डियर X,
यह चिट्ठी लिखते हुए मैं एक बस यात्रा में हूँ। डबल डेकर बस में खिड़की के पास बैठा मैं सिंगापुर के इस खूबसूरत लैंडस्केप को देखता हूँ। मन करता है बस और धीरे चले, किंतु ऐसा होता नहीं । लेखक मन प्रसन्न होता है तो उसे हमेशा कुछ लिखा याद आता है। जैसे मुझे याद आया –
जीवन एक अनुभव यात्रा थी,
इस यात्रा का सम्मान किया,
मैं रुका नहीं एक क्षण को भी,
लेट गो किया मूव ऑन किया,
मुझे लगा कि इन क्षणों की यह लालसा सिर्फ मेरी है या बाकियों की भी होगी। मैं नज़रें घुमाकर देखता हूँ। सारे सहयात्री फ़ोन में नज़रें गड़ाए दिखते हैं। मन में एक तीव्र “आह” गूंज उठता है। न जाने मैं फ़ोन में कुछ ज़रूरी मिस कर रहा हूँ या फिर ये सारे इस बाहर की दुनिया में कुछ ज़रूरी मिस कर रहे हैं।
“मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है” । यह पंक्ति भाषणों में सुनते, किताबों में पढ़ते और स्कूल के निबंधों में लिखते बड़ा हुआ। इतनी बार यह पंक्ति मंदिर के घंटे की तरह मेरे कानों पर पड़ी कि मान लिया कि यह सही ही होगा ।किंतु, कभी ठीक से इस बात को नहीं जानना चाहा कि क्या होता है मनुष्य होना और क्या होता है उसका समाज ।
श्री राम मेरे देश की संस्कृति हैं। उनको मनुष्यों में सर्वोत्तम कहा गया है। राम कितने सुंदर थे, उनकी बाहें कितनी लंबी थीं, किस कुल परिवार में जन्मे, यह बातें उन्हें पुरुषोत्तम नहीं बनाती। राम के चरित्र के कुछ विशेष गुण – क्षमा, दया, करुणा, त्याग, वीरता आदि, उन्हें पुरुषोत्तम की उपाधि दिलाते हैं। राम के इन्ही गुणों को १००% मनुष्य होने का आधार मानकर, हमे स्वयं आकलन करना चाहिए कि हम कितने प्रतिशत मनुष्य बन पाये । और हमारे परीक्षा की यह कॉपी हमसे बेहतर भला कौन जांचेगा?
अब आते हैं समाज पर । जिस गाँव में मेरी परवरिश हुई वह एक छोटी सी दुनिया थी । उत्तर भारतीय ग्राम्य संरचना का छोटा सा गाँव। शादी-ब्याह, जन्म-मृत्यु, मेला-रामलीला, हर प्रयोजन के अपने नियम । समाज न किसी को अकेला छोड़ती न उन नियमों से अलग चलने देती । वह समाज भी जाति, धर्म, अमीर-ग़रीब, ऊंच-नीच की तमाम कुरीतियाँ समेटे हुए था । मुझे हमेशा लगता कि इस कुएँ से बाहर एक विशाल समंदर होगा। बेहतर मनुष्य होंगे और उनका बेहतर समाज होगा ।
आज जिस समाज में मैं स्वयं को पाता हूँ उसका चौपाल है सोशल मीडिया । नशा इस कदर कि मानो भारत कृषि की बजाय एक रील प्रधान देश बन गया है। यहाँ सबको स्वयं के बारे में बताने की जल्दबाज़ी है । यहाँ दुनिया की तमाम चीज़ों पर अपने विचार रखना आपको बुद्धजीवी होने का फटाफट प्रमाण देता है।
गाँव की सभाओं में कुछ बुज़ुर्गवार, अनुभवी, धीर-गंभीर लोग बोलते थे और बाक़ी सारे लोग सिर्फ़ सुनते और अपने तरीक़े से गुनते थे । यहाँ हर किसी को कहना है । बारीकियों को जानने पर समय गवायें बग़ैर, हर मुद्दे पर अपना रुख़ बताना है।ट्रम्प को अंतरराष्ट्रीय टैरिफ नीति बतानी है, राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में मोदी जी का मार्गदर्शन करना है। लोगों को सही रास्ता दिखाते हुए, जरूरत पढ़ने पर उन्हें फटकारना भी है।
इस आभासी दुनिया का बोझा उठाने में लोग इतने व्यस्त हैं, कि अपने आस पास की वास्तविक दुनिया के लिए वक्त नहीं है । परिवार द्वारा कई बार कोसे जाने पर मजबूरन घर या बच्चों पर ध्यान देते हुए, ये काम उन्हें नगण्य लगते हैं। पास पड़ोस के लोग जो सोशल मीडिया पर नहीं उपस्थित हो पाये, उन्हें वह कीटाणु की नज़रों से देखते हैं । उनके सुख दुख की बात करने सुनने का वक्त नहीं है, क्यूंकि वे सोशल मीडिया पर करोड़ों लोगों का हृदय परिवर्तन करने के मुगालते में जी रहे हैं ।
