
About the Book
चेतना से उपजे,
विचारों के मेले,
कभी-कदा पूछते हैं,
पाकर अकेले।
कौन हूँ मैं?
किस हेतु जीवन मेरा?
चाकू बनी काटने को,
कलम बनी लिखने को,
फिर धरती पर आने का,
क्या है प्रयोजन मेरा?
किसी को शक्ति चाहिए,
किसी को शांति,
किसी को आलस प्रिय है,
किसी को क्रांति, कोई उद्देश्य होता भी है या, ये है सबके मन की बनायी भ्रान्ति? अपनी समझ से वक़्त की, हम सिगरेट फूँकते रहे, इस उपयोग में नाहक ही, एक अर्थ ढूँढ़ते रहे, जो वास्तव में है ही नहीं, उसे व्यर्थ ढूँढते रहे। निरर्थकता का आलिंगन, भले विरोधाभास होगा, पर छोटी-छोटी चीज़ों में भी, फिर खुशियों का एहसास होगा, एक वायरस से भी कमज़ोर, जब क्षणभंगुर यह जीवन है, फिर अर्थ की निरर्थक तलाश में, क्यूँ भटक रहा यह मन है? २. सोशल मीडिया काश! ये जिंदगी, सोशल मीडिया का कोई पेज होती, सबकुछ उतना ही खूबसूरत होता, जितना दिखता है… लोग अक्सर छुट्टियाँ मनाते, कभी शिमला तो कभी थाईलैंड जाते। लोग सिर्फ लज़ीज़ पकवान खाते, हर वीकेंड किसी महंगे रेस्टोरेंट हो आते। लोग सिर्फ और सिर्फ, सुन्दर होते। चेहरे का रंग बदलने के लिए, तमाम फ़िल्टर होते। कोई भी एग्जाम या कोई कम्पटीशन, हर कोई बेधड़क पास कर जाता। ठीक से दो अक्षर भले ना पढ़े हों, हर विषय पर धड़ल्ले से बोल पाता। काँटे तो कही नज़र भी ना आते, ये जिंदगी सिर्फ फूलों की सेज़ होती। काश! ये जिंदगी… सोशल मीडिया का कोई पेज होती। पर कम्बख़्त, परदे के पीछे की, कहानी ही और है। वहाँ एक ख़ामोशी पसरी पड़ी है, सिर्फ सामने शोर है। कोई घर और ऑफिस के बीच उलझा, ताउम्र जिम्मेदारियों का बोझ ढो रहा है, तो कोई कूड़े के ढेर में खाना ढूँढता, भूखे पेट सड़क पर सो रहा है। वो चुप रहना बेहतर समझते हैं, जो ज्ञान के करीब हैं, खूबसूरत दिल वाले सामने नहीं आते, जो चहरे से बदनसीब हैं। ये परदे के पीछे लोग भी, तो इसी ज़िन्दगी का हिस्सा हैं, आह! जिंदगी सिर्फ सामने का, चमचमाता स्टेज नहीं है। दुःख है कि ये जिंदगी… सोशल मीडिया का कोई पेज नहीं है। जितना दिखता है, सबकुछ उतना सुन्दर नहीं है, ये असल जिंदगी है जनाब, यहाँ कोई फ़िल्टर नहीं है। ३. अंतिम पड़ाव कभी देखा है तुमने किसी इंसान के, जीवन का अंतिम पड़ाव? सब कुछ हासिल करने के बाद का अधूरापन, कितना खालीपन लिए होता है। जैसे डूबते सूरज के सिंदूरी आकाश में, कोई वक्त के बचे खुचे तारे गिन रहा हो, या जैसे वक्त की रील कहीं फँस गयी हो, रोज जैसा ही आज का भी दिन रहा हो। धूप के बुखार सा तपता, एक जर्जर शरीर दिखता है, जो गुजरे वक्त के अवशेष की तरह, सीली दीवार बन किसी कोने में ढह रही हो, होने और ना होने के दो किनारों के बीच, जैसे देह पीछे छोड़ आत्मा आगे बह रही हो। चेहरे पर तैरता दर्द दिखता है, लोगों से एक नियत दूरी बन जाने का, सारे रिश्ते जैसे किवाड़ बंद करके, खुद को दो बित्ता पीछे खिसका लेते हैं, नास्तिक हो चले मन का सुख दुःख, बाँटने को अब तो ईश्वर भी नहीं आते हैं। उजास आँखें दिखती हैं, यादों की खाईं लांघते हवा में ठिठकी, जो स्मृति के चिमटे के सहारे, बीती घटनाओं को बाहर सूंघ लाती हैं, यूँ तकते हैं घर के ईंट पत्थरों को जैसे, इनमें इंसानों की शक्लें नज़र आती है। पछतावे की एक टीस दिखती है, उन जिंदगियों की जो ठीक से जी नहीं पाये, जैसे मन के ढेरों मैल तन की, शुष्क त्वचा के ऊपर संचित हैं, पूरी जिंदगी जिस ‘मृत्यु’ से भागते रहे, अब सिर्फ वही एक चीज़ निश्चित है। ४. प्रतिस्पर्धा ये कैसी प्रतिस्पर्धा है, ये कैसी होड़ है? आगे रहने का, ये कैसा गुना गणित है? पीछे ना छूट जाने की, ये कैसी जोड़ तोड़ है? जिन गलियों, स्कूलों और दोस्तों संग, हम जिंदगी के पाठ सीखते हैं, वो यार दोस्त आजकल अक्सर, सोशल मीडिया पर दिखते हैं। किसी को नौकरी में तरक्की, तो कोई विदेश जा रहा है, किसी की गर्लफ्रेंड के साथ फोटो, तो कोई शादी रचा रहा है। किसी की शिमला में पार्टी, तो कोई यूरोप में छुट्टियाँ मना रहा है, मुमकिन है कि आज हर साथी, आपसे बेहतर नज़र आ रहा है। अव्वल तो जो दिख रहा है, क्या पता वो सच है या खोखली शान है, किसी ब्रांडेड शर्ट की चमक में छुपाई, कौन जाने एक फटी सी बनियान है। दोयम अगर ये सच भी है तो उनका सच है, तुम पर इसका प्रभाव क्यों है? सबकी अपनी रफ़्तार और अपनी दौड़ है, तुम पर इसका दबाव क्यों है? हम सबकी परवरिश, परिवार, पढ़ाई, और हालात अलग हैं, हम सबकी सोच और बुद्धि अलग हैं, नैन