
About the Book
दोस्त मज़ाक़िया तौर से पूछते हैं,
ये जो तुम काग़ज़ काले करते हो,
ये कौन से ख़ज़ाने की गुल्लक है,
जिसे तुम हफ़्ते दर हफ़्ते भरते हो?
मैं भी सोच में पड़ जाता हूँ,
कि ये कैसा अजब जुनून है?
बेवजह लिखते चले जाना,
यह कौन-सा खास सुकून है?
फिर लगता है कि…
कोई पूरी ताक़त लगाने पर भी,
हारकर कोने में कहीं बैठा होगा।
क़िस्मत से जिसको जीत मिली,
वो अपने दंभ में कहीं ऐंठा होगा।
कहीं कोई छोटी-सी बात पर,
अपनों से देर तलक रूठा होगा।
जुड़ने की कोई सूरत नहीं होगी, कोई रिश्ता इस कदर टूटा होगा। कहीं किसी का कोई अपना, बिन बताए छोड़ गया होगा। ख़ुशी हो या ग़म हर मौसम, वो बरबस याद आ रहा होगा। जज़्बातों की इस बूँदाबाँदी से, जब मन का कुआँ भर जाएगा। कितनी बातें कहने को होंगी, पर वो कुछ कह नहीं पाएगा, तब शायद मेरी कविताएँ… किसी अवसाद के अंधेरे में, रोशनी बन रास्ता दिखाएँगी। किसी टूटे मन को गले लगा, ठीक होने का भरोसा दिलाएँगी। किसी ज़िद्दी संघर्ष में पराजित, इंसान की पीठ थपथपाएँगी। हमारी बेज़ुबान भावनाओं को, अपने शब्दों के बोल दिलाएँगी। खामोशी से लिखते चले जाना, ये भी एक अलग-सा जुनून है, मेरा लिखा किसी को सुकून देगा, लेखक का बस यही सुकून है…! निजी दर्द ऐसी कई लड़ाइयाँ होती हैं, जो अकेले लड़ता है इंसान, भीतर से टूटा, उदास, खाली, बाहर हँसता रहता है इंसान… हालात, लोग या घटनाएँ, हर कहानी में एक विलेन है, हम सबके सीने पर, किसी पत्थर का भारी वजन है… अपने कई निजी दर्द, वो जमाने से छुपाये रहता है, “सब ठीक है” कहकर खुद को, कई सवालों से बचाये रहता है… पर कई दफ़ा थककर, चाहता है, कि सारी ज़िद छोड़ दे और हार जाए, रोने के लिए अब एकांत न ढूँढे, मुस्कराते चेहरे का नकाब उतार पाए… दर्द उड़ेल दे सबके सामने, कह दे कि वो कितना उदास है, भीतर सब खोखला है, ये झूठी मुस्कान तो बकवास है… लेकिन तभी उमड़ आती है, उसके आत्मसम्मान की लहर, क्या हारने के लिए शुरू किया था, मैंने ये तन्हा अकेला सफ़र… और फिर एकांत में रोकर वो, आँसुओं को ताकत में गढ़ता है, चेहरे पर मुस्कान का लेप लगाकर, सफ़र में फिर से चल पड़ता है, ऐसे न जाने कई होंगे, आपके साथ इस सफ़र में, आप हँस न दे कहीं उनपर, कुछ नहीं कहते हैं इसी डर में… दीदी तुम मुझसे पहले इस दुनिया में आयी, ताकि ये दुनिया मेरे रहने लायक बना सको, “आ जाओ, मत डरो, मैं हूँ न ” तुम्हारे इसी कहे, तुम्हारे पीठ पीछे, मैं चला आया। एक ही माँ के जाये, हम दोनों बचपन से कितने अलग थे, जब मैं स्लेट पर गुणा भाग सीख रहा था, तुम एक खूबसूरत-सा चित्र बना रही थी, जब मैं कक्षा में प्रथम आने की होड़ में था, तुम साग खोट रही थी, कज़री गा रही थी। इन भिन्नताओं के बावजूद हम दोनों, हमेशा पूरक थे एक दूसरे के, तुम्हारे गीत गवनही मेरे लिए धूप में छाया थी, और मेरा बेहतर करना, मुझसे ज्यादा तुम्हारे लिए गर्व। कभी-कभी लगता