
About the Book
प्रेमचंद
एक ख़्वाहिश है,
कि कभी जो तुम एक दोस्त बनकर मिलो,
तो कुल्हड़ में चाय लेकर,
तुम्हारे साथ सुबह का कुछ वक़्त गुज़ारूँ,
तुमसे बातें करते शायद देख पाऊँ,
तुम्हारी आँखों में छुपे वो सारे राज़,
जो लाख कोशिशों के बावजूद,
तुम्हारे अन्दाज़ में नहीं देख पाया,
ये तुम्हारा समाज….
मसलन, छोटे से गाँव का एक मेला,
जो बच्चों के लिए महज़ खिलौनों
और मिठाइयों की दुकान में होता है सिमटा,
उसी ईदगाह के मेले में, कैसे दिख जाता है तुम्हें,
वो नन्हा सा हामिद,
अपनी बूढ़ी दादी के लिए ख़रीदता, एक तीन आने का चिमटा… घूसखोर नौकरशाहों के समाज में, जहाँ हमें अंदाज़ा भी नहीं, कि कोई ईमानदार अफ़सर भी कहीं होगा, कैसे मिल जाता है तुम्हें वो एक बंशीधर, सेठ अलोपीदीन के पैसों के सामने चट्टान सा खड़ा, तुम्हारा वो नमक का दारोग़ा… एक समाज जहाँ… बदले की भावना का फ़ैशन हो, लोग बेधड़क रच लेते हों, “जैसे को तैसे” का षड़यंत्र, कैसे मिल जाता है तुम्हें वो बूढ़ा बेसहारा भगत, अपने इकलौते बेटे के हत्यारे के बेटे में, जो निःस्वार्थ फूँक देता है, जीवन का मंत्र… एक समाज जहाँ… माँ बच्चे की उँगली पकड़कर, सिखाती हो गिरना और संभलना, तुम्हें कैसे दिख जाती है वो बूढ़ी काकी, और उसका बचे-खुचे खाने में, पूड़ी-जलेबी के टुकड़े तलाशना… एक समाज जहाँ… ग़रीबी के क़िस्से आम से लगते हों, मन में क्यूँ चिपकी रह जाती है, सिर्फ़ तुम्हारी लिखी हर बात, कफ़न के पैसे से शराब पीते आज भी, नज़र आते हैं कहीं घीसू और माधव, तो किसी खेत में पड़ा कोई हलकू, ठंड में आज भी गुज़ार लेता है पूस की एक रात… जिस देश में उसका राजा सबको, सिर्फ़ हिंदू या मुसलमान दिखायी देता है, ना क़ायदे से कोई परीक्षा होती है, ना परीक्षकों में सुजान सिंह जैसा कोई, वफ़ादार दीवान दिखायी देता है, उसी देश में कैसे मिल जाते हैं तुम्हें, अलगू चौधरी और ज़ुम्मन मियाँ कैसे समझ लेते हो तुम, कि इंसान जब पंच बनता है, तो सिर्फ़ इंसान नहीं रह जाता, वो परमेश्वर बन जाता है, सिर्फ़ हिंदू या मुसलमान नहीं रह जाता… चाय की आख़िरी चुस्की से पहले, ये सब मुझे पूछना है तुमसे, और फिर जाने से पहले तुम्हें ग़ौर से देखना है, देखना चाहूँगा… बिना धनपत राय के धन के, बिना नवाब राय की नवाबी के, कैसी थी तुम्हारी तक़दीर, एक फटा हुआ जूता, और मटमैले कुर्ते में लिपटा, कैसा था तुम्हारा वो दुबला शरीर, जिसने महज़ छप्पन सालों में तैयार कर दी, कहानी, नाटक और उपन्यासों की, इतनी बड़ी जागीर… जब हास्य लिखा, तो हँसा दिया, जब दर्द लिखा, तो रुला दिया, सिर्फ़ एक फ़िल्म लिखी, सोज़े वतन, उस पर भी दंगा करा दिया, इतनी अलग विधाओं में, इतना कुछ कैसे लिख पाए, प्रेम और कल्पना में लिपटे साहित्य को, वास्तविकता की धूप में कैसे खींच लाए, और आख़िर में, छूना चाहूँगा एक बार तुम्हारी दवात में रखी, भावनाओं की वो जादुई स्याही, नमन है तुम्हें मुंशी प्रेमचंद्र, तुम्हीं हो सही मायने में, कलम के सिपाही… 2 निराला अपनी अटारी से उतरकर, इलाहाबाद की जलती सड़क पर, जो अपनी कविता में, एक पत्थर तोड़ती बाला का भी मान रख दे… जो मिले रास्ते में कोई पेट-पीठ करके एक, जो चल रहा हो कोई लकुटिया टेक, उसकी मुँहफटी पुरानी झोली में, जो अपना सब कुछ क़ुर्बान कर दे… उस दानवीर ने शोषितों का दर्द, सचमुच दिल में कहीं पाला होता है… होंगे क़लमकार कई हिंदी में, पर हर कोई कहाँ ‘निराला’ होता है। बसंत पंचमी को पैदा हुआ, जो माँ शारदे को यूँ नमन कर दे, याद रखे ज़माना उसका लिखा, “वर दे