Dear X,
मन कई बार इस बात की तफ़तीश करता है कि मेरे लिए आखिर ख़ुशी के क्षण कौन से होते हैं? वे कौन सी स्मृतियाँ हैं , जब मन पूर्णतः प्रसन्न रहा हो। संवेदनशील लोगों के लिए प्रसन्नता आसानी का विषय नहीं। बड़ी सोच विचार के बाद मन में आया कि कोई साहित्यिक कविता या कहानी या उपन्यास पढ़ते हुए मुझे ध्यानलीन होने की अनुभूति होती है। मैं जानता हूँ कि किताब पढ़ने वालों की संख्या इस दुनिया बहुत ज़्यादा नहीं। विशेष तौर पर जब क्षणिक सुख देने के लिए इंस्टाग्राम रील मुंह बाए खड़ा हो । किंतु जिन्हें पढ़ने का शौक है वे मेरी इस बात से इत्तफ़ाक़ रखेंगे कि किताबें पढ़ना भी मानव योनि में जन्मने का सुख है।
इस वैशाख के महीने में शनिवार की सुबह खिड़की से रोशनी छनकर आ रही है। वीकेंड का आलस बाहर तक फैला है। हफ्ते भर की नींद का हिसाब सबको पूरा करना है । खिड़की खोलकर मैंने हवाओं को फेफड़ों तक महसूस किया। लगा कि ताजा हल्की हवाओं में सूरज के आहिस्ता पड़ते क़दमों की ज़ुंबिश है। टेबल पर चाय का प्याला और उसके ठीक पास में रखी “ शेखर एक जीवनी” । ऐसा नहीं है कि आज पहली बार अज्ञेय से मुलाकात हो रही है। शुक्र हो यूट्यूब का, मैंने उनकी कविताएँ तक उनकी आवाज़ में सुनी हैं। “ निर्माता भविष्य में बंदर कहलायेंगे ” कितना बड़ा दर्द कितने सरल शब्दों में कह देते हैं, अज्ञेय। इस बात का एक और प्रमाण है – ” नदी के द्वीप ” । शब्दों की जादूगरी और विचारों की गहराई कोई “ अज्ञेय“ से सीखे।
“शेखर एक जीवनी” आज दोबारा पढ़ रहा हूँ । तुम्हें लगेगा कि दोबारा क्यूं? किसी चीज़ से दुबारा अवगत होते हुए ही हम वास्तविकता के क़रीब आते हैं। पहली मुलाकात में कई लेप लगे होते हैं, जो दूसरी में उतरने लगते हैं। तिसपर “शेखर एक जीवनी” की गिरहें एक बार में खुलती कहाँ हैं। जैसी आपकी मन की स्थिति, शेखर और शशि, वैसे ही महसूस होंगे। इस किताब को कितने पुरस्कारों से नवाज़ा गया है, मुझे नहीं मालूम। मुझे यह भी नहीं पता कि पुरस्कार देने वाले लोग सोचते कैसे हैं? किंतु इसे पढ़ते हुए लगा कि कुछ किताबें पुरस्कारों से परे होती हैं। जिन्हें भी साहित्य में रुचि है, उन्हें पता होगा कि पुरस्कार किताबों की नियति हो सकते हैं, उद्देश्य नहीं ।
कुछ किताबों को पढ़ते हुए लगता है, जैसे हम अपने ही मन के किसी अनछुए कोने को पहली बार स्पर्श कर रहे हों। कुछ किताबें मन में विचारों की ऐसी उथल पुथल मचाती हैं, कि भीड़ में भी आपको अकेला कर दें। बसों में, ट्रेन में कहीं भी चलते हुए आप उनके किरदारों में खोये रहते हो। सही और ग़लत के सारे काले – सफेद रंग ध्वस्त हो जाते हैं। फिर पता चलता है कि इन तमाम रंगों के बीच एक ग्रे शेड भी है। कुछ भी सही गलत नहीं, सब कुछ कहीं बीच में है। यही शेड जीवन की वास्तविकता के ज़्यादा क़रीब है।
मनुष्य स्वभावतः उत्सवधर्मी है। हम उत्सवों में अपने आप को खो देना चाहते हैं। उस भीड़ के हँसी-ठट्ठे में हम अपना वज़ूद तलाशते रहते हैं। किंतु इन तमाम उत्सवों के ठीक बीच में एक नीरव एकाकीपन है। आपका अपना नितांत अकेलापन, जो सिर्फ आपका है। कोई भीड़ वहां तक नहीं पहुँच पाती। कुछ किताबें आपके उसी एकाकीपन का दर्पण होती हैं। एक ऐसा दर्पण जिसमे सिर्फ चेहरा ही नहीं बल्कि आत्मा भी दिखे।
