डिअर X,
सिंगापुर इतना सलीके से बसाया हुआ देश है, कि सड़कों, चौराहों, पार्कों, बाज़ारों, घरों को निहारते हुए — सब कुछ एक ही जैसे दिखते हैं।
बस से चारों तरफ़ दृश्य देखते हुए यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल होगा कि आप होऊगांग में हैं या जुरॉंग में।
मानो किसी ने पेंसिल और रूलर लेकर सब कुछ खींच दिया हो।
शनिवार की सुबह किसी पार्क में, तालाब के किनारे एक शिला पर बैठा मैं यह चिट्ठी तुम्हें लिख रहा हूँ।
बीच में तालाब, चारों तरफ़ पेड़, टहलने के लिए रास्ते, ढेर सारे बेंच और खुले में व्यायामशाला।
यहाँ हर पार्क की कुछ ऐसी ही रूपरेखा है।
मैंने पिछली चिट्ठी में ज़िक्र किया था कि जून सिंगापुर में छुट्टियों का महीना है।
कई प्रवासी पक्षी जब अस्थायी अवकाश को उड़ चले हैं, तो अचानक चारों तरफ़ सब खुला-खुला सा लगता है।
लोगों की भीड़ के बिना दुनिया ऐसी लगती है जैसे बादल छंट गए हों और निरभ्र आकाश दिखने लगा हो।
लोगों की भीड़ से भरे इस पार्क की मुझे ऐसी आदत है कि एकबारगी ख़ामोशी मुझे काटने को दौड़ती है।
मुझ जैसे एकांत प्रेमी को भी लग रहा है जैसे कुछ तो है जो खाली है।
मैं सोचने लगा कि हमारा जीवन हमारे आस-पास के लोगों से किस कदर प्रभावित है।
हमें हर बात किसी से कहनी है या किसी से पूछनी है।
हम अक्सर जो निर्णय लेते हैं या जिस तरह जीवन गुज़ार रहे होते हैं,
वह हमारा मौलिक चयन नहीं, बल्कि किसी के जीवन को कॉपी करने की कोशिश भर है।
हम शायद नगण्य ही ऐसे काम कर रहे होते हैं जो आस-पास कोई न कर रहा हो?
हम में से ज़्यादातर लोग वही करते हुए जीवन गुज़ार रहे होते हैं जो बाक़ी दुनिया कर रही होती है।
सब चीज़ें इकट्ठा करने को भाग रहे होते हैं, और आपका मन बैठकर बारिश देखना चाहे, शरीर करने नहीं देगा।
हमें लोगों की ऐसी आदत है कि उसी में खुद को डुबोए रखना है।
हालिया विमान दुर्घटना से मन विचलित था।
स्कूल में सिखाया गया था कि किसी के शोक में जब हमारे वश में कुछ न हो,
तो 2 मिनट का ही सही, मौन रखा जाता है।
उन मौन के क्षणों में हम किसी परमात्मा से जो चले गए उनके परिवार के लिए शक्ति मांगते हैं,
जो हमें जीवन मिला है, उसके लिए कृतज्ञ होते हैं।
पर अब हमारे पास 2 मिनट के मौन का भी समय नहीं है।
कुछ एविएशन के मामले में एक्सपर्ट हो गए हैं, लोगों को एयरक्राफ्ट के बारे में समझा रहे हैं।
कुछ यात्रियों के परिवार के निजी दर्द की हृदयविदारक कहानियाँ निकाल ला रहे हैं।
हम लगातार हर घटना, हर इंसान पर, हर किसी पर कुछ न कुछ कहना चाहते हैं।
यह ब्रह्म सत्य कि जीवन क्षणभंगुर है — हम सिर्फ़ जानते हैं, मानते नहीं।
मानते तो इस तरह के हादसों पर, हम थोड़ी देर के लिए चुप हो जाते।
पर हम वहाँ आ गए हैं, जहाँ “संवेदनशीलता” और “इंसानियत” सिर्फ़ अभिनय के भाव मात्र रह गए हैं।
हम किसी के दुःख के अवसर में भी अपना प्रचार कर लेते हैं।
जीते रहने की ऐसी आदत पड़ गई है कि हम बिना ठीक से जिए ही इस जीने की एक्टिंग में उलझे हुए हैं।
हमारे पास खुद के लिए 2 मिनट नहीं हैं, क्योंकि उससे भी छोटी समयावधि के 30 सेकंड में इंस्टाग्राम हमारे मनोभावों के हिसाब से रील दिखाने को आतुर है।
एक तरफ़ हम बाहर की दुनिया और लोगों में इस कदर लीन हैं —
और दूसरी तरफ़ शिकायत भी रहती है कि हम अवसाद में क्यों हैं? हमें बेचैनी क्यों है?
यह सारी बेचैनी एक तलाश की है और हमें नहीं समझ आता कि हम वास्तव में ख़ुद को तलाश रहे हैं।
हमें अपने भीतर जाकर, ख़ुद के साथ बैठने की फुर्सत नहीं।
मानों ड्राइवर कार चलाने में इतना व्यस्त हो कि पेट्रोल पंप पर रुकने की कोई फुर्सत न हो।
हम दुनिया भर की चीज़ों और लोगों का ख़याल रखते हैं,
पर क्या कभी ख़ुद से पूछा है — “तू कैसा है?”
दुनिया को समझने में उम्र बीत जाती है,
पर क्या कभी ख़ुद से मिलने का वक़्त निकाला है?
सबकी लाइफ़ स्क्रॉल करके सब देख लिया —
पर क्या कभी अपने अंदर झाँका?
तुम्हें यह लिखते जैसे ही यह ख़याल मेरे मन में आया,
मैंने नज़रें उठाकर चारों तरफ़ फिर से देखा।
धूप खिल उठी है पर ठंडी हवा भी है।
जूते उतारकर सामने पानी में पैर डाले बैठना कितना सुकूनदेह है।
जैसे सारी व्यग्रताएँ घोल देना चाहता हूँ।
मैं डुबो देना चाहता हूँ — जीवन की सारी क्षणभंगुरता और सब कुछ जानने-कहने की आपाधापी।
कुछ क्षणों के लिए सारे दुःख दूर हो गए।
तालाब में पैर डुबोकर इस शिला पर बैठे हुए, वर्तमान के क्षणों में अपने साथ होना —
कितना सुंदर और सुखद अनुभव है।
इस गुलाबी ठंड में ख़ुद के बेहद क़रीब महसूस करते हुए,
एकबारगी लगता है जैसे जीवन पूर्ण है।
किसी ने ठीक ही कहा है —
“हम ख़ुद से जितना दूर होते हैं, जीवन उतना ही अधूरा लगता है।”
भीड़ में खोया हुआ मैं, ख़ुद से मिलने की यह चिट्ठी लिखकर, थोड़ी देर बस ख़ामोश रहना चाहता हूँ।
विदा
वीकेंड वाली चिट्ठी