वीणा वादिनी वर दे” बचपन में माता गयी, खोया यौवन में पिता, पत्नी और बेटी की, जिन हाथों ने जलाई हो चिता, एक ही जीवन में जो इतने, दर्दों का अम्बार सहे, सारे अपने खोकर भी, कोई साहित्य साधना में लगा रहे, वो सचमुच हिम्मतवाला होता है… होंगे क़लमकार कई हिंदी में, पर हर कोई कहाँ ‘निराला’ होता है। बांग्ला पढ़ते गुज़रे हों, जिसके बचपन के छोर, पत्नी के मनुहार पर, जो आया हिंदी की ओर, उसने राम की शक्ति पूजा लिखी, लिखा तुलसीदास, सरोज स्मृति में रुला दिया, गाए बादल राग, उसी हिंदी के सम्मान पर, जो खड़े हुए सवाल, तो बिना किये राष्ट्रपिता की पदवी का ख्याल, जो गाँधी से भी लड़ जाये, वो सचमुच कोई मतवाला होता है… होंगे क़लमकार कई हिंदी में, पर हर कोई कहाँ ‘निराला’ होता है। छायावाद की कमनीय कल्पना, कौन ज़मीन पर ले आता, श्रृंगार, करुण, व्यंग और रोष, हर रस में कौन डुबो पाता, छंदों का बंधन तुमने तोड़ा, कर दी नवगीतों की शुरुआत, आलोचक जब ज़हर बने, तुम बन गए सुकरात, परम्पराएं तोड़ना जिस क्रांतिवीर के लिए, महज़ चावल और दाल का एक निवाला होता है, होंगे क़लमकार कई हिंदी में, पर हर कोई कहाँ ‘निराला’ होता है। कहीं खिलती हो जूही की कली, कहीं बेलों पर आया है नया पत्ता, इस कैपिटलिस्ट गुलाब पर, किसी कोने में हँसता है वो कुकुरमुत्ता, अनामिका और गीतिका, अर्चना आराधना, इस सुन्दर बगिया के पीछे, तुम जैसे माली की है साधना, मुश्किल होता है सीधा कहना, सफ़ेद को सफ़ेद और काले को काला, नमन है तुम्हें, हे महाप्राण, हे सूर्यकांत! हर रोज़ नहीं मिलता हिंदी को, तुम जैसा अक्खड़, अलमस्त ‘निराला’… हर रोज़ नहीं मिलता हिंदी को, तुम जैसा अक्खड़, अलमस्त ‘निराला’… 3 अज्ञेय कुशीनगर की धरती पर जन्मा, वो बुद्ध सा स्वच्छंद था, नाम भी रखा पिता ने, सत चित आनंद था, यूँ ही अकेले घूमता था, मौन रहकर सोचता था, संसार के हरेक वज़न को, अपनी तराज़ू से तौलता था, बुद्ध सा ही शांत था मन, निर्मल था, श्रद्धेय था, साहित्य ने जने हैं कई लाल, पर वो इकलौता अज्ञेय था। क्रन्तिकारी चित्त जिसका, बम बनाना जानता था, हिरोशिमा विध्वंस वो, आंसू भी बहाना जानता था, जेल की उस कोठरी में, जो शेखर की जीवनी रच पाया, ध्यानलीन योगी की उस पर, होगी कोई सात्विक छाया, शांति की तलाश में, वो क्रांतिकारी अजेय था, साहित्य ने जने हैं कई लाल, पर वो इकलौता अज्ञेय था। कभी पर्वतारोही या फोटोग्राफर, तो कभी संपादक या पत्रकार, कभी विश्वयात्री या प्लम्बर, तो कभी मोची, बढ़ई या चित्रकार, छायावाद के बिम्ब छोड़कर, वो अपने नए प्रतीक बनाता था, अपनी हरेक रचना में वो, सिर्फ़ अपने दिल का हाल सुनाता था, नूतन प्रयोगों से वो सिद्ध करता, साहित्य का हर कठिन प्रमेय था, साहित्य ने जने हैं कई लाल, पर वो इकलौता अज्ञेय था। कितनी नावों में कितनी बार, कभी आंगन के द्वार पार, चढ़ा गया वो साहित्य कोष में, कई बेशकीमती उपहार, जब भी कोई शेखर अपनी शशि को, दुनिया से विदा करेगा, जब भी कोई हारिल ओछा तिनका ले, पंखों से उड़ा करेगा, जब भी कोई प्रियम्बद राजमहल में, असाध्य वीणा साधेगा, हिंदी साहित्य को उसका लाल, अज्ञेय याद आएगा। 