“शांति मन के भीतर होती है और हम उसे बाहर ढूंढते रहते हैं।” ओशो ने यह बात भी इसी जबलपुर में ही कभी सोची होगी। और आज जबलपुर की इस पुरानी हो चली छत पर खड़ा, मैं भी यही सोच रहा हूँ।
ऑफिस के चमचमाते चैम्बर में लैपटॉप को घूरते, चारों तरफ बिखरी ख़ामोशी में भी मन कितना अशांत रहता था। और जिस शांति को मैं सालों से ढूंढ रहा था, वह मिली भी तो कहाँ? आज, चांदनी रात में अकेले खड़े इस छत पर। जबकि मेरे सामने शादी का कान फाड़ू शोरगुल चल रहा है।
मैंने नज़रें नीचे घुमाईं तो एक वृत्त नज़र आया। उम्र के पड़ावों को परिधि पर छूता। हम सब की जिंदगी का सर्किल।
गोद की उम्र के बच्चों को, माँ-बाप की पसंद से पहने खूबसूरत कपड़ों के बोझ तले दबे और दूध की बोतल मुँह में घुसेड़े, बिलखते देख रहा हूँ। माता-पिता उनके कपड़े पर गिरा खाना और दूध आहिस्ता से झाड़कर उन्हें सलीके का बनाने की कोशिश कर रहे थे। शायद बच्चे भी मन ही मन सोच रहे होंगे कि जल्द ही स्कूल जाने की उम्र के हो जाए तो वे माँ-बाप के चंगुल से दूर, अपनी मर्ज़ी से खा-पी और पहन-ओढ़ सकेंगे।
स्कूल की उम्र के बच्चों को भी माँ-बाप से छुपकर मुँह में आइसक्रीम की लीपा-पोती करते देख रहा था। अगर सोचें कि उन बच्चों के मज़े हैं तो यह भी गलत होगा। मन उनका भी शांत नहीं था। उनकी नज़रें भी कॉलेज की उम्र के उन भैया और दीदियों पर टिकी थीं, जो डीजे की लगाई धुनों पर धरती फाड़ अंदाज़ में थरथराते हुए मचल रहे थे।
‘सैयां जी से आज मैंने… ब्रेकअप कर लिया’ गाने पर उनका अंदाज़-ए-डांस देखकर एकबारगी तो लगेगा जैसे प्रलय का समय नज़दीक है और ये आनंदप्रद अवस्था में शिव तांडव कर रहे हैं। गौर से देखने पर समझ आया कि यह सारी मेहनत सिर्फ विपरीत लिंग के साथ नैन-मटक्का करने का जरिया मात्र थी। इन्हें भी किसी के साथ जीवन भर के लिए बंध जाने की जल्दी है। वहीं स्टेज के पास शादी-शुदा मर्दों को राजनीति या क्रिकेट पर चर्चा करते और महिलाओं को एक हाथ से साड़ी तो दूसरे से फ़ोन संभालते देख रहा था। जैसे फ़ोन और साड़ी नहीं, बल्कि गुज़रती जवानी और आने वाला बुढ़ापा एक साथ संभाल रही हों। डीजे की आवाज़ और स्टेज की चमचमाहट से दूर एक कोने में, कुछ बुज़ुर्गों को भी देख रहा था। बीच-बीच में उनके बच्चे उन्हें कुछ खाने को भी दे रहे थे और उनके कपड़ों पर गिरा खाना भी आहिस्ता से झाड़कर, थोड़ा मुँह बनाते हुए उन्हें सलीके का बनाने की कोशिश कर रहे थे। मुझे गणित वाले मास्साब का पढ़ाया वृत्त (सर्कल) याद आया। परिमाप, क्षेत्रफल, सब बता दिया था उन्होंने। बस यह नहीं बताया था कि जिन्दगी भी बिल्कुल ऐसी ही है। नीचे के तमाम शोर-शराबे के बावजूद, छत पर खड़ा मैं, बिल्कुल शांत मन से सबकुछ देख रहा था। छत पर अनवर और सुलभ के आने का मुझे इंतज़ार था। नज़रें दूर ‘नेपियर टाउन’ की चमचमाती बिजली के खम्भों के बीच शकुंतला के बाड़े पर पड़ीं। ‘आज फिर से वहीं खड़ा हूँ, जहाँ से शुरू किया था। बस ठीक से सर्कल ड्रा करना न तब आया था और न आज। शायद इसीलिए सिरे ठीक से नहीं मिल रहे। वैसे भी, कहने को जिंदगी गोल है, लेकिन इसमें इतने ट्विस्ट और टर्न आते हैं कि इस सीधे-साधे सर्कल को स्पाइरल बनाकर छोड़ते हैं।’ मैं मन ही मन मुस्करा पड़ा था। मैं भीड़ का हिस्सा होते हुए भी, भीड़ से अलग हो गया था। पुरानी यादों का सैलाब भीतर उमड़-घुमड़ रहा था। फिर भी मन आज इतना शांत था, जैसे बारिश के बाद सड़क के किसी गड्ढे में इकट्ठे पानी के भीतर चाँद का प्रतिबिम्ब। “शरद! अमां किधर छुपे बैठे हो, यार?” पहली आवाज़ अनवर की थी। “साले, जिंदा है कि मर गया?” दूसरी आवाज़ सुलभ की। गड्ढे के पानी में दोनों ने छपाक-छपाक की आवाज़ करते पैर रख दिए थे और चाँद हिल गया था। इत्तेफाकन, हम तीनों ठीक तीन साल बाद मिल रहे थे। ++++++++++++++++++++++++++ पूर्णिमा, तुम्हें प्रिय नहीं कहना चाहता क्योंकि यह बड़ा घिसा-पिटा-सा शब्द है और हम दोनों का रिश्ता तो बिल्कुल भी वैसा नहीं था। पर जिंदगी कई बार बड़ी बोरिंग-सी लगती है। दो बड़े शहरों के बीच के किसी सुनसान हाईवे के तरह। कहाँ से शुरू होगी और कहाँ ख़त्म होगी, पहले से ही पता है। तुम मेरी जिंदगी में वह सारा घिसा-पिटापन मिटाने आयी थी और आज तुम ही नहीं हो। तुम्हारे बिना जबलपुर उदास लगता है। तुमसे जुदा हो जाने की यादें मेरी आत्मा पर एक हूक़ सी उठती है। यहाँ आने से पहले नेपियर रोड पर चल रहा था। जब तुम्हारा हाथ मेरे हाथों में होता था तो सड़क खूब बातें करती थी। आज सड़क बेजुबान थी। ख़ामोशी मुझे डराती है। कहीं सड़क ने पूछ लिया कि पूर्णिमा को नहीं लाए। मेरे पास कोई जवाब नहीं होगा। इस सड़क से चलकर मैं भेड़ाघाट आ गया हूँ। भेड़ाघाट के उसी संगमरमर के पत्थर पर बैठा हूँ, जहाँ तुम मुझे हमेशा बैठने को कहती थी। वही नीरवता, वही ख़ामोशी, वही नर्मदा का पानी, वही तराशा सफ़ेद पत्थर और वही चांदनी रात। तुम्हें छोड़कर सब कुछ वही है। ‘हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफ़िर की तरह सिर्फ एक बार मुलाक़ात का मौका दे दे..!’ मैं गुलाम अली साहब की इस ग़ज़ल को लूप में कई बार सुन रहा हूँ। जबकि मुझे पता है कि तुम नहीं आओगी। अब भी यहाँ कुछ प्रेमी जोड़े एक-दूसरे का हाथ थामे बैठे दिखते हैं। अच्छा है, हमने जो किया वह अब तक ऑउटडेटेड नहीं हुआ है। गाना.कॉम ने मेरे मूड को भांप लिया है। इसीलिए तो गुलज़ार की एक नज़्म चला दी है। ‘दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन…’ एक नज़्म नश्तर की तरह मेरे मन में उतरती है। इस ग़ज़ल को सुनते लग रहा है, जैसे मैं ध्यान में हूँ। सारी थकान मिटती जा रही है। मैंने इस संगमरमर को उँगलियों से छुआ। तुम्हारे तलवों की छुअन को महसूस कर रहा था। उंगलियां फिसल गयीं। जैसे तुम फिसल गयी थी, एक तेज़ लहर ने मछली को उठाकर नर्मदा से मेरे पास फेंक दिया है। शाकाहारी आदमी हूँ, मुझे मछली के छूने से भी डर लगता है और इसके मर जाने का भी डर है। इसी उधेड़बुन में था कि दूसरी तेज़ लहर इसे खींच ले गई। मन को संतोष मिला। तुम कहती थी न कि कई बार हमें बस धैर्य रखना होता है। खैर, हमने भी तो धैर्य ही रखा था, वक्त ने खेल कर दिया। लहरें शांत हो रही हैं। हर तेज़ लहर शांत हो जाती है। अब मुझे चलना चाहिए। मैने आखिरी बार पत्थर को उँगलियों से महसूस किया। जहाँ हम मिलते थे, वे मेरे लिए तीर्थ है। भला मैं रो कैसे सकता हूँ। मैं खुद को संभाल रहा था। किसी और को हो न हो, गाना.