Dear X,
मुझे बचपन से याद है कि भौतिक वस्तुएं कभी नहीं आकर्षित करती रही। वे हमेशा सिर्फ ज़रुरत भर की लगी। मिडिल क्लास परिवार में भौतिक वस्तुओं के प्रति आकर्षण लाजमी था । जो चीज़ नहीं होगी, मन वही तो चाहेगा। किन्तु मुझे हमेशा लगा कि यह चीज़ें सिर्फ सतह पर हैं, जीवन इन चीज़ों से और गहराई में है।
उम्र के साथ समझ आया कि मेरा आकर्षण वस्तुओं में नहीं बल्कि विचारों में था। लोग क्या कहते हैं, कैसे सोचते हैं कैसा व्यवहार करते हैं, ये बातें मुझ पर ज्यादा प्रभाव छोड़ती थी, वनस्पत इसके कि किसी ने कैसे कपडे पहने हैं, कौन सी घड़ी लगाई है, कैसा दिखता है, वगैरह वगैरह।
ख़ैर, परिवार को विचारों की कम और चीज़ों की ज्यादा ज़रुरत थी। लग गए भौतिक सुख इकठ्ठा करने में। जिसे जो चीज़ पसंद न हो और बदले की भावना से हासिल कर रहा हो, उसका मन भी उन चीज़ों से जल्दी भर जाता है। आप एक औसत तरीके से दिखें, ठीक से रहे, इन सबके लिए अनंत चीज़ों की ज़रुरत नहीं। कई रंग के शर्ट पहनने के बाद, कई तरह के चश्मों के लगाने के बाद, थोड़ी बहोत जो भी फ़ैशन की समझ थी, वह सब करने के बाद, मन ऊबने लगा।
३१ दिसंबर की रात वाली चिठ्ठी में मैंने स्वधर्म का ज़िक्र किया था। क्या पता भौतिक सुख मेरे स्वधर्म में ना आता हो। मन ऊबा तो विपरीत दिशा में चल पड़ा। मॉल में चीज़ों को खरीदने की भीड़ से ऊबन, कपड़ों से ठूसे भरे अलमारी से ऊबन, पार्टियों के शोर शराबे से ऊबन। तब समझ आया कि मैं वास्तव में मिनिमलिस्ट (अल्पवादी) हूँ। ज्यादा चीज़ें ऊर्जा खींच लेती हैं। एक बार में किसी एक ही इंसान से मिलना अच्छा लगता है। कुछेक कपड़े, कुछेक चीज़ें, कुछेक रिश्ते, बस इतना बहुत। मुझे लगा कि क्या मैं ही ऐसा हूँ? बाकी सब तो घंटों गाड़ियों की, पार्टियों की, शानो शौकत की बाते कर सकते हैं। अकेलापन महसूस हुआ, ये दुविधा किससे साँझा की जाये, समझ न आया तो गूगल भगवान् की शरण में गया । वहां पता चला कि दुनिया में हर १०० में २० लोग मेरे जैसे मिनिमलिस्ट हैं। मतलब हर ५ में १। पर ये लोग मुझे दिखाई क्यों नहीं देते हैं? सोचकर हंसी आयी कि मैं भी लोगों को कहाँ दिखाई देता हूँ। कोई अल्पवादी होने की तख्ती तो नहीं लगा रखा है। फिर लगा ये जो लोग मेरी तरह जीवन से जुड़ी कविताओं को गहराई तक जाकर समझते हैं। ये लोग जो पार्टियों के बाहर अकेले बैठे रहते हैं, शायद यही १०० में से २० हैं।
मेरे जैसे लोग, जिन्हे लगता है कि चीज़ें, रिश्ते, लोग कम रहेंगे तो खुद के लिए जगह बचेगा। कैसा अजीब विचार है, ना। हमें रहना इस दुनिया में है, और हमें इससे इतर एक हमारी दुनिया चाहिए । खैर जीवन एक है, हमें ही जीकर मरना है तो जिस वायरिंग डिफेक्ट के साथ हैं, उससे छेड़छाड़ क्यूँ? और वो भी तब क्यों जब पता हो कि कई हमारी तरह के लोग इसी नाव में बैठे हैं।
जब कभी आस पास के लोगों के दबाव में भौतिक वस्तुओं का लालच मन में पनपता है, कुंवर नारायण की पंक्तियाँ नींद से जगा देती हैं:
घर रहेंगे,
हमीं उनमें रह न पाएँगे,
समय होगा,
हम अचानक बीत जाएँगे, वीकेंड वाली चिट्ठी