डियर X,
मैं जिस ज़मीन पर हूँ, इन दिनों यहाँ राष्ट्रीय दिवस मनाया जा रहा है। इसी दिन इस देश की स्थापना हुई थी। घरों के बाहर झण्डे टँगे हैं, हवा में कलाबाज़ी करते विमान देश की शक्ति का परिचय दे रहे हैं। लोगों के लाल परिधान, उत्सव के कार्यक्रम—सब मिलकर इस दिन को त्यौहार में बदल रहे हैं।
न चाहते हुए भी मन चला जाता है उस देश की ओर, जहाँ मैं पला-बढ़ा, जिसकी मिट्टी से मेरी देह की गंध बनी। इत्तफ़ाक़ से, इन दिनों वहाँ भी स्वतंत्रता दिवस का माहौल होगा—सरकार झंडे बाँट रही होगी, गली-मोहल्लों में देशभक्ति के गीत बज रहे होंगे, नृत्य-गीत-भाषणों से वातावरण गूँज रहा होगा।
एक उम्र थी जब ये नज़ारे मेरे भी रोंगटे खड़े कर देते थे। पर अब, ज़िंदगी का थोड़ा और हिस्सा देखने के बाद, उन यादों से सीना नहीं फूलता—बस चेहरे पर हल्की मुस्कान आ जाती है।
कभी यह सब एक ही धरती थी, जिसे मठाधीशों ने भौगोलिक रेखाएँ खींचकर बाँट दिया। कोई अपना देश नहीं चुनता—बस उसी ज़मीन पर पैदा हो जाता है जो पहले से बाँटी हुई है।
यह बँटवारा कितना अजीब है—स्कॉटलैंड में होटल के कमरे से दूर-दूर तक खेती की ज़मीन दिखती है, मगर किसान नज़र नहीं आते; और मेरे गाँव में किसान का पूरा परिवार छोटे-से खेत में खाने भर का अनाज जुटाने की जुगत में है।
जापान में बुज़ुर्गों की मौत के बाद बड़े-बड़े घर खाली पड़े हैं, वहीं मुंबई जैसे शहरों में लोग माचिस के डिब्बे जैसे कमरों में रहने को मजबूर हैं। अफ्रीका में बच्चे कचरे में से खाने का टुकड़ा ढूँढते हैं ताकि भूख से न मरें, और अमेरिका में बच्चे मोटापे से परेशान हैं। कहीं संसाधनों की बाढ़ है, तो कहीं सूखा।
वीज़ा-पासपोर्ट और न जाने कितने बंधन लगाकर इन रेखाओं को और गहरा कर दिया गया है। मुखिया चाहे किसी भी देश का हो, न गरीब होता है, न कमजोर। सारी जद्दोजहद निरीह जनता की है, जिसने न अपना देश चुना, न अपना नेता।
मैं जानता हूँ, बिना रेखाओं वाली धरती की कल्पना कोरी और यूटोपियन है—सब पर समान हक़ की सोच सच्चाई से परे है—मगर इतनी असमानता भी तो ठीक नहीं।
बचपन याद आता है—देशभक्ति के कितने गीत गाए, ओजस्वी भाषण दिए, लड्डू खाए, फेरियाँ लगाईं। वे सारे बच्चे याद आते हैं जो भीड़ में मेरी ही तरह गर्व से भर जाते थे। स्कूल-कॉलेज के बाद वे रोज़ी-रोटी में उलझ गए। मैं भी उलझा—इतना कि उसी देश से दूर आ गया जिसके लिए सालों वतनपरस्ती के गीत गाता रहा।
कभी सरकारों से पूछना चाहिए—स्वतंत्रता दिवस को अपनी पहचान बनाकर जो बच्चों की फ़ौज इतने जोश से भाग ले रही है, उनकी कितनी पीढ़ियों को टूटी सड़कों, अँधेरी रातों, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार का सामना करना पड़ेगा? हज़ारों योजनाओं के बावजूद गरीबी क्यों नहीं मिटती?
इंसान अकेले दम पर जानवरों से ताकतवर नहीं था। लेकिन संगठन बनाकर वह आगे निकला। रामायण में हर पात्र—जामवंत, हनुमान, नल-नील—ने अपनी प्रतिभा लगाकर लंका जीतने में योगदान दिया। तब से अब तक मानवता ने युग देखे, लेकिन हम आज भी सारी ऊर्जा किसी को हराने में लगा रहे हैं, जबकि यह ऊर्जा इस दिशा में लगनी चाहिए थी कि हर किसी के पास भोजन, मकान और इलाज की सुविधा हो।
अगर एक देश में नल घुमाते ही गर्म-ठंडा पानी आ जाता है, तो दूसरे देश में गर्भवती स्त्रियाँ मटकी लेकर मीलों क्यों चलती हैं? अगर कहीं 24 घंटे रंग-बिरंगी लाइटें जलती हैं, तो कहीं बच्चे स्ट्रीट लैंप के नीचे क्यों पढ़ते हैं? अगर एक देश में हर सुविधा वाली मेडिकल व्यवस्था है, तो कहीं झाड़-फूँक का सहारा क्यों लेना पड़ता है? इन ठेकेदारों और मुखियाओं से कोई पूछे—इतने सालों के बाद हम कहाँ पहुँचे?
मैं खुद से भी पूछता हूँ—जवाब नहीं मिलता। बस अपराधबोध आता है—जहाँ मैंने अपने हिस्से से ज़्यादा लिया, जहाँ दे सकता था पर दिया नहीं। मेरे पास जिनसे कम है, उनसे ईर्ष्या होती है; मगर जिनके पास मुझसे भी कम है, उनके लिए वैसी टीस क्यों नहीं उठती?
सबको बराबर मिले—यह सिर्फ़ कल्पना है। मैं उसकी चाह नहीं करता, पर क्या इतनी असमानता होनी चाहिए? कितने सवाल हैं, जो हम साथ लिए दुनिया से चले जाएँगे।
अब लगता है, वो समय अच्छा था—जब बिना ऐसे सवाल सोचे, हम मंचों से भाषण देते, जयहिंद के नारे लगाते, फेरियाँ करते और विश्वास होता कि अपनी मिट्टी को जीवन सौंप देंगे—क्योंकि वही हमारी पहचान है। अब वह सब पीछे छूट गया है। जहाँ मैं था, वह सिर्फ़ याद है; जहाँ मैं हूँ, वहाँ लोग मुझे अपना क्यों मानेंगे—मैं न उनकी तरह दिखता हूँ, न उनकी भाषा जानता हूँ, न उनके लिए गीत गाए।
शिकायत तो केवल उन सरकारों से है—जो अपने नागरिकों को इतना भी न दे पाईं कि उन्हें अपनी मिट्टी न छोड़नी पड़े।
यह पत्र लिखते हुए जिस जगह बैठा हूँ, वहां से पास के घास के मैदान में अपने काम में लीन एक सफाईकर्मी दिखता है। बरबस अज्ञेय की पंक्तियाँ याद आती हैं:
जो पुल बनाएँगे
वे अनिवार्यत: पीछे रह जाएँगे।
सेनाएँ हो जाएँगी पार
मारे जाएँगे रावण, जयी होंगे राम,
निर्माता रहे
इतिहास में बंदर कहलाएँगे।
विदा,
वीकेंड वाली कविता