डियर X,
इस साल आने वाले 16 अगस्त को कृष्ण जन्माष्टमी है। कृष्ण, सनातन परंपरा में राम के अलावा दूसरे बड़े रोल मॉडल। सनातन के ब्रांड एम्बेसडर, राम और कृष्ण के बारे में कितना सुना है — बचपन में माँ की कहानियों में, बड़े हुए तो कुछ किताबों में और कुछ टीवी में। मैं जितना समझ पाया, यही जाना कि इन दोनों के स्वभाव में जितना अंतर दिखा, उद्देश्य में उतनी ही समानता।
मैं खुद भारत के जिस उत्तरी क्षेत्र से आता हूँ, वहाँ बचपन से ही रामलीला का मंचन होता रहा है। उसका असर हमारे बालमन पर कुछ इस कदर है कि रामलीला के उन नौ दिनों में राम और लक्ष्मण सचमुच के भगवान लगते थे, और रावण से सचमुच नफरत हो जाया करती थी। गाँव के छोटे से मंच की ओर ज़मीन पर बैठकर रामलीला देखना, पेट्रोमैक्स का धुंधला उजाला, लिपे-पुते किरदारों के चेहरे — स्मृतियों के तल में इतना कुछ है कि डूबकर निकालने जाऊँ, तो एक चिट्ठी भर जाए।
खैर, आज बात कृष्ण की। सिंधी समाज, जिनके प्रिय झूलेलाल कृष्ण माने जाते हैं, सिंगापुर में हर साल कृष्ण जन्माष्टमी पर कार्यक्रम करता है। इसी सिलसिले में जब से मैं सिंगापुर आया हूँ, मुझे कृष्ण पर एक ड्रामा लिखने का सौभाग्य मिला है। सौभाग्य इसलिए भी कि इससे साल दर साल मुझे कृष्ण के जीवन को थोड़ा और समझने का मौका मिला।
राम का जीवन जितनी सीधी, सपाट, सरल रेखा है — कृष्ण का जीवन उतना ही वक्रीय। राम केवल मर्यादा पुरुषोत्तम थे, किंतु कृष्ण में कान्हा, माधव से लेकर द्वारिकाधीश तक का विशाल विस्तार है। चाहे माँ हो या प्रेम या विवाह या दुश्मन — कृष्ण के पास बहुतेरे हैं। और आख़िर में तो एक पूरा का पूरा महाभारत है, जिसमें वे स्वयं लीड रोल में भी नहीं, केवल सूत्रधार हैं।
अब हर साल कृष्ण की कोई नई कहानी लिखते हुए, मुझे कई बार लगा कि मेरे मन में उनकी छवि अब तक केवल एक मसखरी भरे जादूगर ईश्वर की सी थी। उनके दुखों, उनके अंतर्द्वंद्वों और उनकी परेशानियों पर हमने कभी ज़्यादा चर्चा ही नहीं की।
राम शायद मुझे इसलिए ज़्यादा क़रीब लगे हों क्योंकि वे मानवीय लगते हैं। कृष्ण की कहानियों में तो लगता ही नहीं कि उन्होंने राम की तरह कुछ खोया हो, फूट-फूटकर रोए हों — जबकि उनके दुख कत्तई कम नहीं थे।
इन कहानियों को लिखते हुए मैंने उनके चरित्र के एक पैटर्न को देखा कि कृष्ण ने सुखों को ग्लोरिफ़ाई किया और दुःखों पर पर्दा डाल दिया।
यशोदा के ऐसे कान्हा बन गए कि लोग जन्मदायिनी देवकी के छूटने का दर्द भूल गए। माखन चुराते हुए इतने भोले लगे कि पूतना और कालिया जैसे बचपन के संघर्ष छुप गए। बड़े हुए तो कंस की भेजी परेशानियों से ज़्यादा राधा का प्रेम बड़ा दिखाया गया। कंस का संहार उतना ग्लोरिफ़ाई नहीं हुआ, जितना गोकुल का छूटना हुआ। और जब राधा छूटीं तो उनके विरह को रुक्मिणी और सत्यभामा जैसी कहानियों से ढक दिया गया। अमूमन राजपाट मिलने पर कहानियाँ एक हैप्पी एंडिंग का रूप ले लेती हैं, पर यहाँ तो कृष्ण ने एंडिंग भी ग्लोरिफ़ाई नहीं होने दी। एक ऐसा महाभारत रच दिया, जहाँ वे खुद मुख्य पात्र भी नहीं थे — सिर्फ उस पूरे महासंग्राम के सारथी बनकर रहे। और तो और, यहाँ वंशी की धुन इतनी मधुर बजाई कि सुदर्शन चक्र वाला रूप पीछे रह गया।
कहने का लब्बोलुआब — गलती मेरी थी, जो मैं राम के चश्मे से कृष्ण को समझना चाह रहा था। राम हमेशा एक लीक पर थे, और कृष्ण हमेशा लीक से हटकर।
इस बार मैं महाभारत की एक कहानी मंच पर दिखाने का प्रयास कर रहा हूँ। मेरे पास शब्द हैं, किंतु ड्रामा एक अलग विधा है, जिसमें सिर्फ़ शब्दों से काम नहीं चलता। उसमें किरदारों की ज़िम्मेदारियाँ होती हैं, उसमें सेट्स होते हैं, लाइटिंग होती है, परिधान होते हैं, संवाद होते हैं। इस बात का भय होता है कि यदि लिखा हुआ, लिखे जैसा न दिख पाया तो क्या?
फिर कृष्ण की तरह मैं भी इसका पॉज़िटिव साइड देखता हूँ। मुझे जो सबसे प्रिय है — ड्रामा लिखने में — उसी पर फोकस करता हूँ।
एक सामान्य आदमी कुछ देर के लिए कृष्ण या अर्जुन बन जाता है। उसकी भाव-भंगिमाएं दर्शाता है, संवाद बोलते हुए उसमें डूब जाता है — भले ही अगले दिन मुँह धोकर फिर से ऑफिस या किचन की दिनचर्या में लग जाए। इंसान का यह परिवर्तन मुझे खूब आकर्षित करता है। सारी मेहनत मैं इसी अनुभव के लिए करता हूँ।
स्टेज मुझे हमेशा प्रिय रहा है — क्यों, यह मुझे नहीं पता। शायद बचपन के गाँव की रामलीला के छोटे से स्टेज पर खड़ा होना, पेट्रोमैक्स की रोशनी में मंच देखना… और फिर सिंगापुर का LED लाइट वाला ऑडिटोरियम — मंच हर जगह एक-सा लगा। थोड़ी देर की एक जादुई दुनिया जैसी — और उस पर खड़े होकर बोलना, किसी ध्यान (मेडिटेशन) से कम नहीं ।
विदा,
वीकेंड वाली चिट्ठी