4 ऑप्शन हमेशा दो ऑप्शन रहते हैं, एक का साथ दिया, तो दूसरे को रहता है गिला, दोनों को गर वक्त दिया, तो ख़ुद के लिए कुछ ना मिला। क्लास की पिछली बेंच पर बैठ, खिड़की से बाहर देखते रहे, तो रिज़ल्ट में फ़र्स्ट आना रह गया, फिर आगे बैठकर जो टॉपर बने, तो बेंच पर कई ख़ूबसूरत स्केच बनाना रह गया। हॉस्टल जाते, माँ के दिए सामानों की पोटली सहेजने में, माँ को गले लगाना रह गया, टाइम से स्टेशन पहुँच ट्रेन में सीट तो ले ली, पर हड़बड़ाहट में पिता का पैर छूना रह गया। इश्क़ की नदी में हम अपनी मर्ज़ी से डूबे, और पीछे ये दुनिया रूठने लगी, जब सात फेरों की ज़िम्मेदारी क़ुबूल की, तो कलम से वो शायरियों की स्याही सूखने लगी। सुबह का वक़्त कपालभाति में गुज़ारा, तो चाय पर पत्नी के विचार छूट गए, कॉर्नफ़्लेक्स और फ़्रूट प्लेट में रखे, तो आलू के परांठे और नींबू के अचार छूट गए। जो वीकेंड में परिवार के साथ डिनर किया, तो दोस्तों की बेफ़िक्र संगत में बहकना रह गया, जो उन कमीनों से मिलके लड़खड़ाते लौटा, तो घर आकर सच्चाई और ख़ुशी से चहकना रह गया। उस स्टार्ट-अप के काम में मज़े थे, पर पैसों की कमी हमेशा खलती रही, नौकरी बदलकर पैसे कमाए, पर रातों की नींद कहीं चलती बनी। परिवार को आगे बढ़ाने की ख़्वाहिश में, मैं दिन-रात काम में जुटता गया, बच्चे बड़े होकर आगे बढ़ गए, बालों की सफ़ेदी लिए मैं ख़ुद पीछे छूटता गया। इतनी बड़ी दुनिया और मेरे छोटे-छोटे हाथ, सबकुछ बटोरने के चक्कर में, कुछ रख ना पाया साथ… अब समझ आता है कि, सब कुछ हासिल कर लेने की चाह, नियति से बहुत बड़ी बेईमानी है, कुछ ना कुछ हमेशा छूट जाना ही, शायद इंसान होने की निशानी है… 5 सरल बन जाएँ जीवन से सीखे, दाँव-पेंच भुला के, थोड़ा सा निश्छल बन जाएँ, लोगों का जग जीत ना पाएं, अपनी नज़रों में सफल बन जाएँ, आओ यार, सरल बन जाएँ। कभी गुलाबी, कभी हो नीला, छूकर रंगों को, कर दें गीला, ख़ुद बेरंग बहें हमेशा, पानी जैसे तरल बन जाएँ, आओ यार, सरल बन जाएँ। हर मौसम के गा लें राग, सावन की कजरी, होली के फाग, पर ख़ुद का जब कोई संगीत टटोलें, मीठी सी वो ग़ज़ल बन जाएँ, आओ यार, सरल बन जाएँ। कभी ना कम हो, गंध से दूरी, दुनिया ढूँढे, मन कस्तूरी, अपने मन के हिरन के ख़ातिर, ख़ुद ही अब,जंगल बन जाएँ, आओ यार, सरल बन जाएँ। मुश्किलें वही पीढ़ी दर पीढ़ी, जीवन हर पल सांप और सीढ़ी, अधरों पर मुस्कान लिए, हर मुश्किल का हल बन जाएँ, आओ यार, सरल बन जाएँ। 6 मैं बुद्ध होना चाहता हूँ… एकाकी अवसादों के पल में जीवन से संवादों के पल में, मैं मोह के अनुराग पर, और मोक्ष के वैराग पर, भीड़ के इस भाव पर भी एकांत के उस अभाव पर भी, गंगाजल छिड़ककर एकबारगी, शुद्ध होना चाहता हूँ, जब ऊबता है मन मेरा, मैं बुद्ध होना चाहता हूँ… कुछ काम में कुछ अर्थ में, जीवन गुजरता व्यर्थ में, कभी स्वार्थ में शंकित रहा मैं, कभी परमार्थ में चिंतित रहा मैं, कहीं बौड़म, कहीं काबिल रहा, अब तक का जो भी मेरा हासिल रहा, उस पर ना अब गर्व होता है, ना क्रुद्ध होना चाहता हूँ, जब ऊबता है मन मेरा, मैं बुद्ध होना चाहता हूँ… मेरी राह पर अब कम पथिक हैं, और यात्रा भी ये कहाँ क्षणिक है, पर क्यों भीड़ का हिस्सा बनूँ मैं, क्यों सुना-सुनाया किस्सा बनूँ मैं, लोगों से बस सुने-सुनाये, मैंने भी थे कुछ नियम बनाये, उस हर नियम के आज-कल, मैं विरुद्ध होता जा रहा हूँ, उम्र की काई पर फिसलते, मैं बुद्ध होता जा रहा हूँ। 