Dear X,
टेसू, चैती, फाग, गुझिया, अबीर, गुलाल।
फ़िज़ाओं में इन शब्दों के रंग बिखर गए हैं। हिंदी में इस महीने को फागुन कहते हैं। मैं जहाँ जन्मा, वहाँ फागुन का मतलब होली।
मेरे उस छोटे से गाँव में होली का त्यौहार पूरी देहाती भदेस के साथ मनाया जाता था। अब मैं जहाँ हूँ, वहाँ होली के उत्सव डिज़ाइनर तरीक़े से मनाये जाते हैं।
“ निरहुआ” के भोजपुरी गानों का सफ़र भले ही “ बलम पिचकारी” तक पहुँच गया हो, मन तो मन है। वह पुरानी यादों को पकड़ने के लिए ही दौड़ता है।
मेरे गाँव में आर्थिक सुविधाएं भले ही कम हों, किंतु होली की रंगीनीयत और उन्माद में कभी कोई कमी नहीं थी। लड़कों की लिपीपुती टोलियाँ, रंगों से भरे पानी के हौदे , ढोल मंजीरा, भाँग , मुझ जैसे अंतर्मुखी को भी अपने कमरे के एकांत से बाहर खींच लाते थे।
चेहरे से बिना एक बार पूछे, अबीर और गुलाल की इतनी परतें मल दी जाती थी कि चेहरा इंद्रधनुषी हो जाता। गुलाल से भरे हुए बाल इस कदर धूसरित होते कि गुलाल फेफड़ों तक में समा जाती।
गुझिए को खाने और ठंडई को पीने की कोशिश में कई दफा रंगों का अजीब सा कसैला स्वाद भी जीभ पर चढ़ जाता था।
लोगों के ऊपर रंगीन पानी फेंकने का अलग भूत सवार होता। मार्च की सफेद मुलायम धूप में पानी की ठंडक शरीर में सिहरन पैदा कर देती।
संकोच और लिहाज को जैसे सार्वजनिक अवकाश दे दिया गया हो। स्त्री और पुरुष कभी लड़के लड़कियाँ, कभी देवर भाभी के रूप में एक दूसरे के सामने निःसंकोच प्रस्तुत होते।
फियर ऑफ़ मिसिंग आउट ( FOMO) का भय मुझे इसमें शामिल होने को कई वर्षों तक उकसाता रहा । किंतु मैंने कभी भी स्वयं को इस उन्माद और अतिरेक वाले उत्साह में सहज नहीं पाया। मैं खुद को थोड़ी दूरी पर ही पाता था, जैसे इस उन्माद का पूरा हिस्सा बनने से पहले ही मैं थक चुका होता था।
मैं अपने दोस्तों को बिना किसी संकोच के एक-दूसरे को रंगते, पानी में भीगते, सनी देओल की तरह नाचते और बेवजह हंसते देखता , तो सोचता कि क्या यही सच्चा सुख है? और अगर है , तो क्यों इससे जुड़कर भी मैं जुड़ा हुआ नहीं महसूस कर रहा हूँ। दोस्त जिस आनंद को अपने पोर पोर में महसूस कर पा रहे हैं, उसकी अनुभूति मुझे क्यों नहीं ?
शाम होते-होते, मैं अपने गाँव के तालाब के एक छोर पर एकांत में घंटों रगड़-रगड़ कर रंग छुड़ाता । मानो अपनी देह से सिर्फ रंग नहीं, बल्कि उस दिन का सारा उन्माद भी धो डालना चाहता था। सोचता रहता कि मैं इस त्यौहार के माहौल में बाहर गया था खुशियां बटोरने , जबकि लौटते हुए कितना रिक्त महसूस कर रहा हूँ। जिस भीड़ से मुझे मज़े लूट कर लौटना था, वहाँ जाकर मानों खर्चा जा चुका सा महसूस कर रहा हूँ।
तब बालमन था। नहीं पता होता कि हर इंसान अलग मिट्टी का बना होता है।
मेरा स्थान रंगों और शोरगुल के बीच नहीं, बल्कि शांत दर्शक बनकर सब कुछ देखने में हो। अब मुझे स्वीकार करने में गुरेज़ नहीं कि मेरे लिए उन्मादी उत्साह के सारे त्यौहार भागीदारी के लिए नहीं होते, बल्कि देखने, सोचने और अपनी भावनाओं को समझने के लिए होते हैं।
जो दोस्त इस उत्सव को डूबकर जी लेते हैं , अब उनसे कोफ़्त नहीं, बल्कि उनके लिए प्रेम और बढ़ गया है। उन्ही के लिए लिखता हूँ:
बड़े क़िस्मत वाले हैं वे लोग,
जिनकी ख़ुशी ज़रा सस्ती है,
छोटी सी बात ही क्यूँ न हो,
हँसी उनके होठों पर बसती है,
तुम्हें होली का उत्साह मुबारक । तुम इस मैदान में तन मन से उतरो और इस ख़ुशी को जिओ, मैं दर्शक-दीर्घा में बैठा , तुम्हें देखते हुए, अपनी कलम से तुम्हारी ख़ुशी का एकाध हिस्सा जी लूँगा।
रंगपर्व की शुभकामनाएँ,
वीकेंड वाली चिट्ठी