प्रिय बेटे!
बचपन में मैंने ट्रेन की खिड़की के पास बैठे कितनी यात्राएं की हैं। रात के वक्त जब बड़े सो जाते, तब चुपचाप उस खिड़की से चाँद को तकते रहना, मेरा पसंदीदा काम था। मुझे इस बात का छलावा था कि चाँद मेरे साथ साथ चल रहा है। बड़े होने पर लगता है जैसे तब चाँद साथ – साथ चलने का आभास देता था , ठीक वैसे ही इस जीवन यात्रा में इंसान की परेशानियां भी उसके साथ -साथ चलती हैं। उम्र के नित नए पड़ाव किसी नए स्टेशन की तरह आते रहते हैं और परेशानियां नया रूप धारण कर साथ चलती रहती हैं । इस जीवन यात्रा पर सरसरी नज़र डालूं तो उम्र के हर पड़ाव पर कुछ न कुछ था, जिसकी चाह ने परेशान किया। मसलन, कभी खिलौने, कभी पढ़ाई, कभी प्रेम, कभी शादी, कभी बच्चे, कभी ओहदा, कभी अध्यात्म। यह सूची लम्बी है , आज इनमे से एक पर बात करते हैं।
मैंने अपने पिता को देखा था और अब तुममे अपने पुत्र को देख रहा हूँ। लगता है जैसे जीवन गणित के वृत्त की तरह है , जो घूम फिरकर वही आ जाती है। अपने चारो तरफ बड़े होते हुए बच्चों की मनोदशा देखते मन में कई ख्याल आते हैं। जिन बच्चों पर माता-पिता अपनी जान छिड़कते हैं, बड़े होते ऐसा क्या हो जाता होगा कि उन्ही बच्चों को माता-पिता में दुश्मन नज़र आने लगे। यह चिट्ठी मेरा उन बच्चों से संवाद है। मेरे पिता ने मुझसे इस बारे में बात नहीं की। मैं निश्चित हूँ उनकी सोच भी मेरी तरह रही होगी किन्तु वे कभी कह न सके। मेरे लिए भी तुमसे कहना आसान नहीं होगा । पिताओं के लिए कभी भी बेटों से खुलकर कहना आसान नहीं होता। सोचा चिट्ठी के ज़रिये तुम तक प्रेषित करूँ।
बेटे! सबसे पहले तो मुझे स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं कि मैं दुनिया का सबसे स्मार्ट इंसान कत्तई नहीं हूँ। बचपन में तुम्हे ऐसा लगता होगा , मुझे भी अपने पिता के लिए ऐसा ही लगता था। पर बड़े होते मेरी तरह तुम भी समझ गए होगे कि इंसान की सीमाएं होती हैं। मुझे पता है कि मेरे द्वारा दी गयी कई सलाह, तुम्हे अब बेमानी से लगते होंगे। मुझमे और तुममे एक पूरी पीढ़ी का अंतर जो है। दुनिया तब से अब में कितनी बदल गयी। क्रिकेट सचिन से विराट हो गया। टीवी दूरदर्शन से वेब सीरीज। सन्देश चिठ्ठी से इमोजी में तब्दील हो गए । जब मेरा और तुम्हारा जीवन इस कदर अलग अलग गुजरा है तो सोच अलग होना लाज़मी है।
ऐसी कई चीज़ें हैं जो मुझे नहीं पता थी। मुझे लगा कि क्लास में फर्स्ट आना ज़रूरी है। विषयों में कला की जगह विज्ञान लेना ज़रूरी है। अच्छी नौकरी पाना ज़रूरी है। सबसे झुककर रहना ज़रूरी है। अब मुड़कर सोचता हूँ तो लगता है मेरी स्वयं की सोच कितनी बदल गयी है। हाँ, कुछ चीज़ें अब भी मानता हूँ, जिसकी तुम्हे हमेशा नसीहत दिया करता हूँ ।
मैं हमेशा कहता हूँ कि, मेहनत हर जगह काम आएगी, शार्ट कट नहीं। बस मेहनत का मतलब यह नहीं कि सुबह चार बजे उठकर मेरी तरह संस्कृत की धातुएं याद की जाएं। मेहनत स्मार्ट तरीके से होनी चाहिए। तुम स्मार्ट तरीके मुझसे बेहतर ढूंढ लोगे, किन्तु मेरी इतनई मानना कि मेहनती बने रहना ।