7 25 देश का लड़का मैं अपने देश का लड़का हूँ… दोस्तों के साथ बचपन में, सपनों के झालर बनाता हूँ, सपनों के पीछे देश छोड़, सात समुन्दर पार डॉलर कमाता हूँ, हालात कैसे भी हों, मैं अपनी काट ही लेता हूँ, चंद दोस्त बनाता हूँ, मैं दुःख दर्द बाँट ही लेता है, बचपन के दोस्त अब छेड़ते हैं, कि देशभक्ति के मामले में, मैं एकदम से कड़का हूँ … पर मेरा दिल जानता है कि आज भी, मैं अपने देश का लड़का हूँ… हर माहौल और हर देश में, मैं ख़ुद को घोल लेता हूँ, हिंदी में सोच-सोच कर, अंग्रेज़ी में कुछ बोल लेता हूँ, हर देश के झण्डे पर, इज़्ज़त से सर झुकाता हूँ, बाहर धुन कोई भी बजे, भीतर जन गण मन ही गुनगुनाता हूँ, मैं जानता हूँ कि मेरी हस्ती उसी से है, उस बरगद की शाख़ का मैं अदना सा तिनका हूँ, मैं अपने देश का लड़का हूँ … मैं साथ रहूँ ना रहूँ, वो मुल्क मेरी पहचान रहेगा, उसकी मुश्किलें मुझे परेशान करेंगी, उसकी तरक्की का मुझे गुमान रहेगा, बाहर से मैं पिज़्ज़ा भी हूँ, बर्गर भी हूँ, पर भीतर चावल और दाल की छौंक का तड़का हूँ… मैं अपने देश का लड़का हूँ… 26 बनारस इतिहास से भी पुराना एक दौर है बनारस, एक शहर का नाम भर नहीं, ज़िंदादिली से जीने का एक तौर है बनारस, योग-भोग, माया-मोक्ष जहाँ साथ बैठे, वो ठौर है बनारस… न भूत का पछतावा, ना भविष्य की चिंता, अपने महादेव सा अलमस्त है, अघोर है बनारस… गंगा में डूबते चाँद तारों की मज्लिस, सुबह की आहट का रूहानी सा मंज़र, सूरज के किरणों के घुलने की जुम्बिश, उनींदी आँखों को मलता अलसाता सा शहर, विश्वनाथ मंदिर के मंगला आरती की घंटी, ज्ञानवापी मस्जिद के सुबह की अजान, दशाश्वमेध और अस्सी की गंगा आरती, हरिश्चंद और मणिकर्णिका का महाशमशान, जिस अलौकिक छवि के लिए आँखें ख़ुद-ब-ख़ुद खुल जाए, है वो वजह बनारस… जहाँ कायनात भी भोर का इस्तकबाल करे, है वो जगह बनारस… किसी ने ऐसे ही तो नहीं लिखा होगा, कि शाम अवध की सुबह बनारस… फूली-फूली कचौड़ियों की गर्मी, गरमागरम जलेबी का शीरा, ठंडी-ठंडी मलइयो का मक्खन, कुल्हड़ में जैसे हो स्वाद का झीरा, भोजन से बनारसी का कहाँ हैं वास्ता, हर बख़त के लिए उसका एक अलग है नास्ता, गर नास्ता है वाक्य, तो पंक्चुएशन है पान, पान दरीबा के किमाम की ख़ुश्बू में लिपटा, एक बनारसी के दिल की धड़कन है पान, गुड़गुड़ाती आवाज़ में दीवारों पर गुलकारियों करता, पान का शौकीन है बनारसी, ठंडई और भांग के घूँट में मस्त गरियाता, रोज़मर्रा की मुश्किलों का तौहीन है बनारसी, हर स्वाद में ज़िंदगी के मज़े लेता, जितना मीठा है उतना नमकीन है बनारसी, शायद इसीलिए कहते है कि बनारस सिर्फ एक शहर नहीं, बल्कि एहसास है जो दिल में बसता है, वो बनारसी देश विदेश कहीं भी रहे, यह एहसास ताउम्र उसके साथ चलता है। जिसे जिस रूप में भाए, उसी में जंचता है बनारस, एक ही शहर के भीतर, कई चेहरे बदलता है बनारस, कभी मंदिरों, घण्टियों और वैरागियों की धुन में लीन है बनारस, तो कभी अज़ान की गंगा जमुनी तहज़ीब सा ज़हीन है बनारस, कभी गोदौलिया, दालमंडी, नयी सड़क की भीड़ में बिलकुल मशीन है बनारस, तो कभी बीएचयू और रविदास पार्क की खूबसरत शॉल ओढ़े हसीन है बनारस, कभी अपनी साड़ियों के जरी वाले बारीक काम सा महीन है बनारस, तो कभी पक्के महाल और तंग गलियों की पेचीदगी सा संगीन है बनारस, कभी धू-धू जलते अनवरत शमशान सा ग़मगीन है बनारस, तो कभी दुनियादारी से परे अपने महादेव के रंग में रंगीन है बनारस, बनारस एक दर्शन है जो एक बनारसी को याद दिलाता है, कि इस दुनिया की दौड़ में वो बहोत कुछ खोयेगा और पायेगा, पर एक दिन यही गंगा किनारे किसी घाट की चिता में जलकर, वो भी बाकियों की तरह… सिर्फ बनारस हो जाएगा। 