पन्ना उड़ गया। उसे उड़ते देख मुस्कराया। उस पन्ने पर कितना कुछ लिखा था। वक़्त सचमुच हवा की तरह सब कुछ उड़ा ले जाता है। मैंने मग से उस बदमाश पन्ने को दबा दिया। बाहर बूँदाबांदी शुरू हो गई। मिट्टी की गंध आने लगी है। कुछ बूँदें छिटककर मेरी मेज़ तक आ गईं। मुझे कुर्सी खींचनी पड़ी। कुछ उलझनें अच्छी लगती हैं। जैसे बूँदों से शरीर को बचाने और मन को गीला करने की उलझन।  

दूर, पेड़ों के नीचे गौरैयों का एक जोड़ा दिखा। वे सारे काम जोड़े से करते हैं। साथ चहचहाते, पंखों से पानी झटकते, और फिर बारिश तेज़ होने पर साथ उड़ते। क्या ये हर जगह साथ ही होते होंगे? उन्हें प्रेम में देखना सुकूनदायक है। उन दोनों के एक साथ उड़ने में एक अनोखा तारतम्य है। जैसे दो सुखोई विमान हवा में कलाकारियां कर रहे हों। किन्तु इन्हे देखकर नहीं लगता कि इन्हे कोई प्रशिक्षण दिया गया होगा। 

प्रेम में कोई योजना नहीं हो सकती — यह बस हो जाता है। आतंक में, हिंसा में, युद्ध में, स्पर्धा में योजनाएँ बनाई जाती हैं। प्रेम बिना किसी योजना के आता है, जैसे यह बारिश आई है। प्रेम ऐसे ही गहराता है जैसे यह बारिश तेज़ हो रही है। प्रेम में हम कुछ नहीं माँगते, बस देते हैं। स्वार्थ लिप्त इस दुनिया में यह कैसी अजीब भावना है जहाँ किसी को अपना हिस्सा नहीं चाहिए।  ‘एकतरफ़ा प्रेम’ जैसे शब्द तो दुनिया ने बाद में बनाए होंगे। अन्यथा, प्रेम तो सिर्फ़ प्रेम है — क्या एकतरफ़ा, क्या दोतरफ़ा। यह तो बस एक ऐसी भावना है जहाँ दूसरे की ख़ुशी, हमें अपनी ख़ुशी से ज़्यादा महत्वपूर्ण लगती है।

प्रेम से हमने क्या हासिल किया? उसने हमारे प्रेम को कितना महत्व दिया? हमसे ज़्यादा प्रेम भला कोई कर सकता है क्या? ये सारी बातें बेमानी हैं।  प्रेम हमें अस्तित्वहीन कर देता है। माँ अपने बच्चे से प्रेम करते हुए कहाँ तुलना करती है — वह तो उनमें स्वयं को देखती है। जब राधा ने कृष्ण को विवाह के लिए उलाहना दिया, तो कृष्ण ने राधा से उनकी ओर देखने को कहा। राधा ने नज़रें उठाईं और देखा कि कृष्ण, राधा बन चुके हैं। जिससे आप अलग ही नहीं, उससे सांसारिक बंधन कहाँ संभव हो। मैंने यह प्रसंग किसी नाटक के लिए कुछ साल पहले पढ़ा और लिखा था। शायद तब भी ठीक-ठीक न समझा था, और अब भी पूरी तरह समझना बाकी है। कृष्ण कहते हैं कि राधा का प्रेम, रुक्मिणी और सत्यभामा से कहीं बड़ा था। राधा के प्रेम में कुछ पाना नहीं सब देना है। 

मैं पत्तों को गिर रही बूंदों की तरफ देख सोचने लगता हूँ। हमने सनातन में कैसे-कैसे मॉडल चुने हैं। राम, कृष्ण। प्रेम के मानक कहाँ थे, और आज हम कहाँ हुक-अप और ब्रेक-अप से प्रेम को निर्धारित करने लगे।

पर क्या करें? हम ठहरे दुनियावी लोग। हमें निःस्वार्थ कुछ भी करना नहीं आता। हम किसी भी चीज़ में ऊर्जा और समय लगाएँ, तो बदले में कुछ पाने की आशा रखते हैं। कुछ नहीं तो कम से कम थोड़ा समय, थोड़ी बातें, थोड़ा ध्यान। अपने निःस्वार्थ प्रेम के मानक से दूर, उसे पाने की कोशिश में उलझे हुए हम लोग।

इंसान संतुलन सिर्फ़ लिख सकता है, पा नहीं सकता। प्रेम में आसक्ति और वैराग्य का संतुलन है — हाथ कसकर पकड़ने और पूरी तरह छोड़ देने के बीच का संतुलन। इतना आहिस्ता से पकड़ा हुआ हाथ कि इच्छा हो तो हाथ महसूस हो, और बंधन लगे तो महसूस न हो। आह! प्रेम जितना सरल है, उतना ही जटिल।

बारिश रुक गई है। बारिश के रुक जाने से मन में ठहराव का एक विषाद आ गया है। बाहर देखता हूँ। गौरैयों का एक नया जोड़ा आ गया है। प्रेम का भाव प्रकृति के साथ चिरंतन बना रहेगा। इसे हर समाज अपने-अपने तरीक़े से परिभाषित करता रहेगा।

विदा,

वीकेंड वाली कविता

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