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20.07.2025

डियर X,

इंटरनेट रहित एक छोटे से भारतीय गाँव की नीरस साँझ। बस मोबाइल न होने भर से, समझ नहीं आता कि एक उसी छोटे दिन के गुल्लक से समय के कितने सिक्के निकल आए हैं। इतना समय जिसकी आदत नहीं। गर्दन उठाकर चारों तरफ़ देखने का समय। स्वयं से वार्तालाप का समय। गुज़र रहे क्षणों को पूरी एकाग्रता से महसूस करने का समय। इतना समय मानो 24 घंटे के दिन 34 के हो गए हों।

मैं बाहर निकल आया हूँ। दूर तक फैले हरे खेत हैं। बारिश के पहले की उमस है। खेतों के बीच कुछ दूरी पर खेलते हुए बच्चे हैं। डूबते सूरज की लाली, एक भैंस की पीठ पर चढ़कर झाँक रही है। भैंस घास चर रही है और चरवाहा कोई लोकगीत गा रहा है। गिने-चुने लोग हैं और किसी को कोई जल्दबाज़ी नहीं है। कोई टारगेट नहीं अचीव करना, कोई टाइमलाइन नहीं मीट करना है।

खेतों के बीच मेड़ पर खड़े होकर चारों तरफ़ देखते हुए, विश्वास नहीं होता कि मैं वर्षों तक यहीं का था और अब यहीं अजनबी हूँ। मैंने इस नीरस धीमेपन को अपने भीतर उतर जाने दिया। पल-दर-पल सारा वातावरण मुझमें छन-छन कर उतरता रहा। खेत, बच्चे, भैंस, चरवाहा, पास का मंदिर, पीपल का पेड़ और डूबता सूरज।
सहसा, एक उद्दात क्षण, मन ने स्वयं से सवाल किया – क्या असल जीवन इतना ही धीमा, सरल और निरर्थक है? मैंने तो कल्पना भी न की थी। जिस जीवन को मैं जी रहा हूँ, वह तो बिल्कुल भी ऐसा नहीं।

हमारा जीवन तो इस नीरस एकांतिक धीमी रफ़्तार से गुज़र रही साँझ के ठीक उलट है। हमारे जीवन में रफ़्तार है। काम का बोझ है। रोज़ सुबह से शाम ऑफिस जाना ताकि नौकरी चलती रहे। दैहिक मशक्कत करना ताकि शरीर स्वस्थ बना रहे। वीकेंड के सुकूनदेह दिनों की प्रतीक्षा करना ताकि परिवार के साथ समय बिताया जा सके। सारा समय एक खांचे में फिट है। हर खांचे में समय का दबाव है और न पूरा होने पर कुछ छूट जाने का भय है। इस सारी आपाधापी में भला कहाँ इतना वक्त है कि कभी ऊबा जाए या फिर स्थिर चित्त से किसी भी भावना को डूबकर महसूस किया जाए।

इसी क्षण एक और ख्याल आया कि अगर मैं कुछ दिनों के लिए अदृश्य हो गया तो इस दुनिया को क्या फ़र्क़ पड़ेगा? मेरी लंबी अनुपस्थिति से इस दुनिया में भला किसको मेरी याद रह-रह कर आएगी। प्रियजन कब तक प्रतीक्षा करेंगे। थक-हारकर कहीं और मोह लगायेंगे, मेरे नाम की तख्तियाँ उखाड़ी जाएँगी और एक-एक कर निशान मिटते जाएँगे।

अपने अदृश्य होने के ख्याल को थोड़ी देर तक अपने भीतर उतर जाने देता हूँ। मैं मान लेता हूँ कि सारे प्रियजन मुझे या तो भूल चुके हैं या जो दो-चार बचे हैं वे भूल रहे हैं। मेरी अब किसी को ज़रूरत नहीं। इस कल्पना में भी मुझे किसी से कोई शिकायत का भाव नहीं आता। मैं जानता हूँ कि धरती किसी के लिए नहीं रुकी। जिन्होंने लंबे समय तक मेरी यादों का सिरा पकड़े रखा, सजल आँखों से उनके प्रति कृतज्ञता छलक उठती है। बस एक टीस मन में उठती है कि उन ढेर सारे कामों पर जो मैं आधे मन से करता रहा, उन सारे रिश्तों पर जिन्हें मैं बेमन ढोता रहा, कितना समय गँवाया उन पर। फिर याद आते हैं वे सारे लोग जिन्हें और वक्त देना चाहिए था। वे सारे काम जिन्हें और डूबकर करना चाहिए था। पर ऐसा हो न सका। मन की खिन्नता से शाम और उदास हो चली है।

अचानक पानी की एक बूँद चेहरे पर गिरती है और मैं वर्तमान में लौट आता हूँ। बच्चे खेल रोककर घर की तरफ़ दौड़ रहे हैं। चरवाहा भैंस हाँक रहा है। उसे भैंस के चारे से ज़्यादा अपने भीगने का डर है। मैं वीरान खेत के बीचोंबीच हल्की बारिश में भीग रहा हूँ। दूर सिवान से झींगुर की आवाज़ आने लगी है। मैं चलकर पास के छोटे से मंदिर की छाँव में आकर बैठ जाता हूँ। मुलझुलाती दिए की रोशनी में मुझे बारिश थमने की प्रतीक्षा करनी है।

प्रतीक्षा करते ध्यान आता है कि मुझे फिर सिंगापुर लौटना होगा। एक विकसित देश जहाँ मुझको चमक, भीड़, रफ़्तार, अनुशासन, टारगेट, टाइमलाइन—इन सब में स्वयं को डुबोना है। डुबोना भी चाहिए ताकि मन फिर से न सोचे कि मैं अदृश्य हो गया तो कितनों को फ़र्क़ पड़ेगा। हमेशा दिखते रहना चाहिए ताकि मन इस खुशफ़हमी में रह सके कि हम ज़रूरी हैं। जीवन में माया ज़रूरी है ताकि मन लगा रहे।

बारिश थम गई है। शाम गहरी है। बिजली न होने से और भी गहरी। मिट्टी की सड़क से एक अलग खुशबू है। मैं सुनसान सड़क पर घर की ओर लौटता हूँ। तुम कभी ऐसी ही किसी उदास शाम बैठकर सोचना तो समझ आएगा कि भीतर जो कुछ सदियों से उफान मार रहा है, उसे ६०–७० साल भर की उम्र के कोष्ठक में बंद करना मुश्किल होता है ।

जयशंकर प्रसाद की पंक्तियाँ बरबस याद आ रही हैं:

छोटे से जीवन की कैसे,
बड़ी कथाएँ आज कहूँ?
क्या यह अच्‍छा नहीं,
कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे,
मेरी भोली आत्मकथा?
अभी समय भी नहीं,
थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।

विदा,
वीकेंड वाली चिट्ठी

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