डिअर X,
कुछ दुख ऐसे होते हैं जो उम्र भर साथ चलते हैं। समय भी उन्हें पूरी तरह नहीं सोख पाता। “जो भी होता है, अच्छे के लिए होता है”—ये कहावत भी उन पर बेअसर हो जाती है। पहलगाम में हुए आतंकी हमले की खबर से मन बेहद व्यथित है। उस ईश्वर से विश्वास उठने लगता है जिसके लिए कहा गया था – ईश्वर सब भले के लिए करता है ” ।
हर दुःख का एक रूप होता है, और इस बार…नवविवाहित स्त्रियों का अचानक वैधव्य—एक गहरी टीस की तरह मन में उठता है। मन डर कर स्वार्थ का सहारा लेना चाहता है। सोचता है—”चलो, मेरे अपनों को तो कुछ नहीं हुआ।” फिर एक दृश्य आंखों के सामने कौंध जाता है—एक युवती अपने पति के शव के पास बैठी है, हाथों में चूड़ियाँ, आँखें ज़मीन की किसी शून्यता में खोई हुई। उसका शोक-विलाप मन को झकझोर देता है। मन की सारी चालाकियाँ वहीं समाप्त हो जाती हैं।
मैं जानता हूँ कि मेरा दुःख किसी की जान नहीं लौटा सकता। पर दुःख पर मेरा वश भी नहीं।
मैं आमतौर पर किसी ट्रेंड के पीछे नहीं भागता। ना चंद्रयान की लैंडिंग पर कविता लिखता हूँ, ना स्वयं को घिब्ली बनाता हूँ और ना हर नई घटना पर टिप्पणी करता हूँ। मैं जल्दी कोई राय नहीं बना पाता, क्योंकि मैं हर बात के सफ़ेद और काले के बीच का “ग्रे” देखना चाहता हूँ। फिर भी, कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं, जो बार-बार भीतर के किसी तार को छेड़ जाती हैं। कितना भी ध्यान हटाऊँ, कोई न कोई भाव फिर से जाग उठता है।
मैंने पहलगाम की इस घटना पर बहुत कुछ पढ़ा, देखा, सुना। हर व्यक्ति का अपना सच है, और मैं सभी का पक्ष समझने की कोशिश करता हूँ। “आंख के बदले आंख”—ये विचार तुरंत राहत देते ज़रूर हैं, पर समाधान तब ही मिलेगा जब हम जड़ तक जाने का धैर्य रखेंगे।
जड़ तक जाते हुए एक गहरी आह निकलती है— हाय ज़िंदगी! तू इतनी जटिल क्यों है? ईश्वर ने जिस जीवन में इतना प्रेम देकर भेजा था, हम वहाँ भी आतंकवाद खोज लाए । समझने को किताबें और प्रेम को गुलाब दिया था, हमने बन्दूक का निर्माण कर दिया।
जब समस्या जटिल हो, तो उसका हल भी साधारण नहीं हो सकता। लेकिन मीडिया को रोज़ नई खबरें चाहिए। AI झूठ को और सुंदर बना देता है। सत्य जटिल और उबाऊ है, इसलिए लोग उससे दूर भागते हैं। मैं सोशल मीडिया पर उन तस्वीरों और कविताओं को देखता हूँ, उन पर उठे क्रोध, बहसें और पक्ष-विपक्ष के विचारों को सुनता हूँ। मैं जानता हूँ कि लोग अपने गुस्से, अपने दुःख को आवाज़ दे रहे हैं।
सरकारें तय करेंगी क्या करना है, लोग अपने हिसाब से प्रतिक्रिया देंगे—ये उनका हक़ है।
लेकिन मैं…मैं तुमसे सिर्फ़ अपने मन की व्यथा साझा करना चाहता हूँ, कोई निर्णय नहीं देना चाहता।
हमें प्रेम करने को कितना सुंदर जीवन मिला था, लेकिन हमने हर बात में खुद को बेहतर सिद्ध करने की होड़ बना ली। हम धर्म, भाषा, जाति, रंग और जिस भी तरीके से संभव हुआ, बाँट दिए गए। हर किसी ने अपने-अपने मठ बना लिए। कुछ मठाधीश बन गए, कुछ अनुयायी, और कुछ लोग समझ ही नहीं पाए कि उन्हें किस मठ में जाना है। हम इतना आगे बढ़ गए कि अब अपने को “श्रेष्ठ”साबित करने के लिए दूसरों को मिटा देना भी मंज़ूर हो गया ।
पर क्या जीवन की शुरुआत हमने कसी मठ से किया था। एक ऐसा जीवन, जहाँ किसी बूढ़े व्यक्ति को देखकर बस यूँ ही मुस्कुराते हैं। जंगल में किसी अनजान फूल को देखकर मन खिल जाता है। किसी गर्भवती स्त्री को देखकर हम बस में अपनी सीट दे देते हैं। किसी का सामान गिरा देख, बिना कहे उसे उठा लेते हैं। इन बातों को हमें किसी ने सिखाया नहीं, ये हमारे भीतर पहले से थीं—क्योंकि हम पहले इंसान हैं , फिर बांटे गए । जानवर हमसे ज्यादा मज़बूत,तेज़, चालाक भले हो सकते हैं , किन्तु हमने मिल-बाँटकर काम करने का रास्ता चुना था। वहीं हम जानवरों से अलग हुए, बेहतर हुए । दुख होता है उन लोगों की सोच पर जिनमें अब भी पशुता, मानवता से भारी है।
मुझे पूरा विश्वास है… देर-सबेर हम समझेंगे कि इस विकास क्रम में हमें बेहतर इंसान बनना था, फिर से पशुता की ओर नहीं बढ़ना था । बस दुख इतना है कि इस “देर-सबेर” की कुछ लोगों को कीमत चुकानी पड़ती है । आज एक नव विवाहिता शून्य को निहार रही है कल कोई और निहार रहा होगा। ईश्वर से प्रार्थना है कि उम्मीद का सबेरा जल्द आए। ईश्वर हमारे लिए नहीं तो अपने लिए करें ताकि हमें उसके होने पर विश्वास बना रहे।
विदा, वीकेंड वाली कविता