गाँव में लोगों के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के बीच समय की मोटी दीवार थी। अब फ़ोन ने वह दीवार भी तोड़ दी है । नींद खुलते ही फ़ोन देखना है, कि उन्हें लगता है लोग रात भर जाग करउसकी राय का इंतज़ार करते हैं।
वह अपनी छुट्टियों, अपने खाने, अपनी उपलब्धियों की जानकारी शीघ्रातिशीघ्र पोस्ट करते हैं, ताकि लोगों को स्वेच्छा से खुश होने या जलने भुनने में देर न हो।उन्हें बस कमेंट गिनने हैं, लाइक्स जोड़ने हैं, फॉलोवर बढ़ाने हैं।
कभी कभी लगता है कि हम बेहतर मनुष्य और समाज बनने के क्रम में कहाँ से कहाँ चले आए ।
हम सबसे पहले स्वयं के लिए ज़िम्मेदार हैं। बेहतर मनुष्य होने के लिए हमे कितने काम करने को थे । जिस चीज़ पर सबसे ज़्यादा ऊर्जा लगानी है, उसे हमने दरकिनार कर दिया। रोज़ अध्ययन, ध्यान करना, अनुशासन से कर्मयोग, ये सारी हमारे लिए जरूरी बातें, अब किताबी सी लगती हैं, सच्चाई से परे ।
फिर समय निकालकर परिवार और आस पास के समाज के लिए कुछ करना था।सोशल मीडिया की आज़ादी ने हमे इतना आत्ममुग्ध कर दिया कि न अपने लिए न परिवार के लिए न आस पास के समाज के लिए समय बचा। ट्रेन, बस या कहीं भी लोगों की भीड़ में हम अपने फोन की आभासी दुनिया में इस तरह व्यस्त हैं कि वास्तविक लोगों की ओर ताकने तक का वक्त नहीं ।
जबकि हम सब जानते हैं कि सोशल मीडिया वास्तविक समाज का आभासी मुखौटा भर है। आपके हज़ार फॉलोवर होंगे किंतु काम पड़ने पर शायद एकाध ही काम आयें। ज़रूरी तो यह था कि स्वयं पर काम करने के बाद बची ऊर्जा उन एकाध रिश्तों पर खर्च की जाये। याद रहे की हमारा समय और ऊर्जा हमे निश्चित मात्र में मिला सोना है। सोशल मीडिया के मनोरंजन में सर्वाधिक ऊर्जा खर्च करते हुए, हमे यह ग़लतफ़हमी हो सकती है कि समाजिक प्राणी होने का कर्तव्य निभा रहे हैं। किंतु स्वयं से ज़रूर पूछना चाहिए कि कहीं हम अपना सोना बेचकर ईंट पत्थर तो नहीं ख़रीद रहे है ।
चिट्ठियाँ लिखने वाले के मन का रोशनदान होती हैं। वे सिर्फ़ उस इंसान का सच होती हैं, जिसने उसे लिखा है। बाकियों का सच उनका सच है। उम्मीद है मेरे रोशनदान से छनकर आ रही रोशनी को कुछ और मकान भी अपना सकें।
बस का आख़िरी स्टॉप आ गया है । मुझे नहीं पता कि मैं कहाँ चला आया हूँ। मुझे जानना भी नहीं कि मैं कहाँ हूँ। क्यूंकि मुझे विश्वास है कि मैं जहाँ भी हूँ कुछ नया अनुभव कर रहा हूँ । इन्ही अनुभवों के लिए ही तो हम इस दुनिया में आते हैं।
विदा,
वीकेंड वाली कविता
वीकेंड की यह सुबह। मेरे बैग में कुछ किताबें, एक कलम और कुछ कोरे पन्ने। सुबह की ताज़ी हवा, नींद में ऊंघते से पेड़ और ज़मीन की सोंधी खुशबू। पैदल चलता हुआ मैं, उद्गम से कितनी दूर निकल आया हूँ। सड़क के किनारे एक ख़ाली बेंच है, जहाँ बैठकर तुम्हें यह चिट्ठी लिख रहा हूँ। सामने सड़क है। सड़क के साथ-साथ लताओं के झुरमुट और कई फूल हैं। प्रकृति अपनी खूबसूरती और विशालता से हमेशा एहसास दिलाती है कि हम कितने छोटे हैं।
महादेवी वर्मा जी की कुछ पंक्तियाँ अचानक याद आ गईं:
विस्तृत नभ का कोई कोना;
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही,
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
मैं नीर भरी दु: ख की बदली!