है, मैं खुद से ज्यादा तुम्हारे लिए पढ़ता रहा, क्यूंकि तुम्हें उम्मीद थी, मैं बड़ा आदमी बनकर हमारी तकदीर बदल दूंगा, इसी दौड़ में हम दोनों अलग हो गए, तुम्हारी विदाई से ज़्यादा तीखा दर्द, मेरी स्मृतियों में आज भी कहीं नहीं है। तुमसे दूर होने ने मुझे जितना असहाय किया, उतना ही रूखा भी बनाया, वो पहला फोन नंबर जो मुझे मुँह-ज़बानी याद था, वह तुम्हारा था क्यूंकि वही मेरी लाइफ लाइन थी। मुझसे दूर अपनी गृहस्थी में उलझी तुमने, मुझे कभी अकेले नहीं छोड़ा, मेरी सारी उलझने सुलझाती रहीं, विवाह के वक्त सिन्दूर भरते मैंने, जिम्मेदारी से डरकर तुम्हारी तरफ देखा था, “डरो मत, मैं हूँ ” तुम्हारी बोलती आँखों ने, मुझे तब भी सम्बल दिया था। मुझे जो कुछ हासिल हुआ वो सिर्फ तुमसे साझा किया, लगा मेरा सारा हासिल तुम्हारा ही तो है, अनुभव के चकत्तों ने मेरा चेहरा भी रूखा कर दिया है, अब बचपन सिर्फ तभी मुझमें लौटता है, जब मैं तुम्हारे पास होता हूँ, अपने-अपने जीवन की बैलगाड़ी धकियाते, हम दोनों कितने दूर हो गए, दीदी! तुम मुझे बड़ा आदमी तो बनाना चाहती थी, पर उसकी कीमत नहीं जानती थी, तुमसे दूर इस दुनियाबी लड़ाई में, मुझे बहुत अकेलापन लगता है, बस हर साल जब तुम्हारी राखी मिलती है, तो फिर से तुम्हारे पास होने का एहसास होता है। ईश्वर तुम्हें इतनी शक्ति और सामर्थ्य दें, आजीवन मेरे कानों में तुम्हारी आवाज़ गूंजती रहे कि “डरो मत, मैं हूँ! ” और मुझे जीवन भर लगता रहे, भला मुझे क्यों डरना, जब तुम मेरे साथ हो। बढ़ती उम्र यहाँ वहाँ से झाँकते, सफ़ेद बालों को सहलाइये। चेहरे पर दिखती, झुर्रियों को जरा दुलारिये। उम्र उन्हीं की बढ़ती है, जो जिन्दा हैं, बढ़ती उम्र को सप्रेम स्वीकारिये। ये घने बाल, ये चमकती त्वचा, ये सब एक दिन बदल जाएगा। बसंत को कब तक पकड़ के रखेंगे? हर मौसम एक दिन ढल जाएगा। शैम्पू, क्रीम और तेल का, चाहे कितना ही लेन-देन करिए। मशीन वक्त के साथ पुरानी ही होगी, चाहे कितना ही धोइए, पोंछिए, मेंटेन करिए। साँसों पर रुकी तोंद और लोगों की बातों का, ज्यादा लोड मत लीजिए। सीसे में दिखते अस्तित्व को गले से लगाइए, सुंदरता को भीतर से महसूस कीजिए। क्या खाना, क्या सोचना और कैसे रहना है, सोशल मीडिया पर हज़ारों उपदेश पड़े हैं। करेले का जूस और कपालभाति में मत डुबिए, यार, जिंदगी में और भी तो कई कलेश पड़े हैं। हिसाब से खाइए, हिसाब से टहलिए, पर दोस्तों संग बेहिसाब गप्प करिये। जो जीवन का अंतिम अटल सत्य है, उस मृत्यु से इतना भी मत डरिये। अब बड़े हो रहे हो तुम जिन चीज़ों पर कभी मन विह्वल हो उठता था, वही चीज़ें जब मन को न लुभा पाए, फ्राइडे रात दोस्तों संग तफ़रीह की बजाय, अकेले बिस्तर पर गहरी-सी नींद आ जाए, तो समझना कि अब बड़े हो रहे हो, तुम… जिन मनमुटावों पर कभी कट मरते थे, उन पर भी लोगों को मुआफ करने लगो, दूसरों की गलतियाँ देखने की बजाय, जब उन्हें