नक्श और जज्बात अलग हैं। हम इतने अलग और अद्वितीय हैं, कि हमारी दौड़ और दौड़ की शुरुआत अलग है, ये अगर समझ पाए फिर, कोई भी प्रतिस्पर्धा बेमानी सी लगेगी, किसी दो की तुलना नादानी सी लगेगी। इस एक ही दुनिया में, हर किसी की एक अपनी कहानी है, हम अगर अपनी कहानी के हीरो बन पाए, तो यही स्वस्पर्धा हमारी सफलता की निशानी है… ५. असफल संघर्ष मिलकर संघर्ष के तमाम छोटे-बड़े हिस्से, बमुश्किल बना पाते हैं सफलता के एकाध किस्से, तो माना कि सफलता का गुणगान होना चाहिए, पर असफल संघर्ष का भी तो जरा सा सम्मान होना चाहिए। प्रसव के बाद लाखों महिलाएं, बढ़ी जिम्मेदारी का आभास करती हैं, शरीर और मन को फिर से पटरी पर, लाने के लिए घंटों प्रयास करती हैं। जबकि वो जानती हैं कि ज़रूरी तो नहीं, हर मेहनत का मुकम्मल अंजाम हो जाए, प्रसव के बाद हर लड़की मैरीकॉम हो पाए। गाँव देहात से निकले कई लड़के, खाली जेबों में ढेरों ख्वाब लाते हैं, सीने में कुछ हासिल करने की चाह, और बाज़ुओं में मेहनत बेहिसाब लाते हैं, जबकि वो जानते हैं कि ज़रूरी तो नहीं, हर संघर्ष पर एक दिन कहानी बन पाए, हर लड़का धीरूभाई अम्बानी बन जाए। कभी आस-पास नज़रें घुमाकर देखिये तो सही, दिनभर की नौकरी से थककर लौटे पिता, शाम की शिफ्ट के लिए तैयार हो रहे हैं, पूरे परिवार के पेट भर सपनों के खातिर, माँ के अपने सपने रसोई में बेज़ार हो रहे हैं। पड़ोस की छत पर देर रात तलक, कोई टेबल लैंप जलाये पढ़ रहा होगा। स्टार्ट अप की चाह में ऑफिस के बाद, कोई लैपटॉप पर घंटों खिटपिट कर रहा होगा। जबकि ये सब जानते हैं, ज़रूरी तो नहीं, हर पसीने का नमक, सफलता के स्वाद में बदल जाये। हर खामोश संघर्ष, एक दिन विजय नाद में बदल जाये। इन संघर्ष के किस्सों पर कल फिल्म बने ना बने, इनकी पीठ पर आज शाबाशी की निशानी दीजिये, ये नवांकुर कल को वृक्ष बनें या मुरझा जाएं, पर आज इन्हें पनपने को थोड़ा सा पानी दीजिये। २. समंदर का नमक १. समंदर… मेरी पाठशाला 54 २. 2ND ऑफिसर की मुहब्बत 56 ३. दर्द-ए-जहाज़ी 58 ४. टी.एस.चाणक्य 60 १. समंदर… मेरी पाठशाला मैं जहाज़ी हूँ, समंदर मेरी पाठशाला है। मैं रोज सूरज को समंदर से, निकलते और उसी में ढलते देखता हूँ। amplitude और merpass के सारे कैलकुलेशन के बाद, मुझे समझ आता है कि, मिट्टी का बना इंसान, सारी ऊँचाइयाँ चढ़ने के बाद, उसी मिट्टी में मिल जाता है। मैं समंदर के कई चेहरे देखता हूँ, कभी कोसों पसरी नीली ख़ामोशी, तो कभी अहंकारी उफान। मौसम और चक्रवात की, सारी गुणा गणित के बाद, मुझे समझ आता है कि, वक्त का काम है गुजर जाना, बस हमें ठहरना होता है। मैं अनगिनत अनजान लोगों से मिलता हूँ, कुछेक से जीवन भर का नेह लगाता हूँ, कुछेक को बिलकुल ना झेल पाता हूँ, “गैंगवे की दोस्ती गैंगवे तक’ का पाठ पढ़ने के बाद, मुझे समझ आता है कि, तरह-तरह के लोगों से मिलने की, इंसानी नियति है जो नहीं बदलती, बस हमें बदलना होता है। मैं जहाज़ी हूँ, मेरे अनुभवों की किस्से में, इंसानों से ज्यादा, समंदर लिखा है, समंदर मेरी पाठशाला है। जो कुछ सीखा है, मैंने इसी से सीखा है। २. टी.एस.चाणक्य बड़े दिनों बाद जब, कॉलेज के यार गपियाने आते हैं, हम नौकरीशुदा मशीनों को, कॉलेज के दिनों में लिए जाते है। वैसे तो कॉलेज की यादों में क्या नया, वही पढ़ाई का ताप और दोस्ती की नमी है, पर हमारा टी.एस.चाणक्य ज़रा अलग है, ये थोड़ा कॉलेज और ज़्यादा अकैडमी है। कहने को कॉलेज ज़मीन पर था, पर दिल से पानी के जहाज़ पर रहते थे, हॉस्टल को फ़ोक्सल, कॉलेज को स्कॉलस्टिक, और असेंबली प्लेस को पूप डेक कहते थे। सुबह-सुबह बिगुल की चिघ्घाड़ पर, दो हाथों से दस सीनियर्स को चाय पहुँचाते थे, फर्स्ट ईयर डबल अप की मधुर आवाज़ पर, लेट होने के डर से दौड़कर फ़ॉल इन जाते थे। अनुशासन से मुक्ति पाने की, हर कोई होड़ में रहता था, बीमार एक होता पर हर दोस्त, अटेंडेंट बनने की दौड़ में रहता था। फ्रॉग जम्प, डक वाक, क्रॉलिंग, पनिशमेंट के नये तरीक़े सीख रहे थे, चाणक्या ओथ और क़व्वाली के ज़रीक़े गलियों के इनोवेटिव सलीक़े सीख रहे थे। सेकंड ईयर में होश सम्भाला, जब हुए रैगिंग से आज़ाद, कोई पढ़ाई, कोई मेडल, कोई सीख रहा था दारू सुट्टे का स्वाद। नयी-नयी आज़ादी को हर कोई, shore leave और बंकिंग से भुना रहा था, और कुछ भले ना हो रहा हो, जीवन भर के दोस्त बना रहा था। कोई लीडर, कोई पढ़ाकू, हर कोई दूसरे से बीस था, यूपी बिहार