सामने सड़क पर थोड़ी-थोड़ी देर में आते-जाते लोग और यह कविता। आह! जीवन चलचित्र के मानिंद सामने से गुज़र गया। कितने लोग, कितने रिश्ते, कितनी ख्वाहिशें — सब जाने दिया। कुछ ग़म से, कुछ ख़ुशी से। कुछ चाहकर, कुछ अनचाहे। कुछ धीरे-धीरे और कुछ एक झटके में। हम सब जाने देते हैं, क्योंकि रोक पाना हमारे बस में नहीं होता। पर क्या “लेट गो” का मतलब सचमुच इतना शब्दिक है?
जाने देना मतलब सचमुच जाने देना?
पूजा के कमरे में जलती धूपबत्ती पूरी तरह जलकर मिट जाती है। पर क्या वह सचमुच मिट पाती है?
रह जाती है खुशबू की तरह — हमारे भीतर सदा के लिए। शायद यही किसी अच्छे रिश्ते या ख्वाहिश को जाने देने का सबसे खूबसूरत तरीका है — वह चला भी जाए और अपना बहुत कुछ सदा के लिए भीतर छोड़ भी जाए।
मन को टटोलकर देखना चाहिए कि क्या रत्ती भर भी कड़वाहट शेष रह गई। जब लगे कि मन पाक-साफ़ है, उसमें जाने देने का कोई रोष या पीड़ा शेष नहीं — तो फिर सचमुच तुमने जाने दिया।
हम अक्सर शिकायत भाव से लोगों को जाने देते हैं। यह भी हमारे स्वार्थ में लिपटा भाव है।
यदि जाना नियति था, फिर उससे नाराज़गी कैसी? शिकायत की जगह मन शुभकामनाओं से भर जाए — तो समझना कि तुमने सही मायनों में जाने दिया।
जो चला गया, उसकी याद आना लाज़मी है। याद करते हुए आँखों में भावुकता के आँसू आ सकते हैं।
भावनाएँ ही तो हमें मनुष्य बनाती हैं, फिर इन आँसुओं से कैसा परहेज़? बस, आँखों से बहे नीर हृदय की बेचैनी बढ़ाने की बजाय मन को शांत कर रहे हों — तो समझना कि तुमने सही मायनों में जाने दिया।
दर्द “जाने” का नहीं होता, दर्द “नहीं पाने” का होता है। जो चला गया, वह कहीं न कहीं तो रहता ही है।
बस हमसे दूर गया है। पाने की आसक्ति के बिना भी प्रेम जस का तस बना रहे, तो फिर तुमने सही मायनों में जाने दिया।
जीवन यात्रा में न जाने कितने लोग मिले, साथ चले और दूर हुए। कुछ का साथ लंबा था, कुछ का छोटा।
मिलना जितना महत्वपूर्ण था, विदा होना भी तो उतना ही ज़रूरी रहा होगा। जो भी मिला, उसके रोल की अवधि को स्वीकार करके विदा कर देना ही सही मायनों में “जाने देना” है।
किसी को स्वछंद भाव से आज़ाद करना — कितनी सुखद अनुभूति है। जब आप किसी को स्वयं से आज़ाद करते हैं, तो आप भी आज़ाद हो जाते हैं।
बचपन से आज तक का जीवन वृत्तचित्र की तरह देखा जाए, तो पाएँगे — कैसे हम साल दर साल बदलते रहे। पुराने स्वयं को जाने दिया और नए स्वयं को अपना लिया। पुराने से कोई बैर नहीं, नए से कोई मोह है। पुराने को गले लगाकर छोड़ा और नए को सीने से लगाकर स्वीकार किया। जब स्वयं के साथ इतने सहर्ष रहे, तो दूसरों के साथ दुश्वारियाँ क्यों?
वैसे भी यह जीवन का चक्र है। किसी का आना अपने साथ उसका चले जाना भी लेकर आता है।
फिर विदा-गीत में इतना शोक क्यों? जन्म से मृत्यु की हम सबकी यात्रा चल रही है। कुछ छोड़कर आगे बढ़ जाना मुश्किल हो सकता है, किन्तु इस यात्रा को सुखद बनाना है, तो “let go” की कला को सीखना होगा।
यह बेंच मुझे इस चिट्ठी के लिए हमेशा याद रहेगी — जहाँ बैठकर मैंने अपने विचारों को इतने करीब से महसूस किया। यहाँ से उठकर चल देना आसान नहीं, पर जीवन तो चलायमान है — रमते जोगी और बहते पानी की तरह। इस बेंच को प्रणाम कर चलते हुए मन में बस यही आस है — कि न जाने कितनी बेंचों पर बैठ, कितना कुछ सोचना और लिखना अभी बाकी है। विदा,
वीकेंड वाली चिट्ठी