Dear X,
यह चिट्ठी जब मैं लिख रहा हूँ, यहाँ पूर्णिमा की रात है। झिंगुर की आवाज़े हैं। हवाओं में हल्की बूंदाबादी की नमी है। खिड़की पर चाँद पीले फूल की तरह खिल उठा है ।पीतल की तरह पीला चाँद, जिसकी रौशनी में दिन का उजास है। अपने एकांत में लीन चाँद । इस आभास से परे कि यहाँ से हर रोज उसे अधूरा होते हुए अमावस्या तक मिट जाना है।
मेरे कमरे में एक पार्श्व संगीत बज रहा है। क़ैसर उल जाफ़री का लिखा गीत ” हम तेरे शहर में आये हैं, मुसाफिर की तरह” गुलाम अली अपनी तमाम मुरकियों के साथ गा रहे हैं। खिड़की वाले चाँद से नज़रें टकराई तो लगा जैसे यह गीत चाँद की यात्रा के लिए गाया जा रहा है। किंतु पूर्णिमा से अमावस्या की कई यात्राएं पूरी करने वाला चाँद, सिर्फ अपने चलते रहने पर खुश है। ऋग्वेद का मन्त्र याद आया – ” चरैवेति” यानि ” अकेले चलते जाना। मन में सवाल कौंधा। क्या चलते जाना, कहीं पहुंच जाने से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
उम्र गुजरते हुए जो सबसे निर्दयी और मुश्किल सबक मैंने सीखा वह यही था कि आप कई दफ़ा अंदर से चाहे कितना भी टूट चुके हों, आपका चलते रहना जरूरी है। यह कितनी निर्ममता भरी बात है, जिसे लिखते हुए कलम भी कांप जाये । पर सच्चाई तो हमेशा कठोर ही रही है। न अंगुल भर घटती है न बढ़ती है। उसे फर्क नहीं पड़ता कि वह कठोर है या मुलायम, वह बस सच है।
कभी किसी अजनबी से पूछकर देखना। हम सबने अपने जीवन में कम से कम एक विशाल तीव्रता वाला दर्द झेला है। उन क्षणों की यादें, हृदय पर जस की तस अंकित होंगी।
जब आप अपने प्रियतम को स्टेशन पर छोड़ने गए थे । आपको पता था कि यह मुलाकात शायद आखिरी होगी । आप चाहकर भी उसे नहीं रोक पाये, गार्ड ने हरी झंडी दिखायी और ट्रेन यादों का धुंआ छोड़ते हुए वक्त की धुंध में गुम हो गयी । बारिश में घर लौटते वक्त आपने छाता नहीं खोला । आंसुओं को बारिश की बूंदों के साथ बहाते हुए लगा था कि अब ह्रदय धड़कन शून्य हो चला है । पर क्या सचमुच धड़कनें रुकी? धड़कने धीमी हुई फिर चल पड़ीं।
जब आपका कोई प्रिय हॉस्पिटल में आखिरी साँसे ले रहा था। आपने उसका हाथ ना जाने देने के आग्रह में कसकर पकड़ा था। अपने आराध्य से कितनी मनुहार की थी आपने, किन्तु वह चला गया। इतनी दूर कि अब वहां तक कोई डाकिया आपका प्रेम संदेश भी नहीं पहुँचा पायेगा । उस दिन लगा होगा कि उसके साथ -साथ आपका भी जीवन समाप्त हुआ। पर क्या जीवन सचमुच समाप्त हुआ। आप रुके और फिर चल पड़े ।
रोजमर्रा के उबाऊ कामों से काई दफा मन चटक जाता है। कोई ऑफिस से तो कोई किचन से ऊब जाता है। मन में सवाल आते हैं कि क्या हमने इसके लिए जीवन के कांट्रैक्ट पर हस्ताक्षर किया था। निराशा में आत्मा बिखरने की कगार पर होती है। पर क्या हम बिखर जाते हैं? नहीं, हम मोटिवेशन के पॉडकास्ट सुनते हैं । एकांतिक वार्तालाल में स्वयं को समझाते हैं। फिर बिखरे मन को समेट कर चल पड़ते हैं।
