Dear X,
कहते हैं कोई काम आप २१ दिन तक करेंगे तो उसकी आदत हो जाएगी। मुझे नहीं पता कि २१ की संख्या को किस सूत्र से निकाला गया होगा , किन्तु यह ज़रूर पता है कि इन चिठ्ठियों का एक हिस्सा लिखते हुए मुझे २१ से ज्यादा दिन हो चले हैं । अब लगता है, जैसे चिट्ठियां लिखना मुझे पसंद भी आने लगा है। इन चिट्ठियों में मैं अपनी सोच जस का तस लिख पाता हूँ । मेरी सोच जो, मैंने अपने अनुभव, आस पास के लोगों, माहौल और अपनी पढ़ाई लिखाई से तैयार की है। मेरी सोच निजी है और इसलिए मैं जो कुछ भी लिखता हूँ उसमे गलत होने की पूरी संभावना होती है। मैं चाहता हूँ कि मेरी चिट्ठियों को तुम निष्पक्ष भाव से ही पढ़ा करो।
वैसे एक और मज़ेदार बात हुई। मैं नदी के किनारे किसी पेड़ की छाँव में बैठा यह चिट्ठी लिख रहा था। हवाएं थी, फूलों की खुशबू थी और ऐसा सबकुछ था जो मेरी कलम को मुक्त रूप से बहने दे । उसी एक खुशगंवार क्षण में मुझे सहसा लगा कि मैं लेखक बन गया हूँ । जैसे हवा छूकर गुजर जाती है, अगले ही क्षण मुझे अपनी सोच पर हंसी आयी। न जाने क्यूँ, हमारा बावला मन हमेशा भ्रम पालने को आतुर रहता है ? हम ज़रा सा भी कुछ करते हैं, उसमे विशिष्ट होने का भ्रम पालने लगते हैं ।
इस विचार के साथ मैं अपने लिखने पर सोचता रहा। मुझे लिखना भले पसंद है किन्तु यह सवाल कौंध उठा कि क्या यह जरूरी है कि हमेशा लिखा जाए? मुझसे पहले कितनों ने कितना कुछ तो लिखा है, मेरे बाद भी कितने लोग कितना कुछ लिखेंगे। अगर मैंने कुछ नहीं भी लिखा तो इस दुनिया को क्या फर्क पड़ता है। फिर मेरा लिख लेना मुझे कहाँ विशिष्ट बनाता है?
शायद यह मेरे मन की लालसा हो कि ” लेखक ” होकर मैं किसी के मन में अपने प्रति थोड़ा आकर्षण पैदा करने में सक्षम होऊं। पर क्या सचमुच मैं स्वयं के लेखक होने से आकर्षित हूँ? कत्तई नहीं। मेरे पहले, बड़े लेखकों ने जो कुछ लिखा, उसे पढ़ते हुए निसंदेह कह सकता हूँ कि उनके सामने कुछ भी तो नहीं। निर्मल वर्मा, धर्मवीर भारती, अज्ञेय जैसों को पढ़ते हुए लगता है मानो एक बौना ऊँट पहाड़ के सामने खड़ा होकर अपना कद नापने की कोशिश कर रहा हो।
वैसे मैं चाहूँ तो एक दलील दे सकता हूँ, कि जीवन जीने के लिए एकाध भ्रम चाहिए होता है। किन्तु मैं जानता हूँ, यह दलील बेहद कमजोर होगी। ऐसे भ्रम में जीना भी क्या जीना? ऐसा जैसे, पूजा-पाठ में लगा हुआ व्यक्ति स्वयं को ईश्वर के पास होने का भ्रम पाल बैठे। वैसे इस दुनिया में भ्रम बड़े सटीक तरीके से पाले जाते हैं। अब देखो ना, माता पिता को लगता है कि वे अपने बच्चों के लिए जी रहे हैं। अध्यापक को लगता है कि वह शिष्यों में ज्ञान बाँट रहा है। जबकि यह उनके जीवन के स्वाभाविक कर्म होते हैं।
मेरा लिखना भी तो ठीक वैसा ही एक कर्म है। परन्तु क्या सचमुच मेरा लिखना उतना ही स्वाभाविक है जितना माँ-बाप का बच्चों को पालना या फिर अध्यापक का शिक्षा देना। मैं जानता हूँ कि इसका उत्तर ” नहीं” है। इस ख़याल से मन पहले थोड़ा आहत हुआ फिर सुकून मिला कि चलो “लेखक” होने का अतिरिक्त बोझ हट गया।
अब शायद लिखते हुए मेरी कोशिश रहेगी कि मेरा लिखना भी एक स्वाभाविक कर्म की तरह हो जाए। प्रेमचंद कहते थे ” मैं दिहाड़ी मज़दूर हूँ, जिस दिन कुछ न लिखूं, मुझे रोटी खाने का हक़ नहीं ” । मैं सोचता रहा कि क्या मैं स्वाभाविकता की इस ऊँचाई तक पहुँच पाउँगा कि लिखते समय मुझे इस बात का रत्ती भर ख्याल नहीं रहे कि मेरा लेखन मुझे विशिष्ट बना देगा। मैं जानता हूँ कि अगर मैंने ज़रा से भी विशिष्टता ओढ़ी, तो भ्रम आने में देर नहीं करेगा।
कलम कागज लिए लौटते समय मन से यही आह निकली कि काश! हम कर्म से आसक्त हुए बिना कर्म कर सकते।