के अपने गुट थे, हर गुट का एक मठाधीश था। मुट्ठी में रेत के दाने जैसा, वक्त उड़ता रहा फ़िज़ाओं में, कैंपस, एग्जाम, पासिंग आउट परेड, सारे बिछड़ गये अलग दिशाओं में। दिमाग़ कहता है इतना वक्त खोया, और कुछ ख़ास नहीं पाये, दिल कहता है कि ज़िंदगी भर की, यादें संजोयी और दोस्त कमाए। कभी लगता है कि काश अपने पास, होती एवेंजर्स की टाईम मशीन, चले जाते उन कॉलेज के दिनों में, जहाँ थी ज़िंदगी बेफिक्र और हसीन… ३. रिश्तों के नाम १. चिरंतन मीत 64 २. त्याग 66 ३. पिंक और ब्ल्यू 69 ४. यही ज़िंदगी है 72 ५. माँ के बाद पिता 74 ६. बिटिया रानी 77 ७. बेटियों के पिता 79 ८. रक्षा सूत्र 82 ९. बहन-भाई का रिश्ता 85 १०. साध्वी 88 ३. त्याग हम दोनों के रिश्ते में, त्याग तुम्हारा मुझसे ज्यादा, तुम चली आयी चार पाँच कदम, मैं चल पाया बस एक आधा। मेरे जैसा तेरा बचपन, मेरे जैसे तेरे सपने, जैसे मेरे गली मोहल्ले, तेरे भी तो थे कई अपने। अपनी दुनिया से रंग चुराके, मेरी दुनिया रंगीन बनाके, कैसे खुश रह लेती हो तुम, अपने रिश्तों को करके सादा… जैसे मेरी पसंद नापसंद, तेरी भी तो थी कई बातें, मुझे चलना था जेठ दुपहरी, तुझे भाये सावन की रातें, बिना सोचे समझे मेरे, कदम से कदम मिला लेती हो, अपनी रातें छोड़, मेरी दुपहरी अपना लेती हो, तुम्हारी मर्ज़ी पूछूँ तो, हँस के बहला देती हो, क्या सिन्दूर में लिपटे रिश्तों का, ऐसा होता है अटल इरादा, मैं तेरे संग ही बूढ़ा होऊं, ये सपने देखा करता हूँ, तुम कहती हो मुझपर मरती हो, मैं सचमुच तुमपर मरता हूँ, गर्मियों की शाम मुझे तेरी ही, उंगली पकड़ तारे गिनना है, बारिश की सुबह बूंदें टटोलते, तेरे ही संग चाय पीना है, सर्दियों की दोपहर आंगन में, तुझे ही अंगड़ाई लेते देखना है, हर मौसम की आंच में, सिर्फ तेरी ही याद मुझे सेंकना है, अगले जनम मैं कृष्ण भी बन जाऊं ना, तो तुम्ही बनना मेरी मीरा, और तुम्ही बनना मेरी राधा, तुम चली आयी चार पाँच कदम, मैं चल पाया बस एक आधा। ४. पिंक और ब्ल्यू तुम्हारा पिंक और मेरा ब्ल्यू, भले दोनों के अलग अलग थीम है, पर ज़िंदगी की पिच पर साथ उतरे हैं, याद रहे हम दोनों एक ही टीम हैं, मैं रोज़ तिनका चुगकर लाता हूँ, तुम क़रीने से घोंसला सजाती हो, मैं थक हार कर उसी घर लौटता हूँ, जहाँ तुम नेह का आँचल बिछाती हो, सिर्फ़ ग्रोसेरीस ख़रीदने से पेट नहीं भरता, अगर तुम रसोई की आँच में ना पकाती, सिर्फ़ फ़ीस जमा करने से बच्चे कहाँ पढ़ते, अगर तुम घंटों बैठकर होम वर्क ना कराती, मेरे इकट्ठा करने भर से रिश्ते नहीं रहते, अगर तुम हरेक को सहेज कर ना रख पाती, रिश्ते, बच्चे, संस्कार, भविष्य, हम कभी जीत तो कभी हार लेते हैं, आपस में ख़ामोशी घोलकर कई दफ़ा, बेवजह एक दूज़े को हार का दोष देते हैं, नाराज़गी में कोई टीम जीती है भला, जीतते हैं मिलकर जान लगाने से, एक दूज़े को सच्चाई का आईना दिखा, हाथ पकड़ हँसकर आगे बढ़ जाने से, हमें देखकर ही अगली पीढ़ी को, विवाह की संस्था पर विश्वास रहेगा, जीवन के पिच के मिज़ाज का क्या, आज पतझड़ तो कल मधुमास रहेगा, माना कि दोनों के अन्दाज़ अलग थे, कुछ तुमने हमें और हमने तुम्हें झेला, ज़रूरी नहीं कि हर बार हम जीते, ज़रूरी है कि हमने टीम बनकर खेला, जीवन का दिया हर झोंका सह लेगा, हम दोनों की हथेलियाँ नज़दीक आएँगी, हम दोनों की यही टीम रहे हर जनम, कमियों के साथ भी मज़े से कट जाएगी.. ५. माँ के बाद पिता माँ मर गयी तो पिता यूँ हो गए, जैसे दो में से एक नहीं, सिर्फ शून्य शेष रह गया। माँ, पिता और बच्चों के संबाद का पुल थी, अब पिता अकसर ख़ामोश रहते हैं, माँ के साथ उनका वो पुल भी बह गया। माँ थी, तो पिता नज़र आते थे, माँ के साथ बेतुके बहस करते, मुस्कराते हुए माँ के ताने सुनते, अपने पुराने टेप रिकॉर्डर पर, हेमंत कुमार के गाने सुनते। कभी-कभार पीली साड़ी पहने, माँ पिता के सामने आ जाती थी, तो पिता उसे ग़ौर से देखते, वो उनके गाँव के सरसों की याद दिलाती थी। सिर्फ माँ को पता होता था, पिता के चाय का बख़त, सिर्फ वही जान पाती थी, उनका स्वादानुसार नमक। माँ अपने साथ उड़ा ले गयी है, पिता के किरदार के सारे रंग, यूँ जी रहे है जिंदगी आजकल, जैसे हो चला हो इससे मोहभंग। जिन दोस्तों के लिए माँ ताने देती थी, आज-कल उनसे भी मिलने नहीं जाते हैं, हेमंत कुमार के गाने कब से नहीं बजे, सिर्फ भजन कीर्तन में वक्त बिताते है। किसी पुरानी वीडियो रिकॉर्डिंग में, जब