जीवन में इतना दुहराव है कि हम सब इन परिस्थितिओं से गुजरे हैं ।हमारा दिल टूटा होगा, कोई प्रिय हमेशा के लिए छूटा होगा, कुछ कामों को करते हुए शरीर से ज्यादा मन थका होगा। हमने जिंदगी से ठहरने की गुजारिश भी की होगी । किन्तु जिंदगी इतना भी समय नहीं देती है कि रूककर घावों को देख लें।
यह सोचते हुए खिड़की से पेड़ की डालियों पर पत्तों की सरसराहट सुनता हूँ । इस अनुभव से मन आह्लादित हो उठता है।
ख़याल आता है कि दिक्कत इस बात की है कि हमें बचपन में इस जीवन के लिए कोई ठीक से तैयार नहीं करता। बचपन की कहानियों में हीरो है, जिसके पास सुपर पावर है। फिल्मों में अंत हमेशा सुखद होता है।सब ठीक हो जाने की नाटकीयता के साथ ही फिल्में समाप्त होती हैं।लेकिन जब हम बड़े होते हैं, भ्रम का दर्पण हाथ से गिरकर छन्न से टूट जाता है। वे सारी सुखद बातें सिर्फ कल्पनाओं में ही ठीक हैं। जबकि वास्तविक है सिर्फ बचकर, ज़िंदा रहकर, चलते जाना। तुम कहोगे कि इस बोरिंग काम में न कोई नाटकीयता है न वीरता? किंतु यह सच नहीं। टिके रहना सचमुच बहादुरी का काम है। भीतर से बिखर चुकी अवस्था में भी बाहर से मुस्कराते रहना, आसान नहीं । जब हार सुनिश्चित हो और भाग जाना आसान विकल्प लगे, फिर भी हार की आँखों में आंखें डालकर खड़े रहना, आसान नहीं। जब हम एक कदम बढ़ाएं और मन दो कदम पीछे खींच ले, मन के विरुद्ध चलते रहना, आसान नहीं।
दर्द के क्षणों में हम उम्मीद का तिनका ढूंढ़ लेते हैं। हमारे पास कोई नहीं होता। हम स्वयं से संवाद करते हैं, साहस के दो शब्द कहते हैं। स्वयं की पीठ थपथपाते हैं, और चल पड़ते हैं।कई साल गुजारने के बाद समझ आएगा कि सहनशीलता में चीख का शोर नहीं है। यह एक खामोश जिद है । सबकुछ सहकर चलते रहने की जिद ।
आख़िरकर जीवन है ही क्या? जन्म से मृत्यु की यात्रा । जीत, हार, हर्ष, विषाद, यह सारे पड़ाव मात्र हैं। सारे सिर्फ अनुभव हैं। कभी हासिल करने का दंभ, कभी छूटने का शोक, कभी प्रेम तो कभी तीव्र वियोग ।
किंतु पड़ाव चाहे जैसा भी अनुभव करायें, जितना भी हाथ थामकर रोकने की कोशिश करें, हमारा हर छोटा, चिहुंककर आगे बढ़ाया कदम ही हमारी सहनशक्ति का प्रमाण है।
यही संघर्ष, मौन सहनशक्ति और चलते रहने की जिद ही जीवन के मायने हैं। यह आसान दिखता है पर होता नहीं है ।
चाँद खिड़की से गुज़र चुका है । मुझे पता है वह एक रात फिर मेरी खिड़की पर आयेगा। वह बस अपनी यात्रा में है। तुम और मैं भी अपनी अपनी यात्राओं में हैं।
विदा, वीकेंड वाली चिट्ठी