अपनी कुछ पंक्तियाँ तुम्हे सौंपते हुए विदा लेता हूँ:
स्वयं का सम्मान भले करो लेकिन,
श्रेष्ठ होने का वहम मत पालो तुम,
उपलब्धियाँ, त्याग, तपस्या, जैसी,
बेफ़ज़ूल बातों पर मिट्टी डालो तुम,
जो भी जैसा भी जीवन मिला तुम्हें,
उसे आनन्द में जीकर जाना तुम,
तुम्हारे बाद कोई याद रखेगा तुम्हें,
इस ग़लतफ़हमी में मत आना तुम,
आने वाली शिवरात्रि की शुभकामनाओं सहित, वीकेंड वाली चिट्ठी
Dear X,
शिवरात्रि अभी अभी बीती है। वैसे तो शिव की तमाम कहानियाँ हैं, किंतु प्रेम मेरा पसंदीदा विषय रहा। बाहर की दुनिया में इतनी लड़ाइयाँ चल रही होती हैं , कि लगता है कम से कम किस्से कहानियों में ही सही, प्रेम से उपजा सुकून बचा रहे । सती से शिव के अगाध प्रेम की कहानी पढ़ रहा था। सती के वियोग से शिव के मन में उपजे वैराग्य का प्रसंग पढ़ते कई बार मन सोचने को मजबूर हुआ ।
प्रेम करते हुए हम कब प्रेम की चौखट पार कर आसक्ति के कमरे में प्रवेश कर जाते हैं, हमे कहाँ पता होता है। किसी अपने के चले जाने का वियोग, हृदय पर कितने तीव्र घात करता होगा कि वही हृदय जिसका नैसर्गिक स्वभाव धड़कना हो, उसका स्पंदन कम होने लगता है। वैसे भी किसी का हृदय एक दिन में पाषाण सरीखा नहीं बन जाता होगा। किसी के बिछड़ जाने का दर्द कतरा कतरा एक धड़कते दिल को पत्थर करता होगा।
न्यूटन ने विज्ञान का सूत्र बताते हुए कहा था कि जैसी क्रिया ठीक वैसी प्रतिक्रिया। प्रेम ने भी न्यूटन भाई की लाज रखते हुए मान लिया कि जितना तीव्र किसी के साथ प्रेम उतना ही तीव्र उसके बिछड़ जाने के वियोग का दंश ।
किसी इंसान के वियोग के पीछे का प्रेम देखना हो तो उसके पत्थर दिल को थोड़ा कुरेदकर देखना होगा। थोड़ा हिला डुलाकर देखना होगा। उस पत्थर की तलहटी में ढेर सारा प्रेम दुबककर बैठा होगा । ऊपर से देखने पर प्रेम अदृश्य है किंतु वियोग में पत्थर हुए हृदय के नीचे इंसान सारा प्रेम संजोए रहता है।
कितना अजीब है कि इंसान अपने सबसे प्रिय के बिछड़ जाने की बात भी करने से कतराता है। फिर भी किसी धीमी लौ की तरह स्मृतियाँ उसके हृदय में सदा बहती रहती हैं। वह लोगों के सामने उस बिछड़न के ज़िक्र पर कत्तई आँसू नहीं बहाता किंतु किन्हीं एकांतिक टीस के क्षणों में एकाध आंसू बिना इज़ाज़त लिए निर्बाध झर आते हैं ।
धीमी लौ की तरह बहती प्रिय की यादें और कभी कभार इन आँसुओं की बूंदाबादी, पाषाण हृदय की बाहरी परत पर धीरे धीरे जमना शुरू कर देती है। जैसे किसी पुराने रूखे पत्थर पर चटक हरे रंग की काई जम जाये । अब मजाल है कि कोई नया प्रेम या कोई नया सा भाव उस पत्थर पर पल भर के टिक पाये । सब कुछ फिसल जाता है। प्रेम की असली ज़िद तो वियोग ही हैं। इंसान वियोग में हृदय को पाषाण तो कर लेता है किंतु जिसे खोया है उसकी स्मृतियों की काई इस पाषाण हृदय को घेरे रहती है । और इस तरह कोई नया भाव, कोई नया रिश्ता नहीं टिक पाता । “ मूव ऑन” कर जाना इतना आसान कहाँ होता है? “ मूव ऑन” करना चाहिए भी या नहीं? कभी कहते हैं कि जहाँ प्रेम में आत्मा का संबंध हो, कहानी कभी ख़त्म नहीं होती । और कभी कहते हैं कि दुनिया में कुछ भी सदा के लिए नहीं होता। मैं जानता हूँ इस चिट्ठी ने सवालों के कई बाँध तोड़े होंगे। और मैं यह भी जानता हूँ कि सबके अपने जवाब और सबका अपना सही ग़लत ।
मेरे प्रिय कवि सुमित्रा नंदन पंत जी ने वियोग पर कितनी सुंदर पंक्तियां लिखी है कि पढ़ो तो शब्दों से प्रेम हो जाए :
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
निकल कर आँखों से चुपचाप,
बही होगी कविता अनजान!
अभी के लिए विदा,
वीकेंड वाली चिट्ठी