27 गाँव के लड़के ये गाँव के लड़के, शहर, विदेश, कहीं भी चले जायें, इनके भीतर का गाँव नहीं मरता… बनियान में एकाध छेद, जूते की तली का थोड़ा सा उखड़ना, ब्राण्ड से पहले दाम देखकर, मॉल के बाहर की छोटी दुकानों से ख़रीदना। बंद करते फिरते हैं, ये घर के लाइट और पंखे, थोड़े शावर से भर लेते हैं, ये नहाने भर के बाल्टी और मग्गे। बीवी बच्चे झेंप जाते हैं इनकी आदतों से, पर इन्हें यह सब बिल्कुल अजीब नहीं लगता, पैसे कितने भी हों जेब में, इनके भीतर का गाँव नहीं मरता… ज़िंदगी इन्हें आगे ज़रूर बढ़ाती है, पर नए दोस्तों में, ये ख़ुद पीछे रह जाते हैं, कार का मॉडल या फिर हॉलीवुड की बातें, ये कभी ठीक से समझ ही नहीं पाते हैं, चुपके से इयरफोन पर, किशोर कुमार के वही पुराने गाने सुनते, एसी कार की बजाय, घंटों धूप में पैदल चलते, कभी इनका मन नहीं थकता, कितना भी ऐशो-आराम मिल जाए इन्हें, इनके भीतर का गाँव नहीं मरता… पार्टियों में औरतों से ये, अब भी शरमा कर मिलते हैं, कोई नाचने को कह दे, तो ये छुपते फिरते हैं, हर शाम किसी कोने में बैठ, घर फ़ोन लगाते हैं, माँ से उस छूटे खेत खलिहान की बातों पर, ख़ूब चहचहाते हैं, शायद इन बातों से मन पर, दिन भर चिपके शहर को छुड़ाते हैं, सालों गुज़र गए, पर उस गाँव की बातों से इनका जी नहीं भरता, होगा कुछ ख़ास इनके उस गाँव में, जो ताउम्र इनके भीतर का गाँव नहीं मरता… 28 30 हम भी कभी तुम्हारे जैसे होते थे बात बे बात, ये जो तुम फिटनेस के चैलेंज दिखाते हो, हमारे बालों में आयी सफेदी की रंगत गिनाते हो, तस्वीर देखी है स्कूल की हमारे, तब हम बिलकुल छुहारे जैसे होते थे, तोंद तो अब दिखने लगी है बेटा, हम भी कभी तुम्हारे जैसे होते थे। ये जो तुम बाइक पर जवानी का झंडा फहरा के चलते हो, आर्य महिला कॉलेज के सामने हैंडल थोड़ा लहरा के चलते हो, तुम्हारी दीपिका हमको भी दिखती है, कभी हम भी साइकिल हवा में उड़ाते थे, नुक्कड़ से तीसरे घर आ जाये तो घंटी घनघनाते थे, और जो खिड़की खुल जाए तो गद्दी से दो इंच उचक के चलाते थे, ये जो तुम रणबीर से चिकने बने फिरते हो, हम भी कभी शाहरुख़ की तरह करारे जैसे होते थे तुम्हारी दीपिका से कम नहीं थी हमारी काजोल, हम भी कभी तुम्हारे जैसे होते थे। ये जो तुम पूरा-पूरा दिन वीडियो गेम में घुस के बिताते हो, घंटों पीछे पड़ने पर थोड़ी देर के लिए घर से बाहर जाते हो, थोड़ा सा दौड़-भाग लिया तो लौटकर अपनी मेहनत के क़िस्से सुनाते हो, बेटा गेंदबाज़ी का एक्शन करते-करते तो हम बाज़ार तक चले जाते थे, चार आने की बाज़ी वाले क्रिकेट मैच पर पूरी जी जान लगाते थे, नाली की गेंद को तीन टिप्पा खिलाकर शुद्ध कर लेते थे, हार-जीत के फ़ैसले में ज़रूरत पड़ी तो युद्ध कर लेते थे, ये जो तुम विराट की तरह शोले उगलते हो न, हम भी कभी धोनी की तरह शरारे जैसे होते थे, तुमने दाढ़ी तो मैंने लम्बे बाल, फैशन अपना भी था, हम भी कभी तुम्हारे जैसे होते थे। बायजू के ऐप और ट्यूशन से पढ़ाई की किफ़ायत बताते हो, टीचर ने डांटा तो माँ से उनकी शिकायत सुनाते हो, तुम्हें क्या लगता मैंने पढ़ाई नहीं की, माट्साब हथेली पर बेंत से गिनती पहाड़ा छाप देते थे, अगले साल का सलेबस तो हम गर्मी की छुट्टी में नाप देते थे, गणित में एकाध नंबर कट जाएं तो हम भी रोते थे, हिंदी की क्लास में पीछे बैठकर हम भी सोते थे, उस दिन मेन्टोफ़्रेश में तुमने सिगरेट की महक छुपाया था, हमने कॉलेज में ट्राई किया तो कौन सा अपने बाप को बताया था, अगर आज तुम अपने कॉलेज में रॉकस्टार हो, तो हम भी कभी दोस्तों की कश्ती के शिकारे जैसे होते थे, रुतबा अपना भी कम नहीं था, हम भी कभी तुम्हारे जैसे होते थे। ऐसा नहीं कुछ बदला नहीं, हम अपने बाप से डरते थे, आज तुम दोस्त हो हमारे, हम इज़्ज़त से नज़रें नहीं मिलाते थे, तुम बेधड़क कर लेते हो इशारे, हमें जो मिला उसमें खुश रह लिया, तुम लड़ कर लेते अपना हक़ किनारे, उम्मीद है कि मेरी दी छूट तुम्हें आगे ले जाने की सीढ़ी होगी। हर बाप अपने बेटे को इसी उम्मीद में ख़ुद से ज़्यादा देता है, तुम समझोगे जब तुम्हारी अगली पीढ़ी होगी। 