डिअर X,
मैं जिस शहर बनारस से हूँ, उसे मोक्ष की नगरी कहते हैं। मैंने यहाँ हर गली मोहल्ले में कचौड़ियां, जलेबियाँ बँटते देखा है, किन्तु मोक्ष बँटते कहीं नहीं देखा। यह जरूर सुना कि मोक्ष का रास्ता मृत्यु से होकर गुज़रता है। कभी बनारस जाना तो गंगा किनारे “मणिकर्णिका” घाट ज़रूर जाना। “मणिकर्णिका” मतलब – कान की मणि, जो माँ पार्वती के कान से गिर गए थे। कहते हैं , यह स्थान हिंदू धर्म में मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है, इसलिए यहाँ अंतिम संस्कार का विशेष महत्व है। मान्यता है कि यहां भगवान शिव स्वयं मरे हुए व्यक्ति के कान में राम नाम का जाप करते हैं।
“मणिकर्णिका” घाट पर कई चिताओं को जलते हुए देखकर, निस्संदेह तुम्हारे भीतर बहुत कुछ बुझता हुआ महसूस होगा । शरीर की हड्डियाँ, माँस, त्वचा – एक-एक कर सब राख होंगी । और उस धुएँ के बीच, तुम्हारी आँखें देख रही होंगी कि सिर्फ साँसों के न रहने भर से शरीर कितना महत्वहीन हो जाता है ।
मैंने जब भी देखा, सोचता रहा – क्या इस अग्नि में केवल शरीर जलता है? या साथ में जल जाती हैं वे इच्छाएँ, जिन्हें जीवन भर हमने ज़िंदा रखा था? वे सपने, जिन्हें पूरा न कर पाने का मलाल था? वे अपराधबोध जिन्हे मन में गाँठ की तरह बाँध रखी थी। वे छोटे-छोटे झगड़े, रिश्तों की गांठें, अहम का बोझ, सब आँखों के सामने जलकर धुआँ बन जाते हैं ।
चिताओं को ध्यान से देखोगे तो स्वाभाविक है चिता के कोनों से झांकते हुए पाँव दिखें… आज अग्नि को समर्पित यही पाँव, जिन्होंने न जाने कितने जंगल छान मारे होंगे । लकड़ियों पर रखे हाँथ दिखें। वही कर्मठ हाथ, जिनमें किसी ने बचपन में उँगली थामी होगी, कभी किसी के लिए खाना बनाया होगा, कभी किसी प्रेमी को छुआ होगा, आज बस कर्महीन निर्द्वँदता से जल रहे हैं।
एक चमकती, सुंदर, सुघड़ देह – जो कभी जीवन की भागदौड़ में, ऑफिस, बाज़ार, परिवार और दुनिया को संभालती रही – आज उस आग में सिर्फ़ कोयला बनती जा रही है। और कोयले के साथ-साथ जलती जा रही हैं वो चिंताएँ, जिन्हें उसने ज़िंदगी का हिस्सा मान लिया था। वे सुख, जिनके पीछे भागते रहे – आज राख के ढेर में बदलते दिखे।
लाज़मी है कि एक सवाल बार बार मन में गूंजता रहेगा । मैंने बाज़ दफा यह सवाल टालना चाहा, फिर भी सामने आ खड़ा हुआ। क्या जीवन इतना सा ही है? और हम जिस जीवन को इतना महत्त्व देते रहे, उसके पास हमारे लिए इतनी ही जगह है? आज जो राख वहाँ बची रह गई है, क्या वही मेरी पहचान है? या वो जो मैंने जिया, सहा, महसूस किया – वो कुछ और था, कुछ ज़्यादा था?
यह चिट्ठी लिखते हुए मुंबई के मरीन ड्राइव में समंदर की तरह मुंह किये एक शिला पर बैठा हूँ। सामने विशाल समंदर की उफान मारती लहरें, मन में बार बार वैराग्य का भाव ला रही हैं।। मैं पीठ समंदर की ओर कर लेता हूँ। सड़क पर बसें हैं, बसों में भरे हुए लोग हैं। वैराग्य से ठीक विपरीत पूरी तरह से इस दुनिया में डूबे हुए लोग हैं । कंधे पर जिम्मेदारी, आँखों में सपने। “मणिकर्णिका ” की चिता के दृश्य की कल्पना से कोसों दूर, उन आँखों में रोज की जद्दोजहद है।
मन में खयाल आता है – क्या वैराग्य को समझने के लिए मरना ज़रूरी है? या हम ज़िंदा रहते हुए, थोड़ा हल्का हो सकते हैं? थोड़ी इच्छाओं से मुंह मोड़ लें, थोड़ी चिंताओं को झटक दें, थोड़ा और प्रेम कर लें, थोड़ा स्वयं को सुन लें? क्योंकि अच्छा बुरा जो भी जीवन जी रहे हैं, अंत में, सब कुछ कोयला ही होना है। मैं शहर की तरफ पीठ और समंदर की तरफ मुंह करके बैठ जाता हूँ ।
विदा,
वीकेंड वाली चिट्ठी