नज़रअंदाज़ करने लगो, तो समझना कि अब बड़े हो रहे हो, तुम… अलग विचारों को ध्यान से सुन पाओ, मतभेद हो पर मनभेद न आने पाए, प्रेम में समर्पण और सहजता बढ़े, ज़बरदस्ती की मात्रा घटती जाए, तो समझना कि अब बड़े हो रहे हो, तुम… भावनाओं के साथ उठती हर तरंग, दिल सहजता से स्वीकार करने लगे, कई विवादों पर बहस की बजाय, मन ख़ामोशी से इज़हार करने लगे, तो समझना कि अब बड़े हो रहे हो, तुम… तुम्हारी खुशियाँ लोगों और चीज़ों की बजाय, जब अंतर्मन की अवस्था पर निर्भर हो, मन में हर बात के लिए समता का बोध हो, न किसी बात की ज्यादा ख़ुशी हो ना डर हो, तो समझना कि अब बड़े हो रहे हो, तुम…! मन के भीतर जहाँ किसी और का प्रवेश निषेध हो, एक ऐसी जगह रहती है मन के भीतर, हम सब अक्सर वहीं चले जाते हैं, दुःख, डर और रिश्तों से थक-हारकर… रीता हुआ वक्त बिखरा-सा मिलता है, रेत के ढ़ूहे-सा नीरव और निस्तब्ध, किसी बहस में दूसरों से न कह पाए, मिलते हैं खुद से कहे-कई अनाथ शब्द… मुझे ही निगाहों की तराज़ू से तौलते, उस घर में भेद के कई कोने मिलते हैं, काँच के कंचो-सी दो आँखें दिखती हैं, आँखों पर चिपके जादू टोने मिलते हैं… सब ठीक हो जाने की उम्मीद भरे, दिखता है सुख का सुनहला रूप, वो सुख जो चिहुंककर पीछे हट गए, जैसे मार्च की मुलायम सफ़ेद धूप… पुरानी डायरी के जर्द पन्नों के बीच, साँस लेती स्मृतियाँ आती हैं नज़र, फटी पुरानी कई चिट्ठियाँ दिखती हैं, जिन्हें पढ़ता हूँ मैं चिप्पियाँ जोड़कर… रेगिस्तान से नीरस रिश्ते दिखते हैं, जिन्हें मैं हर रोज़ बचाकर लांघता हूँ, जब एक छोटे से घेरे से निकलता हूँ, खुद को एक बड़े घेरे में फँसा पाता हूँ… जिस सिरहाने पीड़ा ने पैर फैलाये थे, वहाँ आँसूओं के बासी अवशेष दिखते हैं, जिन्हें दुनिया से छुपाए जीता रहा, भीतर जाने पर वो दर्द विशेष दिखते हैं… समय की हवा ने सोखकर, ज़्यादातर दुखों को भर दिया, लेकिन आँसूओं ने पानी दे-देकर, कुछेक दुखों को अमर कर दिया… मैं दिल के झरोखे से बाहर देखता हूँ, ट्रेन खिड़की के दृश्य जैसे भाग रहे हैं लोग, मैं भीतर खामोशी ओढ़े कब तक बैठूँगा, चलूँ, बाहर मेरा रास्ता ताक रहे हैं लोग…! ग़लतियाँ उम्र के हर नए पड़ाव पर मैं, नयी ग़लतियों को आधार देता हूँ, हर बार एक नई गलती करते हुए, पुरानी ग़लतियों को स्वीकार लेता हूँ। एक उम्र थी कि मैं सोचा करता था, क्लास में फ़र्स्ट आना ही सब कुछ है, जो पीछे बैठे सिगरेट के छल्ले बना रहे है, उनका जीवन बेमतलब और तुच्छ है। उन दिनों जो क्लास के गधे होते थे, आज अपना business चला रहे हैं और तुर्रामखाँ corporate गधे बनकर, quarterly टार्गेट का वज़न उठा रहे हैं। मुझे तब पता चला, जीवन में स्पष्टता ज़रूरी है, क्लास में फ़र्स्ट आना नहीं, चीजों की समझ होनी चाहिए, उन्हें घोट कर पी जाना नहीं। फिर एक उम्र आयी कि लगा, वो जीना भी क्या जीना, जिसमें रत्ती भर रिस्क न हो, वो जवानी भी