32 रक्षाबंधन माँ जैसी फ़िक्र और दोस्तों सी मस्ती, दोनों के बीच की कड़ी होती है, उम्र में चाहे छोटी ही क्यूँ ना हो, बहन हमेशा हमसे बड़ी होती है। ईमान की ये मूर्ति, सूरज को पानी का रिश्वत देती है, गोलगप्पों की चटोरी, पूरा का पूरा दिन व्रत रख लेती है, भाई के तरक्की की दुआएँ माँगती है, पीपल के चारों ओर धागे बाँधती है, कोई मुश्किल जो आ जाए, तो उस धागे सी भाई को घेर के खड़ी होती है, उम्र में चाहे छोटी ही क्यूँ ना हो, बहन हमेशा हमसे बड़ी होती है… फिर यूँ ही एक रोज़, रस्मों से मजबूर, सारी दुआएँ छोड़ के, चली जाती है कोसों दूर, पर आज भी जब वो घर लौटती है, तो रसोई, आँगन, सब महक से उठते हैं, घर के सारे धुंधले पड़े रिश्ते, एक बार फिर चमक से उठते हैं, ना रहते हुए भी, मायके को जोड़ के रखने वाली, एक ख़ूबसूरत लड़ी होती है, उम्र में चाहे छोटी ही क्यूँ ना हो, बहन हमेशा हमसे बड़ी होती है… 33 शिक्षक बचपन एक कच्ची माटी, कहने को है माँ बाप की थाती, पर किसी अनजान कुम्हार के हाथों, लगे बिना सँवर नहीं पाती … वो कुम्हार, जो दुलार और फटकार के छीटों से गीला करता है, इस कच्ची मिट्टी में आयी अकड़ को ढीला करता है, हर माटी के हिसाब से, तैयार करता है एक साँचा, फिर जादुई हाथों से खींचता है, सुनहरे भविष्य का खाँचा, अहंकार के तिकोने टुकड़े तोड़ देता है, स्नेह की लेई इस बर्तन में जोड़ देता है, थपथपा के कई बार, आलस से जगाता है, घमंड का सूखापन आ जाए, तो सौम्यता का पानी मिलाता है, आग की तपिश में रखके, शिद्दत सिखाता है, माटी से उठाके हमें, पीतल, चाँदी और कुंदन बनाता है, उस कुम्हार के बिना आज, आप और हम, हम नहीं होते, कहने को ये स्याही के रिश्ते हैं जनाब, पर ये ख़ून के रिश्तों से कम नहीं होते… 34 पिता होना आसान नहीं होता… एक ही जिंदगी में पिता, कई किरदार निभाते हैं। कभी माँ के साथ खड़े साइड हीरो तो कभी विलेन बन जाते हैं। बचपन में माँ जब कहती है कि मेरा बच्चा कित्ता कूल है, पिता कहते हैं कि अजी छोड़ो, नंबर १ का फ़ूल है, 98% मार्क्स आएं तो माँ कहती है कि बेटा हमेशा खुश रहो, पिता कहते हैं कि 99% ला सकते थे, अगली बार थोड़ा और पुश करो। बढ़ती उम्र के मेरे फ़ैशन को जब क्लासमेट्स मेरी शान समझते हैं, पिता कहते हैं कि बाल देखे हैं इनके, अपने आपको तेरे नाम का ये सलमान खान समझते हैं। इन्हीं तानों के सहारे, उम्र की सीढ़ियां चढ़ते, एक रोज़ ऐसा पायदान भी आता है, लगता है कि सारी दुनिया समझ गई है मुझे, बस एक मेरा बाप नहीं समझ पाता है। पर वक़्त कहाँ रुकता है, धीरे-धीरे पिता बूढ़े होते हैं और हम बड़े हो जाते हैं, जैसा वो चाहते थे, एक दिन हम अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं। पर अचानक पिता विलेन का रोल छोड़, साइड हीरो का किरदार निभाने लगते हैं। डाँटना कम कर देते हैं, बोलने और बतियाने लगते हैं। मेरी पहली नौकरी की ख़ुशी में भी शांत होकर कहते हैं, कि कभी मेहनत से मत डरियेगा। प्रमोशन की पार्टी की अगली सुबह कहते हैं, कि ख़ुशियों का कभी घमंड मत करियेगा। अब मेरे पीछे मेरी तारीफ़ अपने दोस्तों से करते हैं, शादी मेरी होती है और मुझसे ज़्यादा वो ख़ुद संवरते हैं, मेरे बच्चे को थोड़ी तकलीफ हो जाये, तो मुझसे ज़्यादा घबराते हैं, मैं बच्चे