Dear X,
उम्मीद है कि मेरी वीकेंड वाली चिट्ठियाँ तुम तक पहुँच रही होंगी। यहाँ मौसम अच्छा है। बारिश है, हवाएं हैं, हरियाली है और न जाने कितना कुछ है जिसे महसूस किया जा सके। कभी-कभी लगता है जैसे हम उम्र के सिक्के बेचकर अनुभव ख़रीद रहे हैं।
देखो ना, इन अनुभवों ने हमारी सोच ,समझ और मान्यताओं को कितना उल्टा पुल्टा कर दिया। एक समय था कि उत्तर से भरा हुआ मैं, हरेक के हर सवाल का जवाब देना ज़रूरी समझता था। मुझे लगता था कि जवाब न देने से मैं कमजोर साबित हो जाऊँगा, हारा हुआ महसूस करूँगा। शायद, इसी भय से मैंने कई दफ़ा ग़लत ही सही , किंतु बोला ज़रूर।किंतु, इन दिनों कई बार लगता है, कि हरेक प्रश्न का उत्तर देना ज़रूरी है क्या?
किसी भी बहस में अपने उत्तरों से मैं कभी जीतता कभी हारता रहा हूँ । पर शब्दों की लड़ाई में सामने वाले के साथ-साथ स्वयं को भी छलनी ही तो किया है।पलटकर देखता हूँ तो प्रतीत होता है कि जब-जब मैं मौन रहा, मैंने सबसे सरल तरीके से उस मसले को निपटाया है। मुस्कराकर टाल देना, आगे के लिए छोड़ देना – ये ऐसी क्रियाएं हैं , जिनके भरोसे कई बार आप रिश्तों को दरकने से बचा ले जाते हैं। यहाँ तक कि अब मुझे लगने लगा है कि वास्तव में चिल्ला-चिल्लाकर अपनी बातें बोलते रहना हमारी भावनात्मक कमज़ोरी है।
उस बारिश वाले दिन, जब मैं एक पार्क में एकांत के सानिध्य में बैठा था, मैंने “ मौन “को थोड़ा और समझने की कोशिश किया । मुझे समझ आया कि बोलना या न बोलना ही मौन को नहीं परिभाषित करते। शब्द तो सिर्फ़ सतह पर दिखते हैं, असल मौन तो और गहरे जाकर विचारों में होता है।मैंने जब शब्दों के साथ साथ विचारों पर मिट्टी डालकर उस पूर्ण मौन को महसूस किया, तो लगा जैसे दुनिया थम सी गई है, सारी भाग दौड़ रुक सी गई है।उन कुछ क्षणों में लगा जैसे भीतर का समंदर शांत हो गया है। आह ! दुख है कि विचारों की आतातायी लहरों ने फिर से आकर उस मौन समंदर को भंग कर दिया।
उम्र के साथ यह बात तुम्हें भी समझ आयेगी कि “ मौन “ कमजोरी नहीं बल्कि शक्ति है ।यह आपको देखना है कि चुप होकर भी क्या आप चुप हैं या मन में हज़ारों ख़याल चल रहे हैं। भीतर से मौन होना एक बेचैन इंसान के वश की बात नहीं बल्कि संतुष्टि का प्रतीक है ।
अब एक सवाल मन में कौंध जाता है कि क्या मौन इतना ज़रूरी है? कहीं यह अकर्मण्यता या अनिर्णय के लिए एक आड़ तो नहीं? हम एक समाज का अंग हैं और यह सच है कि आप हमेशा मौन नहीं रह सकते । इसलिए एक और ऊहापोह रहती है कि कितना बोल देना है और कितना चुप रहना है।
फिर कृष्ण और शिशुपाल का प्रसंग याद आता है। शिशुपाल ने भरी सभा में कृष्ण को १०७ बार गालियाँ दी। वे मौन रहे । १०८वीं गाली पर कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का गला काट दिया था। वे न तो अकर्मण्य थे और न ही उन्हें निर्णय लेने में कोई हिचकिचाहट थी। बस उन्होंने सही समय की प्रतीक्षा की और बोलकर जवाब देने से अच्छा अपना कर्म किया।
ठीक यही चीज़ राम ने भी तो किया था । अपनी क्षमाशीलता के लिए प्रसिद्ध राम ने शांत मन से समुद्र से विनती ही तो की थी। लक्ष्मण के उकसाने पर भी न चिल्लाए , न क्रोध दिखाया। और आख़िर में जब क्षुब्ध हुए तो बस अपना शारंग धनुष उठा लिया और वह ज़िद्दी समुद्र तुरंत नतमस्तक हो उठा।
इस मौन ने ना जाने कितनों को स्वयं से वार्तालाप की एकाग्रता प्रदान की। सिद्धार्थ को सारे उत्तर किसी जंगल के मौन में ही तो मिले अन्यथा राज महल के शोर शराबे में वे राजा सिद्धार्थ ज़रूर बन जाते किंतु गौतम बुद्ध न बन पाते।
हाँ, आख़िर में एक बात और । प्रेम की सबसे बड़ी अभिव्यक्ति भी तो मौन ही है।जब प्रेम अपने चरम पर हो तो शब्द बेवजह लगते हैं, नाकाफ़ी लगते हैं। भावनायें जब अपने निर्मूल भाव में प्रकट होना चाहती हैं तो अपनी शुद्धता बचाये रखने के लिए शब्दों का हाथ छोड़कर मौन का सहारा लेती हैं।
यह दुनिया शब्दों से , विचारों से भरी पड़ी है। हर कोई हर बात का उत्तर देना चाहता है। हर कोई हर बात पर अपने विचार रखना चाहता है। उसे डर है कि वह पीछे न छूट जाए, अनपढ़ न करार दिया जाए । इस चिट्ठी में मेरे मन की बातें हैं , जो मैं तुमसे साँझा कर रहा हूँ। तुम्हें इन बातों से कुछ हद तक या पूरी तरह से असहमत होने का अधिकार है। इसी दुनिया में जीने के लिए “ मौन “ भी एक रास्ता है, मेरी यह चिट्ठी तुम्हें सोचने को विवश करे, इतना ही बहुत है। मेरी कविता की कुछ पंक्तियां तुम्हें सौंपते चिट्ठी का अंत करूँगा।
यह खामोशी भी कई दफ़ा,
शब्दों से ज़्यादा कह जाती है,
जब मौन बोलने को बढ़ता है,
आवाज़ स्वयं पीछे रह जाती है,
वीकेंड वाली चिट्ठी