कैसी जवानी जिसमें क्रांतिकारी इश्क़ न हो। संग जीने-मरने के जिससे वादे किए, वो किसी और के साथ हो चली, उस उम्र के पायदान से भी आगे बढ़े, हम भी ज़िंदा रहे वो भी कहाँ मरी! समझ आया कि उम्र की धारा में, हर आकर्षण बह जाता है, वक्त की भट्टी पर तपकर, सच्चा प्रेम सामने आता है। फिर लगा, सारी ख़ुशियाँ तो पैसे से हैं, चलें जैसे तैसे पैसे कमाएँ, ग़लत-सही, पसंद-नापसंद, ये बेफजूल बातें भाड़ में जाएँ! कई ऐसे दौलतमंद दिखे, जो शक्लों-सूरत से खुश नहीं थे, जिनकी जेबें खाली थी, परेशान थे पर मायूस नहीं थे। समझ आया कि पैसा ख़ुशी नहीं, सिर्फ ख़ुश होने का साधन देगा, हम ख़ुश रहेंगे या नहीं रहेंगे, यह निर्णय हमारा मन लेगा। उम्र की हर सीढ़ी पर पहुँचकर, अपनी समझ पर मैं खूब शर्माया, मैं हमेशा कुछ और सोचता रहा, अनुभव किया तो कुछ और ही पाया। ज़िंदगी के अनुभव ने जो सिखाया, उसे मैं बारहा याद करता हूँ, पुरानी ग़लतियों पर हँसता हूँ, और नयी ग़लतियाँ इरशाद करता हूँ…! ख़ुशदिल बड़े क़िस्मत वाले हैं वे लोग, जिनकी ख़ुशी ज़रा सस्ती है, छोटी-सी बात ही क्यूँ न हो, हँसी उनके होंठों पर बसती है। वे पुरानी तस्वीरें स्क्रॉल करते, घंटों बैठकर मुस्करा सकते हैं, जब चाहें आज से ब्रेक लेकर, पुराने दिनों में चले जा सकते हैं। दिवाली, ईद, क्रिसमस, लोहड़ी, हर किसी का त्योहार मनाते हैं, सफलता भले पड़ोसी की हो, ख़ुशी से वे फूले नहीं समाते हैं। अजनबियों से दोस्तों की तरह, दिल खोलकर घंटों बतियाते हैं, खुली किताब है उनकी ज़िंदगी, मन का कोई राज़ नहीं छुपाते है। गुज़रे वक्त की अच्छी यादों, और आज में मस्त रहते हैं, कल जो होगा देखा जाएगा, बड़े फ़क्र से कहा कहते हैं। ख़ुशी तो हर किसी को चाहिए, पर खुश रहना सबको आता नहीं, ईश्वर ने जो स्वभाव दे दिया है, लाख बदलें पर कभी जाता नहीं… संवेदनशील उनके सीने में भावनाओं का समंदर, और आँखों में आँसूओं के झील होते हैं, हर कोई मजबूत मिट्टी का नहीं होता, कुछ लोग बड़े संवेदनशील होते हैं। जब आप शादियों में नाचते रहे, वे लाइट उठाए बच्चों को देखते रहे, आपके लिए सिर्फ आपका दर्द था, वे दूसरों का दर्द भी दिल में सेंकते रहे। दिल की हर बात ज़बान से, आप भले बेझिझक बोल देते हैं, सामने वाला भला क्या सोचेगा, आप इसका कहाँ लोड लेते हैं। पर उनका मन तो कांच-सा है, ज़रा-सी उपेक्षा से चटक जाता है, आपकी बदली नज़र दिखती है, उनका आहत मन कह नहीं पाता है। दौलतों-हुकूमत के सारे दाँव-पेंच, आपकी दुनिया के बनाए रोग हैं, संगीत, कला और किताबों में डूबे, वे तो एक दूसरी दुनिया के लोग हैं। अपने ओहदे के खातिर, उन्हें बौना मत बनाइए, आपका खेल वे क्या जाने, उन्हें खिलौना मत बनाइए। वरना वे खुद में ही सिमटकर, इस दुनिया से गुजर जाएँगे, सारी कलाकारियां सीने में लिए, वे बेआवाज़ ही बिखर जाएँगे, गलाकाट स्पर्धा की आपकी दुनिया में, उनका अस्तित्व भी स्वीकार