माँ चलते फिरते दिखती है, तो पिता की स्थिर आँखें चुप रहकर, कुछ नाराज़ सवाल करती हैं। तुमने मुझे क्यूँ धोखा दिया? मैंने तो तुमसे किया हर वादा निभाया था, मुझे यूँ अकेले छोड़कर चली गयी, क्या इसी के लिए मैं तुम्हें ब्याहकर लाया था। कभी चाय मिलने में देर होती है, तो माँ की तस्वीर की तरफ़ देखकर यूँ बुदबुदाते हैं, लगता है जैसे माँ यही कहीं है। माँ के बाद पिता होकर भी, हमारे साथ नहीं है। ६. बिटिया रानी मेरे घर लौटने पर, जब तुम दौड़कर मेरे गले लग जाती हो, छलक उठता है मेरे नेह का दिया, याद आती हैं वे सारी लड़कियाँ जो इसी उम्मीद में निहारती थी, अपने पिता को, और कठकरेज़ पिता मुँह फेर लेते थे। तुम्हें अंकवार लगाते, लगता है मैं उन सब पर नेह लुटा रहा हूँ… तुम्हें अपने हाथों से दुलारते, मामा, बुआ, मौसी का कौर खिलाते, याद आती हैं वे सारी लड़कियाँ जो भाई को पूरा आम मिलते देखती, खुद को आम का एक टुकड़ा मिलने पर, सारा रोष भीतर पी जाती थी। तुम्हें पेट भर खिलाते, लगता है उन सबको मैं उनका हिस्सा खिला रहा हूँ… तुम्हारे नख़रे, जबरदस्तियाँ सहते, मैं जानता हूँ कि मैं पक्षपात कर रहा हूँ, पर मुझे याद आती हैं वे सारी, बेटियाँ, बहनें, बहुएँ, जिन्होंने बिना कोई नख़रा दिखाए, चुपचाप सहकर जीवन गुज़ार लिया था। तुम्हारे साथ पक्षपात करके, तुम्हारे सारे बेतुके नख़रे सहके, मैं क़तरा क़तरा उऋण होता हूँ, उस क़र्ज़ से जो सदियों से स्त्रियों ने, चुपचाप सबकुछ सहकर, हम पुरुषों पर लादे हैं… ७. बेटियों के पिता पिता के आशीष का आँचल, बेटी के साथ ताउम्र चलता है, पिता का अचानक चले जाना, बेटियों को थोड़ा ज़्यादा खलता है। पिता के कंधों पर बचपन गुज़ारते, उसे राजकुमारी सा गर्व होता है, पिता उसकी कोई बात ना टालेंगे, उसे हमेशा इस बात का दर्प होता है। स्त्री के जीवन में पुरुषों का, पहला संसार पिता से है, उसने पुरुषों को जितना समझा, वो साक्षात्कार पिता से है। शायद इसीलिए वो पुरुष में, अपने हर उम्मीद की दवाई ढूँढती हैं, जीवन साथी में भी जाने-अनजाने, उसी पिता की परछाई ढूँढती है। स्कूल और कॉलेज में, लड़कियों की असीमित इच्छाएँ, पिता सुनकर मुस्कराते हैं, माँ को भले फूटी आँख ना सुहाएँ। पिता बेटी पर हैसियत से बड़ी, मुट्ठी खोलकर लुटा देते हैं, उसके हर ख़्वाब को अपने, पलकों पर बिठा लेते हैं। विदाई के वक्त पिता के आँसू, पियामिलन की ख़ुशी पर हमेशा भारी हैं, बेटी ख़ुश रहे जिस ससुराल में, इस आस में पिता हमेशा आभारी हैं। ससुराल में वो जितनी ख़ुश है, उससे ज़्यादा पिता को बताना चाहती है, पर पिता उसकी आँखों में पढ़ लेते हैं, वो सारे ग़म जो वो छुपाना चाहती है। जब मायके लौटी बेटी की गोद में, देखते हैं नाती या नतिनी का मंजर, तो बह जाता है पिता के भीतर, वर्षों से छुपाए नेह का समंदर। फिर एक दिन अचानक, पिता चले जाते हैं… अपने साथ लिए जाते हैं, बेटी का सम्बल, अभिमान, और उनके साथ चला जाता है, उसके मायके की पहचान। मायके जाने पर याद आते हैं पिता, ग़ुलाबी फ़्रॉक और खिलौने में, नज़र आते हैं विदाई के वक्त, खड़े आँसू पोंछते किसी कोने में। अब बेटी की आँखों से नीर, बरबस कभी भी बह जाते हैं, ख़ुशी और ग़म के हर मौसम में, बेटियों को पिता याद आते हैं… ८. रक्षा सूत्र हम बहनों के पास, नहीं था कोई सगा भाई, राखी तो होती थी हमारे पास, पर मिलती नहीं थी कलाई। वैसे भी हमें परिवार में, एक भाई की कमी सताती थी, पर रक्षाबंधन के दिन ये बात, हमें खूब याद दिलायी जाती थी। कोई कहता चाचा के लड़के को, फ़ोन करके बुला लाओ, नए पड़ोसी को भी तो एक बेटा है, उसी को धागा बांध आओ। क़ाश! हमारा भी एक भाई होता, छोटी बहन ज़िद करती थी, पिता भावनाएँ छुपा जाते, पर माँ की बेबसी दिखती थी। हम बहनें भी सज सँवरकर, किसी न किसी के घर जाते, राखियों से भरी किसी कलाई पर, दो राखी और बांध आते। मन में ये ख़ीझ हमेशा रहती, ये त्योहार क्यूँ आता है, एक भाई ना होने का घाव, हर साल क्यूँ कुरेदा जाता है। जब रक्षाबंधन का मतलब जाना, लगा ये कहाँ नाइंसाफी है, एक दूसरे का सहारा बनने को, हम बहनें आपस में काफ़ी हैं। ख़ुशियों में संग नाचना हो, या फिर कोई मुश्किल घड़ी है, एक दूजे का हाथ थामे, हम बहनें ही तो खड़ी हैं। सिर्फ़ त्योहार के लिए, ज़रूरी नहीं कि भाई हो, जो बहन कवच है आपकी, सजा दो उसी कलाई को… ९. १०. साध्वी देह किसी और का, किसी और का मन, कई औरतें जीती रहती हैं, मीरा