Dear X,
इन दिनों जब मैं चारो तरफ नजरें घुमा कर देखता हूँ तो प्रकृति कुछ ज्यादा ही सजी संवरी नज़र आती है। रातें थोड़ी और उजली होने लगी हैं। चाँद के प्रकाश में लगता है जैसे नदियों में पानी नहीं बल्कि पीतल बह रहा हो। रातें सुनहरी और दिन हरे लगते हैं। देखो, यह कैसे बसंत के दिन हैं, जिनमे रंगों ने भी आपस में कई रंग बदल लिए हैं। मैं जानता हूँ कि यही बसंत तुम्हारे पास भी पहुंच रहा होगा।
ऋतुओं में कितना अलग है ना, यह बसंत । इसके कारनामें भी तो अनोखे हैं । इसने गर्मी और सर्दी के तापमानों के हाथ पकड़कर मिला दिए हैं उन्हें सम कर दिए हैं।
धरती पर पेड़ों और फूलों के कितने रंग बिखेर दिए हैं जैसे कोई नयी नवेली दुल्हन कई तरह के आभूषणों, कई रंग के कपड़ों को पहने, पैरों में लाल रंग की महावर लगाए चली आ रही हो। सोचो, अगर बसंत न आता तो आखिर हमें कौन बताता कि इसी धरती में इतना वैविध्य है। वैसे विविधता में आपस में सर्वश्रेष्ठ होने की स्पर्धा का खतरा भी बना रहता है, किन्तु बसंत में तो मानों सारी विविधता एक दूसरे का हाथ थामे एक साथ खड़ी होकर प्रेम के पक्ष में आदिम क्रान्ति कर रही है ।
बसंत ऋतु का प्रेम से गहरा नाता है। जो प्रेमी साथ हैं उनके लिए वसन्त सुख की रुत है, और जो दूर हैं उनके लिए वही बसंत दुःख की रुत। जो हमेशा के लिए दूर हो गए, उनके लिए वसन्त एक ऐसी रुत है जब पुराने घाव लहक उठते हैं । इसलिए जैसे प्रेम किस्मत वालों के नसीब में होता है, बसंत भी किस्मत वालों के हिस्से में आता है। जब हम प्रेम में होते हैं तो लगता है जैसे जीवन में हर रोज बसंत है और जब बिछड़ते हैं तो लगता है अब पुनः जीवन में बसंत नहीं आएगा।
और जहाँ प्रेम है वहां भावनाएं हैं। बसंत भी कितनी भावनाएं छुपाये बैठा है जिसकी कल्पना न की जा सके । मैं फिर भी कुछ चित्र बनाने की कोशिश करता हूँ, जिसमे बसंत की भावनाये दिख जाएं। जैसे कोई स्त्री विरह के ज्वर में चुपचाप लेटी हो, कोई घर छोड़कर जाता पुरुष ट्रेन छूटने के बाद किसी की याद में उस सुनसान रेलवे के डिब्बे में रो दे या फिर उछलते कूदते बच्चे बेवजह खिलखिलाकर हँस पड़ें जैसे गेंद टिप्पा खा रही हो। इन सारी भावनाओं का प्रतिबिम्ब है, बसंत ।
तुमसे सच कहूँ तो मैंने कभी ईश्वर को नहीं देखा किन्तु यह भी सच है कि उसके बनाये रहस्य देखे हैं। जैसे हारमोनियम में छुपे कई धुन देखे हैं, ठीक वैसे ही प्रकृति में छुपी कई ऋतुएं देखी हैं। बसंत प्रकृति का इतना खूबसूरत रहस्य है कि इसे देखते हुए लगता है कि इतनी खूबसूरती का निर्माण करना इंसान के वश की बात तो नहीं थी।
बसंत के मौसम में किसी यात्रा पर निकल जाओ तो आँखों के हिस्से में कितना विस्मय आएगा। तरह तरह के पहाड़ों, जंगलों, वनस्पतियों और जलवायु से गुजरते, तरह तरह के लोकगीतों में प्रेम का राग सुनते एक क्षण को ऐसा महसूस होगा जैसे कानों में सचिनदेब बर्मन का पार्श्व संगीत गूंज उठता है – ओ रे माझी…अबकी बार…. ले चल पार….
बसंत में बिखरा प्रकृति का सौंदर्य भी तो ऐसा ही है, कहने में संक्षिप्त किन्तु महसूस करने में विस्तृत।
इन बसंत के दिनों में कितने प्रेम पत्र लिखे गए होंगे। न जाने कितने सुन्दर परिवर्तनों के बीज वसन्त के दिनों में बोये गए होंगे ।
सूर्याकान्त त्रिपाठी निराला जी ने लिखा था –
अभी ना होगा मेरा अंत
अभी अभी तो आया है,
मेरे जीवन में मधुर बसंत
सच ही तो कहा था महाप्राण ने, लोग रोग से, क्षय से मरते होंगे, असमय किसी हादसे से मरते होंगे, कोई बसंत के घिर आने से नहीं मरता होगा। बसंत तो जीवन देता है, ले कहाँ सकता है?
कहते हैं, जिसपर गुलाल का रंग ना चढ़ पाए, उसे वसन्त की क्या खबर? सच ही तो कहते हैं। मुझे भी लगता था कि या तो आप गेरुए रंग में रंगते हो या फिर गुलाल के रंग में । जब आप बसंत हो जाते हैं फिर संत नहीं हो पाते। पर जैसे जैसे जीवन गुजरा, मुझे लगा अध्यात्म भी प्रेम का ही एक हिस्सा है। अगर बसंत जैसी खूबसरती चारो तरफ फैली हो तो भला बुद्ध ध्यानलीन होने के लिए आँखें क्यों बंद करेंगे । बसंत के दिनों में उन्हें भी ध्यानस्थ होने के लिए भीतर जाने की ज़रुरत नहीं पड़ती होगी ।
इसलिए तुम भी वक्त निकालकर जाओ, घर से बाहर निकलो, मन से बाहर निकालो, अपनी दुनिया से बाहर जाओ , और इस प्रकृति के अलौकिक सौंदर्य को गले लगाओ। क्यूंकि कुछ भी टिकता नहीं, यह सौंदर्य भी नहीं।
वीकेंड वाली चिट्ठी