को थोड़ा डाँट भी दूँ, तो मुझे वही पुराना अपना विलेन वाला रूप दिखाते हैं, धीरे -धीरे ही सही, हमारा रिश्ता दोस्ताना होता है, पर एक दिन पिता को हमसे दूर कहीं आसमान में चले जाना होता है… अचानक से ज़िम्मेदारियाँ दुगुनी सी लगती हैं, ख़ुशियाँ आधी सी लगती हैं, रंग वही बिखरे हैं चारो तरफ, पर ज़िंदगी सादी सी लगती है, अब मेरी तरक्की को मुझसे ज्यादा कोई सेलिब्रेट नहीं करता, घर लेट से आता हूँ, तो बरामदे में पेपर पढ़ते कोई चुपचाप मेरा वेट नहीं करता, मुकाम मैं कोई भी हासिल कर लूँ, अच्छा लगता है जब मोहल्ले के लोग, मुझे उन्हीं के नाम से जानते हैं, रिश्तेदार पीछे से देखकर, मुझमें उन्हीं को पहचानते हैं। अब जब मेरे अपने बच्चों को माँ अच्छी है और मैं गंदा दिख रहा हूँ, तो सुकून मिलता है कि शायद मैं भी उन्हीं के रास्ते पर चल रहा हूँ। आज मन किया कि आसमान की तरफ देखकर मैं उनसे कहूँ, कि अब समझा, पिता होना इतना आसान नहीं होता, सिर्फ ख़ुद को नहीं, बल्कि पूरा परिवार चलाना होता है, प्यार तो सब दिखा लेते हैं, कभी एक ज़रूरत पड़ी तो गुस्सा दिखाना होता है, एक मेन हीरो का टैलेंट हो भीतर तो क्या, ज़िन्दगी भर साइड हीरो या फिर विलेन का किरदार निभाना होता है। पिता होना आसान नहीं होता… 35 माँ शब्द नहीं, दुनिया है… माँ तू बूढ़ी होकर बच्ची बन जाना, और मैं तेरी माँ बन जाऊंगा… तूने ये रोल किया है बरसों, कुछ दिन मैं भी कर पाऊंगा… तू मुझसे बेतुकी ज़िद करना, मैं सारे नख़रे सह लूँगा, जैसे तू गुस्सा पी जाती थी, मैं भी वैसे चुप रह लूंगा, गोवा घूमने की मेरी प्लानिंग, तू गंगासागर में बदल देना, करूँ ज़रा सी आनाकानी, मेरा कान पकड़ तू मसल लेना, मैं जोड़ूंगा कुछ नए से रिश्ते, पर तू पुराने रिश्तों को सजाती रहना, लाख रहूं मैं काम में डूबा, मौसी-मामा से बात करवाती रहना, तूने कितनी ज़िद मानी थी मेरी, थोड़ी बहुत ये ज़िद भी तेरी, मैं हँसकर सह जाऊंगा… तूने ये रोल किया है बरसों, कुछ दिन मैं भी ये कर पाऊंगा… मेरी अब तक की मनमर्ज़ी, काजल के टीके से तूने सँवारी है, मैंने तंग किया तुझे बरसों, अब तेरी करने की बारी है, डाइबिटीज़ की एक गोली संग, दो रसगुल्ले निगल लेना, जो मैं ज्यादा तफ़्तीश करूँ, तो हंसकर बात बदल देना, लाख करूँ मैं मना तुझे, छुपकर कुछ चटपटा खा लेना, रात जो तबियत बिगड़ी, तो नींद से बेधड़क मुझे जगा देना, दवा खिलाते, माथा सहलाते, मेरे सिराहने गुज़री हैं तेरी कई रातें, तेरे सिरहाने एकाध रात, मैं भी तो गुज़ार पाऊँगा, तूने ये रोल किया है बरसों, कुछ दिन मैं भी ये कर पाऊंगा… जिस मिट्टी में सींचा तूने, वो मिट्टी मेरे पास रहेगी, होंगे सबके तौर-तरीके, पर तेरी अपनी बात रहेगी, देश-विदेश मैं रहूँ कहीं भी, तू तो अपने तौर में जीना तेरी मर्ज़ी का रहन-सहन, तेरी मर्ज़ी का खाना-पीना, अपनी मर्ज़ी से बालकनी में, तुलसी का गमला रख आना, दोस्त भले अँग्रेज़ हों मेरे, तू भोजपुरी में बतियाना, जब मैं ठीक से बोल नहीं पाता था, कैसे मेरी बातें तू सबको समझाती थी, मैं भी तेरी बातें कुछ दिन, लोगों को समझा पाऊँगा… तूने ये रोल किया है बरसों, कुछ दिन मैं भी ये कर पाऊंगा… तेरा मेरा गर्भनाल का रिश्ता, मैं तुझसे हरदम जुड़ा रहूँगा… लोगों का तो वो जाने, पर मैं तेरे साथ हमेशा खड़ा रहूँगा… दुनिया सिर्फ बाहर का जाने, तेरे बिन दिल के ग़म बाँटेगा कौन? प्यार करने वाले बहुत हैं माँ, पर तेरे बिन मुझको डांटेगा कौन? 36 लड़कियाँ कोई तो है जो देख रहा है, इसका गुमान करते, कोई ऐसे वैसे ना देख ले, इसका