इन दिनों यहाँ खूब बारिश हो रही है। इस निर्जन सी रात की बेला में , जब मैं यह चिट्ठी लिख रहा हूँ, तेज़ हवाएं, कड़कड़ती बिजली और ठंडी बूँदें, कई बार मेरी खिड़की को खटखटा रही हैं। बारिश मुझे इतनी प्रिय है कि मन करता है लिखना छोड़कर खिड़की के पास बैठ जाऊं। फिर लगता है कि चिठ्ठी रह जाएगी। कैसा इंसानी जीवन है कि कुछ न कुछ रह ही जाता है। वैसे यहाँ इतनी बारिश होती है कि कई कई दिन सुबह से शाम बारिश में धुल जाते हैं। जब बारिश लम्बी हो जाए तो अपने साथ एक अवसाद भी लिए आती है। मुझे बारिश प्रिय है तो इसका साथ आया अवसाद भी सर माथे पर लगाकर स्वीकार करटा हूँ ।
यह सब लिखते हुए मन में सवाल आया कि हम चाहे अनचाहे चिट्ठियों की शुरुआत मौसम के ज़िक्र से ही क्यों करते हैं? एक ही जगह पर समय के साथ मौसम कितने रंग बदलता रहता है। किसी एक ही समय पर अलग अलग जगहों पर भी मौसम के कितने रंग दिखते हैं । हर मौसम के अपने आकर्षण और विषाद है।हरेक इंसान का पसंदीदा मौसम अलग है। शायद मौसम एक अच्छा बहाना हो, जिसकी टेक लेकर हम मन की गिरहें खोलना शुरू करते हैं। संवाद स्थापित करने का जैसा पुल हो यह ” मौसम ” ।
” संवाद ” कितना खूबसूरत शब्द है। सच्ची और संतुलित बात चीत। दोनों पक्षों के पास कहने सुनने का बराबर मौका। दोनों पक्षों को विश्वास कि सामने वाला बिना जज किए पूरी ईमानदारी से उनसे कहेगा और उन्हें सुनेगा। पर इस खरीद फरोख्त की लिबलिबी दुनिया में यह ” संवाद” कितना रेयर होता जा रहा है। मैं कई नए लोगों या फिर कई पुराने दोस्तों से इसी ” संवाद” की उम्मीद में मिलता हूँ। अक्सर हताश होकर लौटा हूँ। मेरे परिचय में हमेशा वे इस दुनियाबी व्यवस्था में मेरा स्थान जानना चाहते हैं। ” पूरा नाम क्या है ” सरनेम के बहाने जाति जानना चाहते हैं। ” कहाँ से हो” मेट्रो सिटी, किसी छोटे शहर या फिर किसी गांव से। ” किस स्कूल से पढ़ाई की है ” सेंट जेवियर्स या ” गणेश प्रसाद इंटर कॉलेज” से मेरी स्मार्टनेस का अंदाज़ा लगा लेते हैं । “नौकरी और कंपनी ” उन्हें मेरे पैसे और ओहदे का भान कराती है। इन सारे सवालों को करते सुनते , लोग अक्सर एक दूसरे की परिस्थितियों की टोह लेना चाहते है। हमे सामने वाले की परेशानी से कम सरोकार है, बल्कि ज्यादा इस बात की चिंता है कि वह इस दुनियाबी सीढ़ी में हमसे ऊपर वाले पायदान पर तो नहीं पहुँच गया । सोशल मीडिया ने हमें एक और हथियार दे दिया है। जहाँ हम चिल्लाकर बता सकें कि यह देखो मेरा जीवन, मेरी छुट्टियां, यह देखो मेरा आनंद , मेरी बेहतरी का प्रमाण ।
मेरा अपना एकांत है। मैं अपने उसी एकांत में अगम्य हो जाना चाहता हूँ । कई बार कुछ समय के लिए ऐसी जगह चला जाता हूँ, जहाँ कोई सूचना पहुंचना भी कठिन हो। मेरे जीवन का अपना तरीका है। जैसे किसी वीकेंड की बारिश वाली सुबह ” रिमझिम गिरे सावन” सुनते हुए चाय पीता हूँ। दुपहरिया में ख़ालिश “चावल और दाल” खाकर थोड़ी देर झपकी लेता हूँ। शाम होते ही बारिश के छोटे से अर्धविराम में पैदल ही अनायास अनचीन्ही जगहों तक एकाकी ही ख़ाक़ छानता हूँ । कभी किसी तालाब के किनारे, कभी किसी पार्क में फूलों के सहारे , कभी किसी बेंच में बैठे पेड़ के लहराते पत्तों को निहारते। ऐसा लगता है जैसे मैं कोई मनुष्य योनि का प्रेत हूँ , जो प्रकृति को निहारने आया है। एकाकीपन की उस ध्यानस्थ अवस्था को भीतर भरे मैं देर रात घर लौटता हूँ । बिस्तर पर लेटे “शेखर एक जीवनी” के कुछ प्रसंग पढता हूँ और यह सोचते हुए सो जाता हूँ कि आखिर ” अज्ञेय” को जेल की उस काल कोठरी में शेखर और शशि के ये संवाद सूझे कैसे ? कैसी मनोदशा रही होगी?
