डिअर X,
पिछली चिट्ठी में मैंने जिन जून की छुट्टियों का ज़िक्र किया था, वे अब समाप्त होने को हैं। भारतीय पक्षी फिर से अपने प्रवास को लौट रहे हैं। हम लौटते हैं तो सिर्फ शरीर नहीं लौटता, अनुभव भी शर्ट की कॉलर में चिपककर साथ चला आता है। भारत के ट्रैफिक की चिल्ल-पों, रिश्तेदारों की बिना बुलाए आवाजाही, सड़क के खाने का अनूठा स्वाद, रोज़मर्रा के जीवन से मुक्त माँ की गोद में पड़ा जीवन – यह सब स्मृतियों में साथ चला आता है।
सिंगापुर एक विकसित देश है, जहाँ बदलाव की गुंजाइश कम है। आप लौटते हैं, तो लगता है सब कुछ वैसा ही है जैसा आप छोड़कर गए थे। जैसे आपने किसी वीडियो को पॉज कर दिया था। सुबह ऑफिस जाती भीड़, सुनसान दोपहर और शाम को पार्क में खेलते बच्चों की खिलखिलाहट – सब कुछ वैसे का वैसा। बस जब आप लौटते हैं, तो भारतीय भीड़ को आप छोड़कर आते हैं, लेकिन यहाँ की वीरान ख़ामोशी में वहाँ की आवाज़ें कई दिनों तक गूंजती हैं। आह! कैसा छलिया मन है हमारा कि जिससे दूर भागकर यहाँ आए थे, उन्हीं की यादों का नास्टैल्जिया पीछा नहीं छोड़ता।
पिछले दिनों, पार्क में वॉक करते हुए मैंने एक बेंच पर एक भारतीय बुज़ुर्ग को बैठे देखा। मेरा ध्यान उनकी शून्य में निहारती आँखों पर गया। मैं ठिठका और उनके पास बैठ गया। वे पिछले एक घंटे से वहीं बैठे थे। मैंने बातें शुरू कीं। वे झिझके। नाप-तौल कर बोले। मैंने थोड़ी और कोशिश की, और वे थोड़ा और बोले। धीरे-धीरे वे यूँ खुले, जैसे ऊनी कपड़े की गांठ खुल गई हो। सिर्फ एक गांठ खुलने से, उन्होंने बातों का सारा स्वेटर खोल दिया – जीवन भर का सारा किया-कराया। बचपन, संघर्ष, प्रेम, शरारतें, पुरुषार्थ, बीमारी, दुःख, संताप – सब कुछ। सबका जीवन इन्हीं से तो बना है। जब मैं लौटा, तो एक जीवन भर की कहानी को जीकर लौटा।
मैं सोचता रहा कि उनके जीवन में मेरा क्या औचित्य है। न मैं कुछ जोड़ पाऊँगा, न कुछ घटा पाऊँगा। फिर भी, उन्होंने पिछले एक घंटे में पूरी शिद्दत से किसी अजनबी के सामने अपने जीवन का चित्र खींच दिया। मैंने बस इतना किया कि उन्हें समय दिया और उन्हें सुन लिया।
क्या किसी को सुन लेना इतना ज़रूरी है?
किसी को यह विश्वास दिलाना कि मैं तुम्हारी किसी बात पर जज नहीं करूंगा। आप खुलकर कह सकते हैं – अपने दर्द, अपने ग़म। आप दिखा सकते हैं अपनी कमज़ोरियाँ। मैंने अक्सर देखा है कि स्त्रियाँ अपने दर्द बाँट लेती हैं। बच्चे, परिवार, सास-ननद से लेकर कमर दर्द तक – किसी से भी पहली मुलाक़ात में साझा कर लेती हैं। स्त्रियों की महफ़िल में उन्हें इस बात का भय नहीं कि कोई उन्हें कमज़ोर कहेगा।
किन्तु पुरुष, अमूमन, नहीं बाँटते। बॉस की फटकार, नौकरी की थकावट, अपने स्वास्थ्य की फिक्र या परिवार की ज़िम्मेदारियाँ – वे किसी से नहीं कहते। वे बातें बदल लेते हैं। वे घंटों बातें करते हैं घड़ी, कार, प्रॉपर्टी, शेयर मार्केट – उन सब चीज़ों पर जो उनके पास हैं, पर अपनी बात नहीं करते। पुरुषों की महफ़िल में उन्हें डर है कि वे कमज़ोर न साबित हो जाएँ। स्त्रियाँ मानती हैं कि सब कुछ हमारे वश में नहीं, हम सबसे ताक़तवर नहीं। यह बात पुरुष भी जानते हैं, पर स्वीकार नहीं करते।
हम सबके जीवन में कुछ लोग होते हैं जो सुनते हैं। हम खुलकर कह पाएं, इसके लिए एकाध सवाल भी पूछते हैं। वे पूछते हैं, “ऐसा किया होता तो क्या होता?” – वे यह नहीं कहते कि “ऐसा करना चाहिए था।” वे हमें कुछ करने के लिए नहीं, सोचने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी बात हमें देर तक याद रहती है। अगली बार उनका तरीका अपनाकर हम उन्हें परिणाम बताने के लिए खोजते हैं।
हमारे चारों तरफ़ ऐसे लोग हैं जिन्हें बहुत कुछ कहना है। जिस दुनिया की ओर हम बढ़ रहे हैं, वहाँ लोगों को आर्थिक या शारीरिक मदद से ज़्यादा समय की मदद चाहिए। कोई उन्हें समय दे सके, उन्हें सुन सके। अगर आप किसी के भरोसेमंद श्रोता बन पाए, तो वह भी एक पुण्य ही है। और अगर आपको कोई सुन रहा है, तो उसका सम्मान कीजिए। उसके सुनने में आपकी बातों का नहीं, बल्कि उसके सुनने का गौरव है। हम सब आख़िर में कहानियाँ ही तो हैं। अपनी कहानी कहे बिना भला कौन इस दुनिया से जाना चाहता है? किसी की कहानी सुनते हुए, आप उसके हिस्से का भी अनुभव जी रहे होते हैं। आखिर, इन्हीं अनुभवों के लिए ही तो हम आए हैं।
तुम जहाँ भी हो, अगर कोई तुम्हें सुन रहा हो, उसका सम्मान करना। अगर कोई तुम पर विश्वास कर अपना जीवन सुना दे रहा है, तो उसके प्रति कृतज्ञ रहना।
मैं अपनी इन पंक्तियों के साथ इस हफ़्ते की चिट्ठी का अंत करता हूँ:
दूर से देखने पर,
हर कोई सादा पानी है,
पास जाकर देखिए,
सबकी रंग-बिरंग कहानी है।
विदा,
वीकेंड वाली चिट्ठी