जैसा जीवन। मन का सारा प्रेम, मायके के संदूक में छुपा लेती हैं, माँ बाप के कहे एक अजनबी पर, अपना सब कुछ लुटा देती हैं, डूबकर निभाती हैं, पत्नी का किरदार, पति पर कोई आँच आए, रहती हैं सती होने को तैयार। सुबह की रसोई से रात के बिस्तर तक, नींद में डूबा शरीर और उदास मन लेकर, भागते रहते सारा दिन इधर उधर, कभी थककर, चाय का प्याला लिए, सारी ज़िम्मेदारियों का हवाला लिए, चुपचाप खड़े घर के किसी कोने में, डूब जाती हैं अपने कृष्ण के जादू टोने में। जैसे उन्हें पता होता हैं, चाय में चीनी कम है या ज़्यादा, वैसे ही वो जानती हैं, मन और देह दोनों की अपनी मर्यादा। अपने कृष्ण के पावन, अनंत, प्रेम का संसार जानती हैं, तो भोज से मिले रिश्तों का, सामाजिक संस्कार जानती हैं। ना जाने कैसे बना लेती हैं ये औरतें, मन के प्रेमिका और देह की पत्नी, के बीच का संतुलन, ना जाने कैसे गुज़ार लेती हैं ये औरतें, बाहर से कुशल गृहिणी, भीतर से साध्वी जैसा जीवन… ४. तारीखों के नाम १. मित्रता दिवस 91 २. कृष्ण जन्माष्टमी 94 ३. शिक्षक दिवस 97 ४. पितृपक्ष 100 ५. रामनवमी 103 ६. दिवाली की यादें 106 ७. अपनों से दूर दिवाली 109 ८. ये नया साल मुबारक हो 111 ९. मकर संक्रांति 114 १०. महा शिवरात्रि 117 १. मित्रता दिवस सच्चे दोस्त बड़ी मुश्किल से मिलते है, मिल जाएँ जो पकड़ कर रखिये, ‘फ्रेंडशिप डे’ का कार्ड भेजें ना भेजें, भावनाओं की जंजीर से जकड़कर रखिये। इन्हीं से सीखी पहली गाली, पहली सिगरेट और पहली शराब, इन कमीनों से जो मुफ्त में सीखा, क्या ख़ाक दे पाएंगे उसका हिसाब। ये वही हैं, जो शायर बन जाते हैं, हमारे पहले लव लेटर के लिए, ज़रूरत पड़ी तो अपना खून भी, मिला देते हैं सिग्नेचर के लिए। स्कूल ने पढ़ना-लिखना सिखाया, घर वालों ने सिखाई ईमानदारी, पर जो सबसे ज़्यादा काम आया, वो थी दोस्तों की सिखाई दुनियादारी। हमें बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते, अव्वल दर्ज़े के बदतमीज़ होते हैं, पर इनके बिना भी कोई जिंदगी है, हम शरीर और ये हमारी कमीज होते हैं। दोस्ती के ख़ातिर कर्ण की तरह, किसी भी अर्जुन से भिड़ जाते हैं, दोस्त दुर्योधन सही था या ग़लत, ये सब बाद में बतियाते हैं। कृष्ण का दिया राजमहल, और सुदामा के चावल की भेंट, दोस्ती में दोनों बराबर थे, ओहदे का कैसा लाग-लपेट। ये हर मुश्किल पर मिलकर हँसते है, जिंदगी की बोरियत में ऊबने नहीं देते, शरारत की रस्सी बढ़ाकर खींच लाते हैं, डिप्रेशन के कुएं में कभी डूबने नहीं देते। दिल की हर बात बेझिझक कह लें, ये दोस्त ऐसे दिल अज़ीज़ होते हैं, इनके बिना भी कोई जिंदगी हैं, हम शरीर और ये हमारी कमीज होते हैं। २. कृष्ण जन्माष्टमी हे कृष्ण! अबकी भादों काली रात, तुम एक बार फिर से चले आना। लोगों के मन में जाने क्यूँ, तुम्हारे अलग ही किस्से हैं, उनके लिए त्याग राम के, और भोग तुम्हारे हिस्से हैं। उन्हें क्या पता कैसा होता हैं, जिस देवकी ने जन्म दिया, जन्मते उस माँ से नाता छूट जाना, जिस यशोदा ने पाला पोषा, बड़े होते उस माँ से भी बंधन टूट जाना, पूतना, कालिया और कंस का संहार, महाभारत के महारण का सूत्रधार। फ़ोन में सिग्नल ना होना भी, आज संघर्ष का मुद्दा है, अपने संघर्ष की एक झलक, सबको तुम दिखला जाना, हे कृष्ण! तुम एक बार फिर से चले आना। लोग कहते हैं जो बड़े मज़े से, गोपियों संग रास रचाएगा, हज़ारों रानियां होंगी जिसकी, प्रेम का अर्थ वो ख़ाक समझ पाएगा। उन्हें बताना तुम, बचपन के स्नेह में एक बार, जो नेह का बंधन तुमने बांधा, फिर जीवन भर वो प्रेम निभाया, तुम उसके कान्हा, वो तुम्हारी राधा। सच्चा प्रेम आजीवन साथ रहता है, इंसान न हो पास, पर उसका एहसास रहता है, आजकल हुक-अप, ब्रेक-अप का फैशन है, सब्र कहाँ है प्रेम में, सब कुछ बस आकर्षण है, पावन प्रेम की परिभाषा, सबको तुम बतला जाना, हे कृष्ण! तुम एक बार फिर से चले आना। ये दुनिया बदल गयी है, कृष्ण! देखोगे तो चकित रहोगे, लोग वही फिर दिख जायेंगे, आओगे तो भ्रमित रहोगे। ताकत और पैसे का बोलबाला है, कई कंस सत्ता में मदमस्त हैं, नारी का दर्ज़ा किताबी बातें है, द्रोपदियाँ दुःशाशनों से त्रस्त हैं। औकात की तराज़ू में तौलते हैं दोस्ती, दोस्तों के संग सुदामा आज भी पस्त है, पड़ोसी को पड़ोसी तक की चिंता नहीं, सारे अर्जुन अपनी जिंदगी में व्यस्त हैं। गीता की किताबें तो खूब बिकती हैं, तुम एक बार मतलब भी समझा जाना, हे