सुनने में यह एकाकी और स्वयं से लबालब भरा जीवन भले सुखद लगे, किन्तु इस जीते हुए इस बात का भय रहता है कि कहीं मैं असामाजिक प्राणी तो नहीं हो जा रहा हूँ । पर क्या करूँ ? सामने वाले की भावनाओं को रौँद देने वाले , स्वयं के मुँहफट होने का गोल्ड मेडल लिए घूमते लोगों से मिलने का मन नहीं करता। दोस्तों के साथ बैठे बेफज़ूल बातों पर कितना वक्त गवाया। डर यह कि बिरादरी से बाहर न कर दिया जाये। कितने लोगों को फोन कर हाल चाल लेते रहे । डर यह कि रिश्तेदार अभिमानी ना घोषित कर दें । हर गुजरता जन्मदिन फोन में लगे रिमाइंडर की तरह काम करता है । उम्र के साथ शरीर के नश्वर होने का एहसास होता है। समय की कीमत समझ आती है। जैसे पिता पेड़ के पत्तों की काट छाँट किया करते थे, ठीक वैसे ही मैं रिश्तों, लोगों और विचारों को काट छाँट करता रहता हूँ। अब धीरे-धीरे वही आस पास बचे हैं , जिनसे बात करते एक धनात्मक ऊर्जा मिलती हो। मुंहफट लोग , बहिर्मुखी लोग अपना ख्याल रख लेते हैं। अपने मन की बात कही भी, कभी भी कह लेते हैं। फिर तुम्हे भी अपना ख्याल रखना होगा। तुम्हे असामाजिक होने का तमगा भले दे दिया जाये किन्तु किंतु अपना ख्याल तुम नहीं रखोगे तो भला कौन रखेगा ।
किसी प्रिय के साथ नदी के किनारे बैठे वक्त के इस झरने को निर्बाध झरते देखना कितना सुखद है । इस विश्वास के साथ कि न तुम मुझे जज करना, न मैं तुम्हें करूँगा। अगर तुम्हे कुछ न कहना हो, तब मैं चुप रह लूँगा। अगर तुम्हे नितांत एकाकीपन की तलाश हो, तो मैं बिना कुछ पूछे कहीं दूर जाकर बैठ जाऊंगा । तुम यह विश्वास रखना कि जब जितनी मात्रा में मेरी ज़रुरत होगी, मैं रहूँगा। जीवन इन्ही संतुलित रिश्तों की तलाश है। एक ऐसी तलाश जो कभी पूरी नहीं होती। किन्तु तलाश जारी रहे, यह ज़रूरी है।
देर रात हुई और बारिश भी सोने चली गयी है। मैं चिठ्ठी छोड़कर बाहर निकल आया था। कोलतार की सड़कें स्ट्रीट-लाइट में चाँदी के लकीरों सी चमक रही हैं । हवा में एक ऐसी ठंडक है जो मन को सहलावन सी लगती है । जैसे बारिश ने सब कुछ साफ़ कर दिया हो, मन के भीतर का अवसाद भी । एक प्रेम से भरा हुआ हृदय लेकर घर लौट रहा हूँ, जिसे किसी से कोई शिकायत नहीं।
फिर किसी मौसम में कुछ और बातें,
अगले सप्ताह तक के लिए,
विदा, वीकेडं वाली चिट्ठी