मैं हमेशा कहता हूँ कि लोगों का सम्मान ज़रूरी है। किन्तु इतना ज़रूरी भी नहीं रीढ़ झुक जाये और स्वाभिमान और सम्मान का अंतर न दिखाई दे। इस दुनिया में किसी को भी यह हक़ नहीं जो तुम्हे कहे कि तुम फलां चीज़ के लायक नहीं हो। यहाँ तक कि यह हक़ मुझे यानि तुम्हारे पिता तक को नहीं। दूसरों का सम्मान करते हुए, अपने स्वाभिमान का ज़रूर ख्याल रखना।
कला या विज्ञान, कौन सा विषय लिया जाये, ये बातें अब बहुत पुरानी हो गयी। अब तुम्हारे पास डॉक्टर या इंजीनियर बनने के अलावा हज़ारों रास्ते हैं। कौन से रास्ते तुम्हे चलना है, अब यह चयन तुम पर हो छोड़ा है। हमारी पीढ़ी ने अनिच्छा से नौकरी करते हुए अपना पूरा जीवन गुजार दिया। बस तुम जो भी करो, मन लगाकर करो। जीवन के हर क्षण को पूरी तरह धंसकर जिया जाना चाहिए। वीकेंड की प्रतीक्षा में नहीं।
स्वास्थ ज़रूरी है। शरीर ठीक रहेगा तभी सारी योजनाओं के सफलता की संभावना होगी। अब इस स्वास्थ के लिए जिम जाना है, दौड़ना है, सब तुम पर छोड़ा। स्वास्थ का विज्ञान तुम मुझसे बेहतर जानते हो। बस तुम्हे शराब सिगरेट की लत न लगे, मेरे लिए यही काफी है।
इस तरह के ज्ञान तो मैं तुम्हे अक्सर देता रहता हूँ किन्तु तुमसे सच कहूं तो मुझे बहुत कुछ नहीं पता। और जो पता भी है, उसके गलत होने की संभावना बानी रहती है । यह मेरी आसक्ति भी है कि मैं तुम्हे स्वयं से सफल भले ना देखूं, स्वयं से बुरी हालत में नहीं देखना चाहता। वो सारी परेशानियां जिनके किस्से मैंने तुम्हे कई दफा सुनाये हैं और जिन्हे सुनकर तुम बोर हो जाते हो, बेटे! मेरा विश्वास करो, मैंने उससे कहीं ज्यादा परेशानियां झेली हैं। मैं नहीं चाहता कि तुम्हे उसका हिस्सा भी झेलना पड़े। यह सोचते हुए मैं भूल जाता हूँ कि तुम्हारी अपनी परेशानियां है। जो मुझे समझ नहीं आती। बस तुम्हारी फिक्र रहती है और इसका मैं ज्यादा कुछ कर नहीं सकता। जिस चीज़ के बड़े होने में आपने अपना जीवन दे दिया हो, उससे आसक्ति न होना मानवीय सीमाओं को लाँघ जाना है। मैं ईश्वर बनने की कोशिश करता हूँ और हार कर मनुष्य रह जाता हूँ। मैं कई बार तुम्हे तुम्हारे हाल पर छोड़ देना चाहता हूँ , किन्तु मेरे भीतर का चिंतित पिता नहीं छोड़ने देता ।
अपनी कमियां, कमज़ोरियाँ, मज़बूरियां तुमसे साँझा करके मन हल्का महसूस कर रहा है। झूठे दम्भ का पत्थर कई पिताओं के सीने पर से हट गया है। जाओ, और खूब मन से जिओ। आसक्तिवश, मैं बिन मांगे सलाह देता रहूँगा, क्या लेना है और क्या नहीं, सब तुम पर छोड़ा। बस इतना याद रखना कि तुम जब भी लड़खड़ाओगे, तुमसे ज्यादा घबराहट मुझे होगी। तुम जब भी सफल होंगे, तुमसे ज्यादा ख़ुशी मुझे होगी। ठीक उतनी ही ख़ुशी जितनी तब हुई थी जब तुम किंडरगार्डन में लड़खड़ाकर दौड़े और आखिर में जीत गए थे।
वीकेंड वाली चिठ्ठी