कृष्ण! तुम एक बार फिर से चले आना। ३. शिक्षक दिवस मैं टीचर हूँ। भूल गए मुझे तुम? ए फॉर एप्पल से लेकर, फुल स्टॉप और कोमा तक, कबीर, सूर, तुलसी से लेकर अल्फा, बीटा और गामा तक, मैं ही तो तुम्हारे साथ था। तुम्हें याद है कि, मैं फिर से याद दिलाऊँ, उन भूली बिसरी बातों को, फिर से मैं गिनवाऊँ, जिसकी छड़ी से कांपते थे तुम, तुम्हारे बचपन का पहला डर हूँ मैं, अनुशासन का पाठ पढ़ाया जिसने, तुम्हारा वही PT वाला सर हूँ मैं। जिससे स्नेह को तुमने पहचाना, तुम्हारा पहला वाला क्रश हूँ मैं, जिसने तुम्हें सुना, समझा और जाना, तुम्हारी वही इंग्लिश वाली मिस हूँ मैं। जिसने तुम्हारी आँखों को ख्वाब दिखाया, कुछ कर गुजरने का पहला इंकलाब हूँ मैं, कठिन सवाल कान पकड़कर हल कराया, तुम्हारा वही गणित वाला माट्साब हूँ मैं। खून का रिश्ता भले ना हो, पर शिष्यों का एक वंश है मेरा, तुम्हारी हर सफलता के पसीने में, थोड़ा ही सही पर अंश है मेरा। तुम्हारी तरह हर साल एक नयी फसल आती है, ख़ुशी होती है जब वो खूब लहलहाती है, तुम्हारे भीतर का थोड़ा सा स्वाद हूँ मैं, खेत में पड़ा वही पुराना ऊर्वर खाद हूँ मैं। तुम जैसे दीपक हर साल आते है, ख़ुशी होती है जब वो नयी रौशनी फैलाते हैं, तुम्हारे प्रकाश में ऊर्जा का मेल हूँ मैं, तुम्हारे दिए में पड़ा वही पुराना तेल हूँ मैं। चर्चा में रहती है तुम्हारी सूरत और तुम्हारी सीरत, ख़ुशी होती है देखकर बाजार में तुम्हारी कीमत, तुम्हारे भीतर की कच्ची मिट्टी का आकार हूँ मैं, जिन बूढ़े हाथों गढ़े हो तुम, वही कुम्भकार हूँ मैं। मेरी ताकत का अंदाज़ा नहीं तुम्हें, मत सोच लेना कि मैं फटीचर हूँ, मुझे चन्द्रगुप्त जो मिल जाए, तो मैं एक नया राष्ट्र बना दूँ। मुझे सचिन लाकर दो तो सही, खेल जगत में तूती बजवा दूँ, मैं वही चाणक्य और वही आचरेकर हूँ, तुम्हारा कल, आज मेरे हाथ में है। मैं वही तुम्हारा टीचर हूँ… ४. ये नया साल मुबारक हो दिनों की गिनती में उलझे रहे, कहाँ रहा रत्ती भर ख़याल, पलक झपकते कब गुजर गया, ये एक साबुत पूरा साल। बहुत कुछ नया सीखा, तो कुछ पुराना भुला दिया, कुछ ख्वाबों ने अंगड़ाई ली, कुछ को नींद में सुला दिया। गुजरे साल की निम्मी यादों को, खुद से किये अधूरे वादों को, ये नया साल मुबारक हो… दिलवालों से हमने वफ़ा किया, दिलजलों को हमने दफा किया, कुछ पर हमने भी छिड़की जान, कुछ को ऐंवें ही खफा किया। कुछ रिश्ते संजोकर ले आए, कुछ रास्ते में चकनाचूर हुए, कुछ लोग हाथ से फिसल गए, कुछ सदा के लिए दूर हुए। बने बिगड़े इन सारे रिश्तों को, मुस्कान की बची-खुची किश्तों को, एक नया साल मुबारक हो… जैसा पिछला गुजरा था, क्या वैसा ही अगला साल रहेगा, कोरोना, डेल्टा और ऑमिक्रान, क्या अब भी वही बवाल रहेगा? नए कैलेंडर पर नया शिकारी, क्या वही पुराना जाल रहेगा, लाख समझा ले कोई मन को, पर मन में यही सवाल रहेगा। न्यू ईयर पार्टियों के इस शोर को, नयी उम्मीदों की इस भोर को, एक नया साल मुबारक हो… ५. मकर संक्रांति किसी छत पर काई पो चे, तो कहीं भक्काटे का शोर है, पूरे देश को त्योहारों में पिरोती, प्रकृति की ये अद्भुत सी डोर है। कहीं पोंगल की सोंधी ख़ुशबू, तो कही लोहड़ी की आँच है, कही खिचड़ी के तिलकुट, तो कही बीहू का नाच है। धनु राशि से प्रयाण करके, सूर्य मकर राशि में आए थे, पुत्र शनि को आज माफ़ किया था, प्रेम से तिल के लड्डू खाए थे। तीरों की शैय्या पर लेटे भीष्म ने, आज ही मृत्यु का वरण किया था, गंगा को धरती पर लाकर भगीरथ ने, आज ही पुरखों का तर्पण किया था। सूरज ने उत्तर को कूच किया है, बसंत की आहट अब आने को है, कम्बल, मफ़लर, रज़ाई लपेटे, सर्दी दबे पाँव अब जाने को है। ये सर्दी बड़ी बेदर्दी है, आखिर कब तक चलेगा ये बहाना, कुम्भ मेला हो आपका बाथरूम, कही न कही आज पड़ेगा नहाना। सूर्य की ऊर्जा अँकवार भरकर, हर कार्य का शुभ आरम्भ होगा, फ़सलें खेतों में अब तैयार हैं, ये समृद्धि का प्रारम्भ होगा। रंगीन पतंगों से लहराकर, एक नई शुरुआत करते हैं, कल कटकर गिरना ही है, आज आसमानी उड़ान भरते हैं। जितना तन को सुख मिले, मन में उतनी ही शांति हो, मंगलमय आप सबको, ये मकर संक्रांति हो… ६. महा शिवरात्रि बाघम्बर छाल देह पर, तिलक सजा ललाट है, त्रिशूल लिए निर्मूल काया, पर्वत सी विराट है। भगीरथी जटाओं में, गले में लिपटा साँप है, तांडव में झूमते, डमरू की मस्त थाप है। गंगा की उज्जवल धार, लटों पर दमक रहा, भाल