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09.08.2025

डियर X,

पिछले दिनों मैं कई यात्राओं में उलझा रहा। बड़े दिनों बाद सिंगापुर लौटा हूँ। वीकेंड पर स्विमिंग पूल के बगल में बैठकर चल रहे जीवन को महसूस कर रहा हूँ। शरीर पर सुबह की धूप पड़ रही है। मस्तिष्क में आलस है, देह में यात्राओं की गुनगुनी थकान। पर उससे भी कहीं अधिक दिल पर यात्राओं का असर है। सोचने लगता हूँ—यात्राएं हम पर कितना गहरा प्रभाव डालती हैं। लंबी यात्रा से लौट आने के बाद भी कई दिनों तक लगता है, मानो हम अब भी यात्रा में ही हैं।

यात्राएं हमें तरह-तरह के लोगों से मिलवाती हैं—खासतौर पर उन अजनबियों से, जिनसे बातें करते, उनके मन की सुनते, अपना मन उन्हें सुनाते, हमें बिल्कुल भी फ़िक्र नहीं होती। पता है कि न पहले कभी मिले थे, न आगे कभी मिलेंगे। दिल जीत लेने का कोई अतिरिक्त दबाव नहीं। सुख-दुःख अपने बटुए में लिए जब लोगों से मिलता हूँ, तब महसूस होता है कि इंसानी सुख-दुःख का कितना बड़ा आयाम है। और जब हम दूसरों के सुख-दुःख सुनते व समझते हैं, तो हमारे अपने सुख-दुःख हमें कितने बौने लगने लगते हैं।

यात्रा हमें अलग-अलग जगहों तक ले जाती है। हर जगह की अपनी गंध होती है—अपनी हवा, अपने स्वाद का पानी, अपना तापमान, अपने पेड़, पहाड़, पठार और मैदान। विश्वास नहीं होता कि इतना कुछ हमारे अनुभव से छूटा हुआ था। नहीं पता था कि लू की यह तपिश, हाड़ कंपा देने वाली सर्दियां, निर्झर सी बरसात और सफ़ेद बर्फ़ के ये गुच्छे भी होते हैं। कितने नयनाभिराम दृश्य आँखों ने कभी देखे तक न थे। लौटकर आने पर भी आँखें कई दिनों तक वही नज़ारे खोजती रहती हैं। एक टीस भी उठती है—कितना कुछ अब भी देखना बाकी है।

हर नयी जगह की अपनी सभ्यता और संस्कृति होती है। वहाँ के लोगों का बोलना-बतियाना, उनका खाना-पहनना, जीने का तरीका—इन सबमें उनकी संस्कृति झलकती है। उत्तराखंड के गाँव में फूलदेई का त्योहार या महाराष्ट्र के किसी ग्राम देवी की जत्रा—सिर्फ किताब पढ़कर महसूस नहीं किए जा सकते, वहाँ जाकर ही उन्हें जिया जा सकता है। जैसे, एक बंगाली चेहरे पर कुर्ता या एक तमिल के शरीर पर सफ़ेद वेष्टी—अपनी जगह पर ही सजीव लगते हैं। और किसी भी शहर में चोखी ढाणी खोल देने भर से राजस्थानी बाटी-चूरमे का असली स्वाद हूबहू नहीं आता।

हममें कई बातों का अहम होता है—हमारा रंग-रूप सबसे बेहतर, हमारी सभ्यता सबसे श्रेष्ठ, हमारी बोली सबसे मीठी। लेकिन यात्रा जैसे-जैसे अनुभव का विस्तार करती है, हम खुद कितने छोटे और विनम्र होते जाते हैं। छोटा होता जाता है हमारा अहम। स्थिर रहकर हम अपने ऊपर अहम की कैसी काई जमा लेते हैं। और अगर कुछ दिनों के लिए बाहर निकले भी, तो आत्मा पर वही काई चिपकी रहती है। नए लोग, नई सभ्यता, नया रहन-सहन—कुछ भी उस पर टिक नहीं पाता, सब फिसल जाता है। इसलिए यात्रा पर निकलने से पहले जितना साफ होकर चलें, उतना ही अच्छा।

यात्राएं अस्थायित्व का ऐसा बोध कराती हैं कि लौटकर स्थायी होने का मन नहीं करता। लगता है बस चलते रहें। चलते हुए तो लगता है कि हम स्थिर हैं और बाकी सब बदल रहा है—पर यह सच नहीं, बस हमारी बनाई हुई कल्पना है। असली सच यह है कि कुछ भी स्थिर नहीं—न हम, न जगहें। सब अपनी-अपनी रफ़्तार से बदल रहे हैं। इसलिए जब भी मौका मिले, यात्रा पर ज़रूर निकलें—बिना आत्मा पर अहम की काई जमाए। महसूस करें कि हम कितने छोटे और अस्थायी हैं। और देखेंगे, इस एहसास में मन कितना हल्का होगा, कितना बोझ उतर जाएगा।

विदा
वीकेंड वाली चिट्ठी

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