डियर X,
होटल के जिस कमरे में बैठा मैं लिख रहा हूँ, वह चीन के छोटे से गाँव में है। चीन, हमारा पड़ोसी मुल्क, जिसे बचपन से मैंने एक दुश्मन की तरह देखा। हमें जो कुछ लंबे समय तक दिखाया जाये, हम उसे ही सच मान लेते हैं। खिड़की से चाँद दिख रहा है। आसमान साफ़ है। यह चीन का चाँद है, इस ख्याल से होठों पर मुस्कान तैर गई। चाँद तो सबका एक जैसा ही है। सामने प्लेग्राउंड है, जिसमें फुटबॉल खेलते हुए बच्चे हैं। चौड़ी सड़क और निर्बाध ट्रैफ़िक।
क्या यह सचमुच गाँव है? यह सवाल लगातार ज़ेहन में कौंधता रहा। थोड़ा सुनकर, पढ़कर या देखकर भले जोड़ लें, मोटा-मोटी हम वही जीवन सबसे ज़्यादा समझते हैं, जिसे हम स्वयं जी चुके हैं। न मिट्टी की कोई सड़क, न बिजली की कटौती, न खेत-खलिहान, न एकाध टूटी-फूटी बस, फिर काहे का गाँव? मेरे लिए चाइना के इस जगह को गाँव मानने से इनकार करने की यही वजह है। मैं अपने जजमेंटल होने पर स्वयं को उलाहना देता हूँ। मेरे कई बाबा, काका रहे, जिन्होंने अपने जीवन में गंगा छोड़ कोई नदी नहीं देखी, बनारस छोड़ कोई शहर नहीं देखा, मैदानी खेत छोड़ कोई समंदर, पहाड़ नहीं देखा। उन्हें अंदाज़ा भी नहीं चीन कैसा दिखता होगा। मैं उन्हीं की ज़मात से निकला, क़िस्मत का थोड़ा धनी रहा। उनसे थोड़ा ज़्यादा देखा। हालाँकि मैंने भी तो कितना कुछ नहीं देखा, अमेरिका का व्हाइट हाउस, एवरेस्ट का शिखर, मारियाना ट्रेंच का गहरा समुद्री तल। पर चीन को क़रीब से देखा तो इसे दुश्मन समझने की बजाय इसकी संपन्नता को स्वीकार करता हूँ।
चीन के इस छोटे से गाँव को देखते हुए मन में टीस उठी कि विकास के क्रम में हम कोसों पीछे क्यों रह गए हैं? इसकी ज़िम्मेदारी चाहे मुझ जैसे सामान्य लोग, सरकारें, नेता और न जाने कितनी आंतरिक और बाहरी परिस्थितियों पर दे लें, सच्चाई तो यही है। फिर मन समझाता है कि हर किसी की अपनी विकास यात्रा है। जैसे मेरे गाँव में मोबाइल फ़ोन के टावर, एग रोल और मोमोज लिखे हुए ठेले, छोटी-बड़ी दुकानें, बरमूडा पहने घूमते लड़के, स्कूटी चलाती लड़कियाँ — यह सब विकास की सतत प्रक्रिया का हिस्सा ही तो है। हर देश, हर शहर, हर इंसान, तुम और मैं — इसी बदलाव की प्रक्रिया से ही तो गुजर रहे हैं।
पर कैसी अनोखी बात है कि हम चाहते हैं कि हमेशा सब कुछ शुरू से ही सही रहे। हम संघर्ष का उत्सव नहीं मनाते। हम शुरू में ही अंत का परिणाम चाहते हैं। हम चाहते हैं सुख स्थायी रहे, दुख नहीं; सफलता स्थायी रहे, संघर्ष नहीं; प्रेम स्थायी रहे, विरह नहीं; मिलन स्थायी रहे, प्रतीक्षा नहीं। जिस सुंदर के स्थायित्व की चाह है, वह कुरूपता से होकर गुजरता है और वह हमें नहीं चाहिए। खैर, हमारे चाहने से भला क्या ही होता है? सुख-दुख समंदर के ज्वार-भाटा की तरह एक साथ आते ही रहेंगे। हम प्रकृति से ज़्यादा ताकतवर तो नहीं जो उसके नियम बदल दें।
मन एक बार को बदलाव का नियम समझ भी ले, तो मुश्किल यह है कि दुख, संघर्ष, विरह, प्रतीक्षा — इन सबकी उम्र बड़ी लंबी प्रतीत होती है। तुम किसी से भी पूछकर देखना। उसके दुख भरे समय के गुजर जाने की प्रतीक्षा हमेशा लंबी रही होगी। हम अपनी जल्दबाज़ी में प्रकृति से भिड़कर सिर्फ़ स्वयं को और दुख देते हैं। समय के बदलने की प्रतीक्षा करना सीखना होगा। जिससे हम प्रेम करते हैं, मुश्किल क्षणों में उनसे और प्रेम करें। जो काम हमें पसंद है, उसे और डूबकर करें। प्रतीक्षा का इससे बेहतर तरीका और क्या ही होगा?
मैं होटल की लॉबी से होते हुए, सड़क पार कर उस खेल के मैदान में आ गया हूँ, जिसे अभी तक खिड़की से देख रहा था। कुछ चीज़ें जब मन करें, तभी कर लेनी चाहिए। बेंच पर बैठकर नज़र चाँद की तरफ़ गई। मेरे और चाँद के बीच अब होटल के कमरे की खिड़की का काँच नहीं। आधा कटे चाँद से अब मेरा सीधा संवाद है।
जीवन के अस्थायीपन का ख्याल आता है। इस क्षण मैं यहाँ हूँ। कल यहाँ कोई और होगा और मैं कहीं और होऊँगा। मेरे मन में हज़ारों ख़्वाब हैं। उनको पूरा करने के लिए कोशिशों की उतनी ही लंबी चेकलिस्ट है। बस कोशिश रहती है कि ख़्वाबों के पूरे हो जाने की जल्दबाज़ी न रहे। प्रतीक्षा करने के साथ सहज हो जाऊँ। बच्चे फुटबॉल लेकर जा रहे हैं। आज का खेल समाप्त हुआ, वे कल फिर कोशिश करेंगे। बदलाव चाहे चीन और भारत का हो, या फिर मेरे-तुम्हारे जीवन का, अपनी गति से होते रहेंगे। हम सिर्फ़ कोशिश कर सकते हैं, क्रम नहीं बदल सकते। बदलाव ही स्थायी है और कुछ भी नहीं। अपने भीतर की सारी जल्दबाज़ियों को प्रतीक्षा का मर्म सिखाना होगा। मैं होटल रूम की तरफ़ बढ़ते हुए, मन में कबीर को बुदबुदाता हूँ:
धीरे-धीरे रे मना,
धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा,
ऋतु आए फल होय,
विदा,
वीकेंड वाली चिट्ठी