वीकेंड
तलाशता रहता है मन,
उन्मुक्त मानसिक अवकाश,
जैसे देखती हैं किसान की आँखें,
इस मेड़ से उस नहर तक फैले खेत,
मैं भी ढूँढता हूँ,
दूर तलक फैली आलसी वक्त की मिट्टी,
जिसमे बो पाऊं सृजन के कुछ बीज,
छत पर लेटे देख पाऊँ अनंत आकाश,
तोड़ पाऊं कल्पनाओं के अनगिनत तारे,
फ़ैलते शहरों ने जैसे गाँव लील लिये,
व्यग्रता और आपाधापी ने,
हर लिया है इंसान का सारा समय,
वक्त की तंग सुरंग में चलते,
सूचनाओं की काई पर पैर फिसलते रहे,
जैसे स्लीपर बर्थ पर बैठा यात्री ,
देखता है स्टेशन पर उमड़ी भीड़ को,
मैं भी टिककर बैठने के लिए,
खोजता रहा निश्चिंत समय का कोना,
और फिर हफ़्ते भर बाद,
दिखती है वीकेंड की स्फटिक शिला,
और सामने वक्त का नीला जलाशय,
पानी में पैर डाले सारी व्यग्रताएं डुबो देता हूँ,
मैं सोचता हूँ,
नसीब में इतना तो होना ही चाहिए,
शनिवार की भारहीन रात,
रविवार की निश्चिन्त सुबह,
पर सबकी क़िस्मत में नहीं होती,
एक स्फटिक शिला और नीला जलाशय।