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21.June.25

डिअर X,

इस क्षणभंगुर जीवन में कितना कुछ चल रहा है। विमान दुर्घटना का दंश , सोनम रघुवंशी की सनसनी से लेकर लॉर्ड्स में भारतीय टीम का अच्छा प्रदर्शन। और यह सब कुछ होते हुए, धरती उसी मंथर गति से बेफिक्र घूम रही है। इसी धरती के किसी कोने पर बैठकर लिखी मेरी यह चिट्ठी , किसी दूसरे कोने पर तुम तक पहुंचेगी । यहाँ का मौसम, समय, दिनचर्या — सब वहाँ से अलग हैं। लेकिन भावनाओं के तार हैं जो बेतार होकर इस दूरी को कितनी आसानी से पाट देते हैं। इंसान की भावनाओं में अद्भुत समानता है। इसीलिए मैंने अपनी पिछली किताब में भी लिखा था — हमारे जीवन का गुल्लक भले बाहर से अलग-अलग दिखता हो, लेकिन भीतर के सिक्के लगभग एक जैसे होते हैं।

सिंगापुर में मेरी पसंदीदा जगहों में एक है — पुस्तकालय। अभी इस समय मैं पास के एक पुस्तकालय में बैठा हूँ। यहाँ के पुस्तकालय सुंदर, शांत और समृद्ध संग्रह से भरे हुए हैं। किताबों की खुशबू और चारों तरफ पसरी शालीन खामोशी — मुझे यह माहौल बहुत सुकूनदेह लगता है। सिंगापुर आने के कुछ ही दिनों बाद जब पहली बार किसी पुस्तकालय में आया तो यह एहसास हुआ कि हमारे यहाँ किताबें पढ़ने की संस्कृति धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। लेकिन यहाँ आज भी पुस्तकालय जीवंत हैं। बड़ों के साथ-साथ बच्चों के लिए भी खास सेक्शन होते हैं। ताकि नई पीढ़ी में भी पढ़ने का संस्कार पनप सके । दिन भर लैपटॉप और मोबाइल की स्क्रीन जब आँखों को थका देती हैं, तब रात बिस्तर पर किताब के पन्ने पलटते हुए लगता है जैसे आँखों पर किसी ने गुलाब जल के फाहे रख दिए हों। इस पुस्तकालय में बैठा वही सुकून मिल रहा है ।

इन पत्रों के माध्यम से मैं वही बातें लिखता हूँ जो इस जीवन यात्रा ने मुझे सिखाया है । इस चिट्ठी में एक ऐसा व्यक्तिगत अनुभव सांझा करना चाहता हूँ, जो जितना ज़रूरी था उतनी ही देर से समझा आया – “निर्णय लेना “
बचपन से हमारे समाज में निर्णय लेना सिखाया ही नहीं जाता। कहां पढ़ना है, किससे दोस्ती करनी है, किसे जीवन साथी चुनना है, कैसी नौकरी करनी है — हर जगह निर्णयों में हमसे ज्यादा दूसरों का हस्तक्षेप रहता है। सीखना, सलाह लेना, मार्गदर्शन पाना — इसमें कुछ भी पूरी तरह गलत नहीं है। लेकिन अपने जीवन के फैसले पूरी तरह किसी और पर टाल देना — यह ठीक नहीं। जीवन आपका है, तो निर्णय लेने की कला भी आपको ही सीखनी होगी। गलत सही की बात छोड़ भी दें, तो जिनके भरोसे आप बैठे हैं, कल को उनका साथ छूट गया तो सोचिये कितनी असहायता महसूस होगी।

कई बार समस्या दूसरी होती है। हम निर्णय लेते ही नहीं । हम निर्णय लेने से नहीं बल्कि उसके परिणाम की जिम्मेदारी लेने से डरते हैं । क्यों? क्योंकि अगर निर्णय गलत निकला तो हमारा अहम आहत होता है — “मैं कैसे गलत हो सकता हूँ?” जबकि शोध कहता है कि इंसान लगभग 40% निर्णय गलत लेता है। जब पूरी दुनिया इतनी ग़लतियाँ कर रही है तो अगर हमसे भी कुछ गलती हो जाए तो क्या? वैसे भी लड्डू दोनों हाथों में सदा नहीं रहता। कभी एक में रहता है, कभी दोनों से गिर जाता है।

जहाँ तक मैंने स्वयं को समझा है, निर्णय न लेने के दो कारण रहे हैं।
पहला कारण — अपने जीवन के निर्णयों के लिए हमेशा किसी और का मुँह ताकना। अगर जीवन हमारा है, जीवन एक है , तो निर्णय भी हमारा ही हो, तो बेहतर।
दूसरा कारण — परिणाम के भय से निर्णय को टाल देना। जब यह जानते हुए भी कि 40% निर्णय गलत हो सकते हैं, तो फिर कम से कम अपने मन से निर्णय लें।
जब निर्णय अपने मन से लिया होता है तो परिणाम चाहे जैसा भी हो — मन स्वयं को समझा लेता है।

ज़िंदगी रोज़ हमें चौराहों पर लाकर खड़ा कर देती है — जहाँ हर रास्ता कुछ कहता है, लेकिन फ़ैसला हमें ही करना होता है। और चलना भी अकेले ही पड़ता है।
हर किसी के भीतर सपनों का एक मेला है — कभी किसी की बातें चुभ जाती हैं, कभी खामोशियाँ थका देती हैं। पर जब सब साथ छोड़ दें, तब भी एक आवाज़ ज़रूरी है — भले ही वह आवाज़ स्वयं की हो, जो कहे: “मैं तुम्हारे साथ हूँ। तुम निर्णय लो। जो होगा देखा जायेगा “

मैं अपनी लिखी कुछ पंक्तियों के साथ विदा लेता हूँ :

विकल्प कई हों जीवन में, अंतर्द्वंद चल रहा हो मन में,
जब राह न कोई मिल पाये, इस कदर अँधेरा हो वन में,
तब ऊर्जा मत बर्बाद करो, आँखें मूँद उसे तुम याद करो,
थोड़ी देर ठहर कर बैठो, तुम ! ईश्वर से संवाद करो,
कैसा भी निर्णय लोगे तुम, चुनने में तो मुश्किल होगी,
पर मन का निर्णय लोगे तो, जीवन यात्रा ज़रा सरल होगी,
नियति की ताक़त के आगे, कोई इंसान खड़ा नहीं होता,
कोई भी कैसा भी निर्णय हो, इस जीवन से बड़ा नहीं होता,

विदा,
“वीकेंड वाली चिट्ठी “

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