और फिर आती हैं, कुछ किताबें, अपने आप में उदासी समेटे हुए आती हैं। जैसे किसी पहाड़ की ढलान से गुज़रती एक उदास शाम । लोग उदासी से दूर भागते हैं। किंतु जिस पाठक ने जीवन के कई उतार चढ़ाव देख लिए होते हैं, उन्हें पता होता है कि उदासी का अलग आकर्षण है । किसी अजनबी की उदास आँखें तभी तो सम्मोहन पैदा करती हैं। कुछ किताबों का सम्मोहन भी ठीक ऐसा ही होता है।
किताब में लिखे वाक्यों की अलग खुमारी है। पन्ने पलटते ध्यान ही न रहा कि चाय ठंडी हो रही है और कमरे का ताप बढ़ रहा है। सुबह सबेरे की मलयज हवाएं इतनी आहित्स बहती हैं जैसे बालों पर हाथ फेर रही हों। किरदारों के साथ जब एक सुधि पाठक स्मृति में यात्रा करने लगता है तो मौसम, भूख, प्यास का ध्यान कहाँ रह जाता है।
बुकमार्क पन्नों के बीच लगाकर मैं इत्मीनान से चाय पीना चाहता हूँ। चाय पीते हुए ख्याल आता है कि किताब में लिखी कितनी अच्छी पंक्तियां ज़ेहन के दरवाज़े से निकलकर विस्मृति के खाने में गुम होती जा रही हैं । मुझे हर बार कोफ़्त होती है कि मैंने हाईलाइट क्यों नहीं किया। हाईलाइटर उठाता हूँ। अब दुविधा होती है कि किस पंक्ति को करूँ और किसे छोड़ दूँ। जीवन दुविधा के बिना बोरिंग है। मानव मन दुविधा के नए बहाने खोजता रहता है।
अगर किसी किताब को, किसी पैराग्राफ को या किसी पंक्ति को पूरी मौजूदगी के साथ पढ़ा जाये जाए तो वहां फिर लौटने की अभिलाषा नहीं रहती। “गुनाहों का देवता” मैंने सिर्फ़ एक बार पढ़ी और किताब की पंक्तियाँ ज़ेहन में छप गईं। सुधा का निर्झर प्रेम, चन्दर की दलीलें और पम्मी की इच्छाएं, सब कुछ याद रहा मुझे।
इसलिए, हाईलाइटर का सहारा लेने से बेहतर तो यह होता कि पूरी तरह डूबकर पढ़ा जाए। पूरी तरह डूबकर कुछ भी करना किसी योगी के ध्यान की तरह मुश्किल है। जिसकी कोशिश भर की जा सकती है, हर बार सफल नहीं हुआ जा सकता। यह सोचकर चेहरे पर मुस्कान तैर आती है।
किताब में उस प्रकरण पर पहुंचा जहां शशि और शेखर की आखिरी बातचीत है। शेखर की गोद में शशि की मृत्यु का दृश्य पढ़कर किताब से विराम लेना मेरी मजबूरी हो गयी है । मैंने खिड़की से बाहर देखता हूँ। खिड़की दीवारों से घिरे मकान का मन हैं। सामने नदी में पानी का शांत बहाव है। यह नदी मुझे निरंतर बह रहे वक्त की याद दिलाती है । किताब के पीछे अज्ञेय की तस्वीर देखता हूँ। लगता है जैसे अज्ञेय ही शेखर हैं। भले पूरी तरह नहीं किंतु शेखर ने अज्ञेय की देह का नमक ज़रूर खाया होगा। अज्ञेय तस्वीर में बढ़ी सफेद दाढ़ी और एकाग्र आँखें लिए किसी निर्मोही संत की तरह दिखते हैं। काश! तस्वीरों की रील धुलते हुए इंसान का चेहरा ही नहीं बल्कि मन भी दिख जाता।
इन लेखकों ने किताबों के ज़रिए एक अलग सी दुनिया बना दी है। जिस दुनिया में हम रोज़ जी रहे हैं, उसके समानांतर, एक दूसरी दुनिया । किताबें एक माध्यम हैं जिनकी अंगुली पकड़कर, हम पाठक उस दूसरी दुनिया में टहलकर आते हैं। किताबें उस दुनिया का सुकून देती हैं, उस दुनिया की ज़द्दोज़हद देती हैं और आख़िर में कुछ सलाह देती हैं जो इस दुनिया में काम आ जाए । आखिर में इतना ही कि पढ़ा करो। पढ़ने से सोच का विस्तार होता है।
विदा
वीकेंड वाली चिठ्ठी