डर आँखों से बयान करते, बाहर से सादगी का रंग चढ़ाये, भीतर हर मौसम को ओढ़े बिछाए, मैंने उन छोटे-छोटे शहरों में, बड़ी मासूम सी लड़कियाँ देखी हैं… पतझड़ और बसंत की उस मिलीभगत वाली शाम, जब आर्ट्स फ़ैकल्टी की काली सड़क पर, नारंगी पत्ते लहराकर गिर रहे हों, सहेलियों का हाथ थामे यूँ गुजरती हैं, जैसे तितलियों को आपस में गपियाना हो, वहीं बेंच पर बैठे बैंगनी फूलों के इतने गुच्छे बनाती, जैसे सारा बसंत अपने बालों में सज़ाना हो… सर्दियों की ठंडी सुबह जब रज़ाई से कदम निकाल रही हो, जैसे कटरे के दुकानदार शटर उठा रहे हों, एक ही तरह का यूनफ़ॉर्म पहने, जाड़ों की नरम धूप सा चेहरा लिए, सीधी फैक्ट्री से बनके निकली ये लड़कियाँ, फुटपाथ की फर्श पर यूँ पैर रखती हैं, जैसे किसी ने रूई के फ़ाहे से सड़कों पर पराग मल दिया हो… फिर सर्दियों की काली सियाही सी शाम, मुलझुलाती बत्तियों के सहारे, जब सड़कें सोने की तैयारी में होती हैं, स्कूल कॉलेज की थकान लिए उन्हीं सड़कों से घर को लौटती वो लड़कियाँ, एक हाथ से बैग और दूसरे से बाल संवारते, यूँ चटर-पटर बातें उड़ाती चलती हैं, जैसे उनकी बातों से जाड़ों के गुलाबी फूल झड़ रहे हों… गर्मियों में जब पारा भी आलस से उमसा रहा होता है, सड़कों की उस धकेलती भीड़ में भी, दिख जाती हैं ये लड़कियाँ, अपने उसी फ़िरोज़ी स्टॉल से चेहरा ढके, जिनपर बड़े बड़े कचनार के फूल छपे होते हैं, और दोपहर बाद की तेज बारिश में, यही लड़कियाँ सड़कों पर अँगड़ायी लेती हैं, सावन की हवाओं में उड़ जाते हैं उनके बाल, जैसे किसी ने अजीब सी कंघी से निकाल दिए हों अजीब सी माँग, दोपहर तक उमस से बेहाल वही सड़कें, बारिश में इनके रंग बिरंगे छाते लिए गुजरने भर से, कचनार के फूलों की खुशबू से सराबोर हो जाती हैं। पता नहीं कहाँ होंगी, अब ये छोटे शहरों की मासूम लड़कियाँ, शायद डाँट रही होंगी कहीं अपनी बेटियों को, बेधड़क चीखने पर, बारिश में भींगने पर, बालों में फूलों का गुच्छा लगाने पर, सड़कों पर चलते चटर-पटर बतियाने पर, कायनात को मासूम लड़कियों की एक नयी खेप देकर, शायद, वो खुद अब औरत बन गयी होंगी… 46 जहाज़ी ना समझे पंडित, और ना समझे क़ाज़ी, एक जहाज़ी के दिल का दर्द, समझे तो बस दूसरा जहाज़ी… जल्दी मिले जहाज़, पहले मिले प्रमोशन, बैच में पीछे रह गए, फिर होगा फ़्रस्ट्रेशन। STCW के कोर्सेस, Written, oral का टंटा, इन सबसे बेड़ा पार हुआ, फिर पीटें MMD का घंटा, ज़िंदगी दौड़ है, आगे रहने की होड़ है, धीरे चलने को, यहाँ नहीं कोई राज़ी, एक जहाज़ी के दिल का दर्द, समझे तो बस दूसरा जहाज़ी … Lifeboat मैं ख़ूब चमकाऊँ, ECDIS के आगे सर खुजलाऊँ, Cargo टैंक जो पास करा दे, तो Surveyor की बलिहारी गाऊँ, Purifier और generator के, Maintenance में निकले तेल, बस यही डर ख़्वाबों में सताए, कि Main Engine ना हो जाए फ़ेल, ये दुनिया भर की टेन्शन, आगे देगी दूनी पेन्शन, फिर भी लगे हैं जीतने में, बड़ा साहब और कैप्टन बनने की बाज़ी… एक जहाज़ी के दिल का दर्द, समझे तो बस दूसरा जहाज़ी … Sign Off से पहले लम्बे प्लान बनाऊँ, पर छुट्टी में जब घर आऊँ, दरियायी घोड़े सा पसर मैं जाऊँ, कोई option ना करूँ सर्च, सिर्फ़ पैसे करूँ ख़र्च, फिर जब ATM low level alarm बजाए, Company को मैं readiness बताऊँ, ज़िंदगी में घूम फिर के, वही लगाऊँ चक्कर, 9 to 5 नौकरी वाले, क्या देंगे हमको टक्कर, बस Family से दूर जाने की, चोट हर बार हो जाती है ताज़ी, एक जहाज़ी के दिल का दर्द, समझे तो बस दूसरा जहाज़ी …