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31. May. 25

डिअर X,

मई के महीने का अपना एक नॉस्टैल्जिया है। स्कूल के छुट्टियों की दस्तक, आम के बाग़ीचे, लंबी दुपहरियाँ। आलस भरी एक ऐसी ही दोपहर यहाँ भी है। कुछ आम के पेड़ भी हैं। ऐसे ही एक पेड़ के पास बैठा मैं यह ख़त लिख रहा हूँ। बस, यहाँ सब कुछ बिल्कुल व्यवस्थित है—कहीं कुछ भी बेतरतीब नहीं । नॉस्टैल्जिया की उंगली पकड़े, थोड़ी देर के लिए मैं उस बिखराव को मिस करता हूँ। आह ! नहीं सोचा था कि जिससे भागकर मैं दूर जा रहा हूँ, कभी वह भी याद आएगा।

इस पेड़ के नीचे बैठे मन में झांकता हूँ तो पाता हूँ कि वह एक तलाश में है। मैं ही नहीं , मैं जिससे मिलता हूँ, यहाँ हर कोई जैसे किसी तलाश में है, जो ख़त्म ही नहीं होती। शायद इसलिए क्योंकि ज्यादातर को मंज़िल की स्पष्टता नहीं है। जो मिला, उससे मन क्षण में भर जाता है, फिर खाली हो जाता है। मन को हमेशा कुछ और चाहिए। मन सर्कस के कलाकार की तरह एक छल्ला छोड़कर दूसरे को पकड़ना चाहता है—खिलौने, अंक, प्रेम, प्रतिष्ठा, शांति और ईश्वर। तमाम छल्ले हैं इस सर्कस में।

जावेद अख़्तर की किताब “तरकश” में लिखा एक शेर याद आता है:

सब का ख़ुशी से फ़ासला एक क़दम है,
हर घर में बस एक ही कमरा कम है,

इस बेवजह की तलाश ने हमारे भीतर कितनी जल्दबाज़ी भर दी है, ना । हम फटाफट खाते हैं, गटागट पानी पीते हैं। न खाने का स्वाद, न पीने की तृप्ति। हमेशा किन्ही ख्यालों में बेसुध रहते हैं—नहाते हुए नाश्ते के बारे में, नाश्ते के समय ऑफिस के बारे में, ऑफिस के समय घर के बारे में। जीवन एक नियत त्रिज्या की परिधि में घिरा है—घर, परिवार, दोस्त, ऑफिस। और उसी दायरे में ऐसे भाग रहे हैं, मानो कोई शेर पीछे भाग रहा हो । हमें कभी भी गुजरते हुए क्षण में नहीं होना है—हमेशा अगले क्षण के बारे में सोचना है। वरना शेर खा जाएगा।

किसी रोज़ फ़ोन, लैपटॉप, परिवार, दोस्त—सबको पीछे छोड़कर किसी एकांत में जाना चाहिए। जैसे तथागत चले गए थे—सब कुछ पीछे छोड़कर। थोड़ी देर के लिए ही सही। अकेले बैठकर विचारों के लट्टू को देखना चाहिए, जो चक्करघिन्नी की तरह घूम रहा हो। उसे घूमते, लड़खड़ाकर गिरते, और शांत होते हुए देखना चाहिए।

फिर सोचना जीवन की साँझ के बारे में—जब घर, गाड़ी, परिवार, ट्रॉफियाँ और शानो-शौकत के सारे रंग किसी सफ़ेद कपड़े में सिमट गए हों। कोई ऐसा तूफ़ान जहाँ मांसल देह थक जाए, पतवार हाथ से छूट जाए, और नाव मँझधार के हवाले छोड़नी पड़े। डूबते हुए महसूस करोगे कि जितनी भावनाएँ भीतर थीं—यादें, प्रेम, क्रोध, ईर्ष्या, डाह, मोह—सब बेमानी होकर शांत होती जा रही हैं।

जब मन इस विचार से भीग जाए, तो फिर सोचना कि जैसे जी रहे हैं, क्या ऐसे ही जीना था? इसी बेचैनी और जल्दबाज़ी में गुज़ार देना था इतना क़ीमती जीवन? फिर सोचना कि अगर कल कोई बहाना न हो—न पैसे, न नौकरी, न परिवार, न ज़िम्मेदारियाँ—तो क्या होता तुम्हारा आदर्श दिन? मैं जानता हूँ कि यह सोचना भी कितना मुश्किल है, ना । हम अपने मनमाफ़िक जीवन से इतने दूर चले गए हैं कि उसकी कल्पना भी ठीक से नहीं कर पाते।

क्या करते तुम पूरे दिन? कितना सोते, कितना पड़े रहते? कितनी मैगी खाते और कितना टीवी देखते ? कुछ तो करते। सुबह उठकर योग करते, कुछ देर ध्यान करते। फिर अपने मन का कोई काम करते—ऐसा काम जिसे करते भले कोई और खुश न हो, तुम खुश होते। शाम को कोई संगीत सुनते, कुछ करीबी दोस्तों के साथ वक़्त बिताते, फिर सो जाते।

हर किसी का एक अपना आदर्श काल्पनिक जीवन होता है। इसे हमने सप्ताहांत पर या छुट्टियों के चंद दिनों पर टाल दिया है। आह ! इतना बड़ा जीवन हमने महज कुछ दिनों में समेट दिया है। बाकी दिन हम रोबोट हैं—परिस्थितियों के ज़िम्मेदार रोबोट।

इस विचार मात्र से ही मन विद्रोह कर बैठता है। न तो यह सोचा कि मेरे लिए आदर्श जीवन क्या है। और अगर सोचा भी, तो यह नहीं सोचा कि इसे थोड़ा-थोड़ा ही सही, रोज़ जिया जा सकता है। बिल्कुल जिया जा सकता है, बल्कि जिया ही जाना चाहिए। अपने तरीक़े का जीवन हर रोज़ जीना हमारी ज़िम्मेदारी है।

बाकियों के बनाए ढांचे में जीते-जीते हमने कितना कुछ हासिल किया। एक दिन वह सब छूट जाएगा। सिर्फ वही क्षण याद रहेंगे जब हम अपने मनमाफ़िक जीवन जी रहे थे। वह संगीत, बारिश का वह एकांत, मनपसंद व्यक्ति के साथ चाय। इन पलों को बढ़ाइए। इन्हें रोज़मर्रा में शामिल कीजिए। सिर्फ सप्ताहांत या छुट्टियों में मत समेटिए।

मेरे लिए लिखना कभी काम नहीं रहा। यह वह जीवन है जो मैं जीना चाहता हूँ।इन चिट्ठियों को लिखते वक़्त , मैं नहीं थकता। मैं उसी जीवन को जीने की कोशिश कर रहा होता हूँ। मन में सवाल उठता है कि कैसा जीवन हो ? एक स्पष्ट उत्तर भी मिलता है—
किताबों के साथ जीवन बीते और जब यहाँ से जाएँ, तो कुछ यूँ जैसे लिखते-लिखते स्याही चुक जाए, एक-आध शब्द अधूरे रह जाएँ।

विदा,
वीकेंड वाली चिठ्ठी

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