कीजिए, वो चिल्लाते नहीं मगर गाते सुर में हैं, मंच पर उनका भी एतबार कीजिए। धर्मवीर भारती प्रयाग की मिट्टी सँवारती रही, हिन्दी साहित्य की तक़दीर, जिससे महादेवी और निराला, उसी माटी से उपजे थे धर्मवीर। देह की सीमा से परे प्रेम का, जिसे मालूम था सही पता, सुधा के लिए तभी गढ़ पाया, एक चंदर, गुनाहों का देवता। मध्यवर्ग की हताशा का जिसे, माणिक मुल्ला-सा एहसास था, सूरज का सातवाँ घोड़ा लाएगा, अच्छे वक्त का भी विश्वास था। गांधारी और अश्वत्थामा के ज़रिये, महाभारत का अंत दिखाया जिसने, हिन्दी नाट्यमंच पर अँधा युग जैसा, एक प्रज्वलित दीप जलाया उसने। राधा-कृष्ण के अमर प्रेम की, साहित्य में जब भी बातें होंगी, कनुप्रिया के मधुरिम छंदों की, मंचों से रिमझिम बरसातें होंगी। नैनीताल से कौसानी का सफ़र, मन के ठेले पर हिमालय लिये, ताउम्र विस्मित रहा उन पलों पर, जो उसने पहाड़ों की गोद में जिये। पत्रिकाओं की लंबी सूची में, धर्मयुग का अलग मान रहेगा, नये कलाकार जन्मे जहाँ से, यह ऐसा नूतन स्थान रहेगा। प्रेम और पीड़ा के कपूर से जो, उतार ले साहित्य की आरती, कभी कदा मिलता है हिन्दी को, ऐसा बहुमुखी धर्मवीर भारती। श्वेताभ गँगवार कहते हैं कि बेटा, हाड़ तोड़ काम करो काम, सोचने से घंटा नहीं उखाड़ पाओगे। मैं सोचता हूँ कि जब, हम और हमारी परिस्थितियाँ अलग हैं, हम सब अपनी-अपनी दौड़ लगाएँगे, एक ही ब्रांड के मोटिवेशनल जूते, सबके पैरों को कहाँ फ़िट आएँगे? तुमसे बेहतर भला तुम्हें कौन जानेगा, ज्ञान सबसे लो पर तुम अपने गुरु बनो, अपने माफिक, अपने लिए, अपने मन में, तुम अपना मोटिवेशनल चैनल शुरू करो…! बाभन टोली हम बाभन टोली के लड़के, पूरे गाँव-जमात के लिए, बड़े घर के लड़के। हमसे उम्मीद थी, विनीत और संस्कारी होने की, मांस, मदिरा से कोसों दूर, शुद्ध शाकाहारी होने की। हमसे उम्मीद थी कि मुँह पर गाली कभी न आये, छोटों के मुँह न लगें, चुप-चाप सबकुछ सह जाएँ। “फलाने के लड़के” कहकर बुलाये गए, हमारे पूर्वजों से हमारी पहचान थी, सिर्फ दादा, पिता, चाचा की बातें सुनी, बाकियों की बातें कानों को अनजान थी। हमने बड़ों का विरोध नहीं किया, गर्दन झुकाये बुत से प्रतीत हुए, संस्कारी होने की एक्टिंग करते, सचमुच संस्कारी और विनीत हुए। प्रेम भी कभी ठीक से न हुआ, प्रेम से पूर्व जाति स्थान लेती रही, बड़े घरों में प्रेम-सी छोटी बातें, भला कहाँ शोभा देती रही? पर गाय के चोकर से लेकर, दादा-दादी की दवाई में, पिता को परेशान होते देखा, झूठी शान की बनाई में। बाभन टोली से बाहर निकले, तो मामला बड़ा साफ़ था, हमें कहीं कोई तरजीह नहीं थी, आरक्षण भी हमारे खिलाफ था। हिंदी की कोमल कविताएँ भी, गणित की किताबों में छुपाकर पढ़ते रहे, सिर्फ इज़्ज़त से काम नहीं चलता, अपनी विद्या को धन के लिए गढ़ते रहे। मांस मदिरा से दूर होने पर, हम मखौल का हिस्सा भी हुए, परम्पराएँ, जिम्मेदारियाँ ढोते, हम