पर निहाल होकर, चन्द्रमा चमक रहा। तुमसे ही आदि-अंत हैं, तुम पर ही समय शून्य हैं, प्रकाश को पूजे हैं सब, तुमसे तिमिर का भी मूल्य हैं। शिव के ही बीज से, ये सृष्टि का वृक्ष हैं, त्रिनेत्र में त्रिलोक है, धरती और अंतरिक्ष है। नीलकंठ के हृदय में, कुछ ऐसा परमार्थ हैं, मुस्कराकर पीते हैं विष, वो ऐसे भोलेनाथ हैं। त्रिशूल पर लिए धरा, वो हर पल सचेत हैं, सबके सखा हैं वो, क्या दानव क्या प्रेत हैं। काल के प्रहार को, रोकने के ढाल हैं, मृत्युंजय से कौन लड़े, जो स्वयं महाकाल हैं। भभूत में लिपटा, भले मसान पर शरीर है, मगर सिद्धियां लुटा दें, वो ऐसे दानवीर हैं। वैरागी का चित्त है, शिव का मतलब यही, रिक्तता और शून्यता, कुछ नहीं कोई नहीं। आज धरती से लेकर, अम्बर की छोर तक, शिवरात्रि की गूँज हो, जागरण हो भोर तक… ५. जगहों के नाम १. मुम्बई 121 २. बचपन का शहर 123 ३. गंगा घाट 125 ४. भदोही वाले 128 ५. गाँव बुलाता है 131 ६. सिंगापुर आयी भारतीय लड़कियाँ 134 ७. NRI 139 ७. भदोही वाले जिसके पूरब में बनारस, पश्चिम में इलाहाबाद है, जिसके उत्तर में जौनपुर, मिर्ज़ापुर दक्षिण में आबाद है। इन चारों पड़ोसियों का, महत्व अपनी जगह सही है, पर हमें हल्के में मत लेना, बेटा अपना भदोही भदोही है। तरह तरह के नामों का, इसका अपना जोड़ तोड़ है, कहीं जंघई और सुरियावाँ, तो कहीं परसीपुर और मोढ़ है। राजपूत ढाबे का खाना अलग, और नाश्ते की बात है अलबत्ता, जंगीगंज में गिरधारी की गुझिया, इंद्रामिल चौराहे का लौंगलत्ता। माना हमारे पड़ोस में, गंगा यमुना की बहार है, लेकिन हमारे पास भी, मोरवा, वरुणा के कछार हैं। बॉडीबिल्डिंग हो या क्रिकेट, हर जगह अपना धमाल है, कहीं रिंकू सिंह, शिवम् दूबे, तो कहीं यशस्वी जयसवाल है। ज्ञानपुर में काशी नरेश, या भदोही में हो नेशनल, नॉलेज और नेतानगरी, दोनों की है चहल-पहल। चकवा महावीर, भद्रकाली, या घूम आइए सीता मढ़ी, कुछ छूट गया तो फ़िकर नॉट, भदोही वाले जोड़ देंगे कड़ी। चाहे संत रविदास नग़र कहिए, या फिर भदोही कह लीजिए, ये क़ालीन नगरी सबसे ज़ुदा है, बस इसे इसकी पहचान दीजिए… ८. ९. सिंगापुर आयी भारतीय लड़कियाँ भारत में मैं जन्मी, वहीं की मेरी थी पढ़ाई लिखाई, थामे हाथ किसी का, मैं सिंगापुर गृहस्थी बसाने आयी। जब चांगी एयरपोर्ट पर पहली दफ़ा उतरी, एक अजनबी देश से मुलाक़ात हुई, भौचक सबकुछ देखती रही, ना सिंग्लिश समझ आयी, ना किसी से बात हुई। पर आज सालों गुजरने के बाद लगता है, कि मेरी देह ने जिस देश का नमक खाया है, उस देश ने मेरी सोच के दायरे को, कोसों दूर तक बढ़ाया है। मैं सोचा करती थी कि ऊँची इमारतें, लील जाती हैं प्रकृति की हरियाली, चौड़ी सड़कें कहाँ छोड़ती होंगी मैदान ख़ाली? पर यहाँ मैंने गगनचुम्बी बिल्डिंग देखी, सड़कों पर विकास का तेज़ रफ़्तार देखा, ईसीपी और पासिर रिस का समुंदर तट देखा, मैक्रीची और बोटेनिक गार्डन का विस्तार देखा। मेरी आँखें अचंभित थी देखकर ये सुन्दर रहस्य, विकास और प्रकृति का ऐसा अनूठा सामंजस्य, माँ ने मुझे चीज़ें टोंक से बाँधना सिखाया था, शाम होने से पहले घर लौटना सिखाया था। पर यहाँ… फ़ोन या पर्स कहीं भूल भी आऊँ, मजाल है कोई उठा ले, देर रात अकेले कहीं निकल जाऊँ, मजाल है कोई बुरी नज़र डाले। सुरक्षा के नए एहसास, मेरे वो पुराने डर फ़र्ज़ी कर गए, सकुचाई सी इस लड़की को भी, तितलियों से मनमर्ज़ी कर गए। मैंने धर्म जाति के बहाने, लोगों को लड़ते देखा था, अलग विचारों का साथ मुश्किल है, मैंने यही तो सीखा था। पर यहाँ… मैंने चाइना टाउन में जितना चाइना देखा, लिटल इंडिया में उतना ही इंडिया देखा, जितना चाइनीज़ न्यू ईयर और हरी राया देखा, उतना ही दिवाली, होली और डांडिया देखा। बसों और MRT की भीड़ में मुझे, चायनीज़, मलय और इंडियन दिखते है, किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं, अपने काम की धुन में सारे मगन दिखते हैं। यहाँ समझा मैंने कि बेफ़िज़ूल की बातों में, क्यों करना है अपना बेशकीमती वक्त खर्चा, चाय की अड़ी पर पान गुलगुलाते, क्यों करनी है दुनिया भर की राजनैतिक चर्चा। मैंने पढ़ा था कि किसी देश को आगे खींचने का इंजन, होता है बड़ी ज़मीन और ढेरों संसाधन। पर यहाँ आकर जाना, ये सब तो मेरी समझ का फेर है, ये छोटा सा, बिना संसाधनों वाल देश भी, आधुनिक विकास के जंगल का बब्बर शेर है। ली कुआन यू के जीवन से मैंने सीखा, विकास के लिए रिसोर्स नहीं, बल्कि