डियर X,
आज की सुबह में धूप और हवा का अनूठा संगम है। विरोधाभासी चीज़ें जब एक साथ आती हैं तो आनंद का स्वाद ही कुछ और होता है—खट्टे-मीठे-नमकीन की तरह। आज लगता है जैसे प्रकृति अपने आँचल में रखा सब कुछ एक साथ लुटा देने को मेहरबान हो। हवाएँ इतनी तेज़ हैं कि खिड़की खोलते ही कागज़ के पन्ने उड़ जाते हैं। कई बार लगता है कि प्रकृति हमसे कितने तरीक़ों से बात करना चाहती है—जैसे खिड़की की ओट से मेरे पन्नों को छेड़कर कह रही हो, “रुककर मेरी आवाज़ सुनो।”
पर हम? हम अपनी दुनिया में इतने आगे निकल चुके हैं कि इन साधारण संदेशों की आवाज़ कान के परदों को झंकृत तक नहीं करती। मैं खिड़की से देखता हूँ। सामने पेड़ के नीचे एक अधेड़ उम्र का आदमी बैठा है। एक छोटी-सी कुर्सी लगाकर धीरे-धीरे झाड़ियों से खरपतवार हटा रहा है ताकि बेलें खुलकर मुस्कुरा सकें। उसकी तल्लीनता मुझे मोहित करती है। सोचता हूँ—इतना साधारण-सा काम भी कोई इतनी लगन से कैसे कर सकता है?
मन में एक सवाल गूंजता है— क्या सचमुच सरल हो जाना इतना कठिन है? जीवन को जस का तस जीना, बिना हर परत खोलकर उसमें अर्थ तलाशने की कोशिश किए?
अनायास ही मैं अपने जीवन की तरफ लौटता हूँ। सिर्फ़ उसी जीवन का अनुभव है मेरे पास। याद आता है—इतने सालों में कितने क्षण गुज़रे हैं। हज़ारों छोटी-छोटी बातें, जीत-हार, उपलब्धियाँ और असफलताएँ। दिमाग़ “ज़ूम इन” करने लगता है—चींटी की कतार जैसी बारीक़ यादें उभर आती हैं। साल, महीने, दिन, पहर और हर क्षण—सबमें कितना कुछ रखा है। कितनी उपलब्धियाँ, कितने हार-जीत। इन सबसे गुजरते भावनाओं की इतनी तरंग उठती हैं कि दिमाग थक जाता है।
फिर “ज़ूम आउट” करता हूँ, इस क़दर कि 30-40 साल एक ही लेंस में सिमटकर सामने आ जाते हैं। और तब लगता है—जीवन तो बस इतना ही था: साँस लेना, खाना, सोना। सच कहूँ तो एकबारगी इस सोच से घबराहट होती है। क्या जीवन इतना साधारण है? पर सच ही तो है। क्या हम रोज़-रोज़ यही नहीं कर रहे? खाते हैं, सोते हैं, साँस लेते हैं। और इन्हीं साधारण क्रियाओं के चारों ओर हमने रिश्ते, समाज, दफ़्तर, रसोई, घर, परिवार, व्यापार और न जाने क्या-क्या बुन लिया। यही नहीं रुके—फिर उससे भी आगे बढ़कर ईर्ष्या, चिंता, प्रेम, घबराहट, दुख, खुशी, डाह और दिखावे का मकड़जाल रच दिया। और इस जटिलता में ऐसे उलझे कि भूल गए हम तो बस साँस लेने आए थे।
यह ख़्याल हमें कितना साधारण बना देता है। लगता है जैसे धरती पर आए जीव-जंतुओं के महासागर की केवल एक बूँद हैं हम। पर यही साधारणपन मन के भीतर एक गहरी स्वतंत्रता भी देता है—सारी अपेक्षाओं से, सारे बोझ से हलके। सब बेमानी लगने लगता है—चिंताएँ, दंभ, पीड़ाएँ।
सच ही तो है। यह मकड़जाल बस साँसों तक सीमित है। साँस रुकते ही सब भस्म हो जाता है। 70-80 साल का जीवन कुछ घंटों में राख हो जाता है।
पेड़ के नीचे बैठा वही आदमी अब सफ़ाई पूरी कर चुका है। झाड़ियाँ चमक उठी हैं, बेलें मुस्कुरा रही हैं। उसे दूसरे पेड़ की ओर जाते देख मेरी अपनी कविता की पंक्तियाँ याद आ जाती हैं—
जीवन से सीखे दाँवपेंच भुलाकर,
आओ यार, सरल हो जाएँ,
लोगों का जग जीत न पाए,
अपनी नज़रों में सफल हो जाएँ।
विदा,
वीकेंड वाली चिट्ठी