रूढ़ियों का किस्सा भी हुए। हम बाभन टोली के लड़के हैं, अपने संस्कार निभाते जाएँगे, खामोश सह लेंगे पर लड़ेंगे नहीं, खानदान का नाम नहीं डुबाएँगे…! गाँव-देहात की लड़कियाँ कोयल की आवाज़ की नकल करती हैं, पीपल पर हर शनिवार धागा लगाती हैं, हर कुत्ते बिल्ली को एक नाम देती हैं, सबको परिवार का सदस्य बताती हैं। स्कूल जाने से पहले गाय की नाद में, डाल आती हैं रसोई की पहली रोटी, स्कूल से लौट उसी गाय को गले लगा, पूछती हैं दिन भर की ख़बर बड़ी-छोटी। जब इनकी विदाई का वक्त आया, इन सबका इतना बुरा था हाल, डोली के साथ पिता ने गाय को, भेज दिया इनके ससुराल। वो पेड़-पौधों से, पशु-पक्षियों से, इंसानी लहज़े में ही बतियाती हैं, मेरे गाँव-देहात की लड़कियाँ, हर बात पर संवेदनाएँ झलकाती हैं। दौड़ती हैं स्कूल की घंटी सुनकर, साथ लेकर सरिता, पूजा की टोली, कुछ सुख-दुख, कुछ मेरी-तुम्हारी, और एड़ियों से उड़ाती हँसी-ठिठोली। माटसाब से छुट्टी लेकर क्लास से, निकल आती हैं पानी पीने के बहाने, बाहर हवा खाती और गप्पें लड़ाती, गणित के सूत्रों का सरदर्द भुलाने। छुट्टियों के वक़्त हरश्रृंगार का, एक फूल अपने बालों में लगाकर, खिलखिलाते हुए निकलती हैं, सहेलियों से चटर-पटर बतियाकर। सहेली की विदाई के वक्त, ये हिचकियों संग आँसू बहाती हैं, मेरे गाँव-देहात की लड़कियाँ, हर बात पर संवेदनाएँ झलकाती हैं। घर पहुँचते ही छत पर पसारे, कपड़े उठाती और समेटती हैं, पिता के कपड़ों को छूते हुए, ज्यादा दुलारती और सहेजती हैं। माँ की आटा गूँथी उँगलियाँ में, गुलाबी नेलपॉलिश लगाती हैं, माँ के आगे आईना लिए बैठकर, नये फ़ैशन की चोटियाँ कढ़वाती हैं। रात माँ की हड्डियों में तेल लगाते, मौसी-नानी की तबियत पूछती हैं, पसीने से तरबतर मुस्कान लिए, तवे पर गर्मागर्म रोटियाँ सेंकती हैं। अपने पिता को खाना परोसते, चार रोटियाँ देकर दो गिनवाती हैं, मेरे गाँव-देहात की लड़कियाँ, हर बात पर संवेदनाएँ झलकाती हैं। माँ बूढ़ी हो रही है अबकी मिला हूँ माँ से, मैं वर्षों के अंतराल पर, ध्यान जाता है बूढ़ी माँ, और उसके सफ़ेद बाल पर। आज-कल की ढेरों बातें, वह अक्सर भूल जाती है, मेरे बचपन की पुरानी बातें, वह कई दफा दुहराती है। थोड़ा झुककर चलती है, थोड़ा-सा लड़खड़ाती है, रात में देर तक जागती है, दिन में अक्सर सो जाती है। जिस माँ को छोड़कर गया था, लौटकर उसे क्यों नहीं पाता हूँ, कई दफा माँ की बातों पर भी, मैं अनमने खीझ से भर आता हूँ। स्मृतियों के पंख लगाए तब मैं, पुरानी माँ से मिलने जाता हूँ। दिखती हैं माँ मुझे गोद में लिए-लिए, सारे घर का जिम्मा एक पैर पर उठाते। आँगन के सिलबट्टे पर मसाला पीसते, मेरे पीछे दूध का गिलास लिए भागते, जीवन की कोरी स्लेट पर रात को, मुझे सही गलत के क ख ग सिखाते। बल बुद्धि विवेक का क्षीण होना, हम सबकी उम्र का किस्सा है, मेरे पास आज जो भी समझ है, वो भी तो मेरी माँ का