एक दूरदर्शी नेता चाहिए, मिलिट्री की कोई बड़ी फ़ोर्स नहीं, बल्कि पीछे कर्मठ जनता चाहिए। अब चांगी एयरपोर्ट पर अकेले उतरती हूँ, तो ये देश अपना सा लगता है, मैं कभी अज़नबी होकर आयी थी यहाँ, वो गुजरा वक्त सपना सा लगता है। यहाँ अक्सर बारिश हो जाती है, शायद ये बूंदें लोगों के मन को गीला रखती हैं, कहीं और से आया पौधा भी आसानी से पनप जाए, ये बारिश यहाँ की मिट्टी को इतना ढीला रखती है। १०. NRI वहाँ भी हम नहीं पूरे, यहाँ अब तक आभासी हैं, कहीं का जन्म है अपना, कहीं के हम प्रवासी हैं। ये पहली पीढ़ी के हर, NRI के दिल का क़िस्सा हैं, जितना इसमें विदेश, उतना ही भारत का हिस्सा हैं। यहाँ दौलत, यहाँ शोहरत, यहाँ जो हाल है अपना, इसी से पहचान है अपनी, अब यही ससुराल है अपना। मगर कैसे उसे भूलें, ऐसा ज़ायका था वो, जहाँ जन्मे, हुनर सीखा, शायद मायका था वो। वहाँ के तंगहाली की, यहाँ जब बात आती है, माथे पर शिकन की कुछ, लकीरें खिंच ही जाती हैं। वहाँ की बुलंदियों का, कहीं जो ज़िक्र होता, सीना फूल जाता है, हमें भी फ़क़्र होता है। पीढ़ियाँ बदल रही हैं, रिश्ता पीछे छूट रहा है, पकड़ी है रस्सी मुट्ठी में, पर रेशा-रेशा टूट रहा है। बच्चे समझते हैं हॉलीवुड, कब तक बॉलीवुड दिखाएँगे, उन्हें ज़िद है पिज़्ज़ा बर्गर की, कब तक चावल-दाल खिलाएँगे। ऐ सड़क, बिजली, विकास, तुम क्यूँ इतनी देर से आए, तुम्हारे ही तलाश में कई, मुल्क से हो गए पराए। अब यही नियति इस देह की, इसका दो तरफ़ा व्यापार रहेगा, एक मिट्टी ने पाला पोषा, दूजे का नमक उधार रहेगा। वहाँ भी हम नहीं पूरे, यहाँ अब तक आभासी हैं, कहीं का जन्म है अपना, कहीं के हम प्रवासी हैं… ६. यादों के नाम १. चाय 143 २. चिट्ठियाँ 145 ३. आम 148 ४. सावन 151 ५. स्वर्गीय लता मंगेशकर जी को श्रद्धांजलि 154 ६. मीराबाई चानू 156 ११. आम गर्मियों में राहत का, इंतज़ाम लाया है, नोश फरमाइए जनाब, फलों का राजा आम आया है। पूरब से जर्दालू, हिमसागर, पच्छिम से ऐल्फ़ान्सो चली, उत्तर से दशहरी और चौसा, दक्खिन से नीलम, बंगनपल्ली। किसी की कुसली छोटी है, तो किसी का स्वाद है तगड़ा, मौसा जी को भाए मलीहाबादी, पर फूफा जी को बनारसी लंगड़ा। अपने शहरों से, स्वाद का पैग़ाम लाया है, नोश फरमाइए जनाब, फलों का राजा आम आया है। कच्चे हैं तो चटनी बनाइए, या फिर पन्ना पीने पर विचार डालिए, मीठा चाहिए तो गुरम्मे में लपेटिए, कुछ नहीं तो फिर अचार डालिए। पक जाएँ तो आमरस पीजिए, खाने में पापड़ की मिलावट देखिए, खटमिठ खाने का जी करे, फिर तो आप अमावट देखिए। दादी-नानी के प्रयोगों का, हज़ारों सामान लाया है, नोश फरमाइए जनाब, फलों का राजा आम आया है। हम गर्मी की छुट्टी में, नानी घर जाया करते थे, आम के बगीचे में सारी, दोपहर बिताया करते थे। एक डाली से दूज़ी पर, आती पाती खेला करते थे, कच्चे आम पकाने को, भूसे के लैब में ठेला करते थे। आँधी की आधी उम्मीद में, पूरी रात छत पर जागा करते थे, हल्की हवा की आहट में, आम बीनने बगीचे भागा करते थे। भाई-बहन जो बाल्टी में, आम भिगोया करते थे, छोटा वाला जो हमें मिले, तो फूट के रोया करते थे। ये आम अपने बाईस्कोप में, यादों का इत्मीनान लाया है, नोश फरमाइए जनाब, फलों का राजा आम आया है। १२. सावन काग़ज़ में उम्मीद मिलाकर, हम नाव बनाया करते थे, आँगन के पानी में वो सारे, ख़्वाब बहाया करते थे। सारे नाव लौट आते हैं, सावन की इन रातों में, जिनको कभी बहा आया था, बचपन की बरसातों में। जब सावन आने की ख़ुशियाँ जानवरों से साँझा करते थे, मेढक ताल में टर्राते थे, मोर बाग़ीचे नाचा करते थे। रंगीन सी छतरी लिए हाथ, स्कूल हम जाया करते थे, बस रेनी डे की छुट्टी हो जाए, सुबह से मनाया करते थे। प्लास्टिक की चप्पल पहने, कीचड़ में कुदाई होती थी, माँ के हाथों उसी चप्पल से, फिर घर में धुलाई होती थी। आँधी, पानी, घघ्घो रानी, और पोषम पा खेला करते थे, चाय पकौड़ी, गरम समोसे, जी भर के पेला करते थे। झूले पर वो बहनें सारी, पटेंग लगाया करती थी, अपनी नाज़ुक हथेलियों में, मेहंदी का रंग रचाया करती थी। देवर भाभी की बातों में, सावन की शरारत पायी जाती थी, धान की रोपायी में भी, खेतों में कजरी गायी जाती थी। अब भी सावन आता होगा, बारिश में डूबा एक आँगन होगा, काग़ज़ की एक नाव पड़ी होगी, वहीं कहीं मेरा बचपन होगा। सारे नाव लौट आते हैं, सावन की इन रातों में, जिनको कभी बहा आया था, बचपन की बरसातों में…