हिस्सा है। माँ का बूढ़ा होते जाना, नहीं है एक दिन का सिला, गलती मेरी थी जो मैं उससे, वर्षों के अंतराल पर मिला। अब रोज वीडियो कॉल पर, मैं उसे ग़ौर से देखा करता हूँ, उसकी सारी बातें सुनता हूँ, चाहे गलत हों या सही। उसे देखते अंतर्मन में एक भय कचोटता है, कल मेरे फोन में माँ का सिर्फ नंबर रहेगा, शायद माँ नहीं…! प्रेम तुम उससे जब भी गले मिलना, ख़ुद को पीछे छोड़कर मिलना, उसे लगे कि तुम्हारा शरीर नहीं, बल्कि आत्मा लिपटी है उससे। उसका हाथ मज़बूती से पकड़ना, छुड़ाने की जल्दबाजी में नहीं, उसकी हथेली को लगे कि तुम्हारी, हथेली पास रहेगी हर सुख-दुख में। उसका माथा आँखें मूँदकर चूमना, मत देखना देह को लालच से, उसके माथे को लगे कि ये दो होंठ, ताउम्र नेह लुटाने को तैयार रहेंगे। उसकी बातें सुनना तो गौर से सुनना, अपनी बताने की हड़बड़ाहट में नहीं, बिना जज़ किए यूँ सुनना कि उसे लगे, तुम सहेज लोगे उसकी सारी परेशानियाँ। किसी के साथ प्रेम में पूरी तरह होना, आधा-आधा कहीं भी न रह पाओगे, तुम्हें शायद अपने फ़रेब पर भरोसा हो, पर आँखों के ज़रिये सच कह ही जाओगे। वह लड़का जो मुझे ब्याह लाया था कभी ऑफिस की फ़ाइलों में, कभी हेल्थ इंश्योरेंस के ज़िक्र में, घिरा रहता है अब वह अक्सर, सब कुछ सँभालने की फ़िक्र में। अब रीयलिस्टिक-सी बातें करता है, जिसने चाँद का ख़्वाब दिखाया था, नहीं मिलता वह केयरफ़्री-सा लड़का, जो मुझे कभी ब्याहकर लाया था। मेरी बेफ़ुज़ूल बातें रात भर सुनता था, वह अब मिनटों में खर्राटे भरता है, ज़रा-सा नाराज़गी पर कार्ड देने वाला, अब एक अदद सॉरी भी नहीं कहता है। “पैसे और टिकट” सहेजकर देता है, जिसने बिछड़ते गले से लगाया था, नहीं मिलता वह इमोशनल-सा लड़का, जो मुझे कभी ब्याहकर लाया था। मेरे साथ जो फ़िल्में देखा करता था, अब थियेटर जाने का वक्त नहीं रहता, मैं तो अब भी गपशप कर लेती हूँ, वह सुन लेता है पर कुछ नहीं कहता। मुझे दुनियादारी की बातें समझाता है, जिस पर कभी फ़िल्मी नशा छाया था, नहीं मिलता वह स्टाइलिश-सा लड़का, जो मुझे कभी ब्याहकर लाया था। जेब ख़र्च से बचाकर तोहफ़ा लाता था, अब ज़रूरी तारीखें भूलता रहता है, इम्प्रेस करने को शायरी सुनाता था, अब ईमेल्स के बीच झूलता रहता है। कार चलाते ट्रैफिक पर झल्लाता है, जिसने हैंडिल छोड़ बाइक चलाया था, नहीं मिलता मुझे वो डेयरिंग-सा लड़का, जो मुझे कभी ब्याहकर लाया था। इस नये वाले लड़के में कभी कभार, वो पुराना वाला भी नज़र आता है, जब वो किसी क्रिकेट मैच के लिए, रिमोट लिए टीवी से चिपक जाता है। सरप्राइज़ देने के तरीक़े ईजाद करता है, बिन बताये मेरे लिये गुलदस्ता भेजकर, इश्क़ और फ़िक्र के नये रंग दिखाता है, मेरी ग़ैरहज़िरी में मेरी चीज़ें सहेजकर। दोनों का अन्दाज़-ए-इश्क़ ज़ुदा है, बस नया वाला कुछ जताता नहीं है, नये वाले की आदत भले डाल रही हूँ, पुराना वाला दिमाग़ से जाता नहीं है।