कॉम को ज़रूर मेरी मनोदशा का इल्म था। नहीं होता तो उठते समय यह गाना अपने आप क्यों बज़ उठता। ‘तमन्ना फिर मचल जाए अगर तुम मिलने आ जाओ, यह मौसम ही बदल जाए अगर तुम मिलने आ जाओ…!’ तुम्हारा शरद +++++++++++++++++++++++++++ उम्र बढ़ी तो खेलती कूदती बचपन की जिंदगी में एक नयी चीज़ ने दस्तक दी-फिल्में। वैसे मेरे परिवार में पिताजी ने कुछ इस तरह का माहौल बना रखा था कि फिल्म देखना दूर की बात, यहाँ तक की फिल्मों की बात करना गुनाह-ए-अज़ीम था। लेकिन जहाँ माँ-बाप के संस्कार ख़तम होते हैं वहीँ दोस्तों की सीख शुरू होती है। हमारी पहली मूवी तो मैं कभी नहीं भूल सकता। “भाई, ज्योति सिनेमा में ‘शोले’ फिल्म लगी है, देखने चलें क्या?” क्रिकेट खेलकर लौटते वक्त सुलभ ने सवाल किया। “पता चला तो सबसे ज्यादा तेरे घर पर तेरी पिटाई होगी।” अनवर ने चुटकी ली। “घंटा किसी को पता चलेगा। तेरे भाई के पास फूल प्रूफ आईडिया है।” सुलभ ने हमेशा की तरह कटी पतंग जैसे फेंकना शुरू कर दिया था। “अबे शरद, तू तो ऐसे चुप है, जैसे मैं किसी पॉकेटमारी के प्लान में शामिल होने के लिए कह रहा हूँ।” सुलभ मेरा साथ चाह रहा था। “नहीं यार, पिताजी मानेंगे नहीं।” मैंने अपनी मजबूरी बताई। “मेरी जान, पिताजी से पूछ कौन रहा है! सुलभ जैन नाम है तेरे भाई का, मेरे आइडियाज को हल्के में लो मत।” सुलभ ने कुटिल मुस्कान बिखेर दी। “बोल, वैसे भी बिना बताए तू चुप नहीं रहेगा।” अनवर ने अपने अंदाज़ में सुलभ को ज़लील किया, जिसका सुलभ पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। “अबे यार, तुम लोगों की फटती बहुत है। कभी तुमने देखा है, हमारी क्लास के उन चारों लड़कों को जो सबसे पीछे वाली बेंच पर बैठते हैं। किसी भी पिक्चर का फर्स्ट डे, फर्स्ट शो देखे बिना मानते नहीं।” सुलभ ऐसे मंत्रमुग्ध था, जैसे तुलसीदास जी प्रभु श्रीराम का गुणगान कर रहे हों। “वही ना, जिन्हें शर्मा सर ने चांडाल चौकड़ी के खिताब से नवाजा है।” मुझे उन चारों के क्लास में पीछे बैठकर खिखियाते हुए चेहरे याद आए। “अबे छोड़ न यार, अमिताभ बच्चन क्या गज़ब ढाया है इस सिनेमा में। उस दिन देखा नहीं, वे चारों गब्बर, जय, वीरू और ठाकुर की बातें कर रहे थे। एक से एक मस्त डायलॉग। सुन के मज़ा आ जाएगा, देख लोगे बेटा तो जिन्दगी तर जाएगी।” सुलभ ने चालाक बहेलिए की तरह जाल बिछा दिया था। मैं और अनवर उस जाल की तरफ दाना चुगने बढ़ने लगे थे। मेरे और अनवर की आँखों के सामने बिना देखे ही शोले के दृश्य तैरने लगे। “यार, वैसे अमिताभ बच्चन के पास ताकत बहुत है। मैंने देखा था, विनोद खन्ना की भी तबीयत से कुटाई किया था।” मैं अपना अमिताभ प्रेम छुपा नहीं पाया। “सबसे आगे वाले सीट की टिकट 50 पैसे की होगी। पैसा जुटाना चालू करते हैं।” सुलभ प्लान को अंजाम देने की जल्दी में था। मेरे लिए पिताजी से इतने पैसे निकलवा पाना आसान नहीं था। “पैसे की टेंशन मुझ पर छोड़ो। तुम लोग बस प्लान फाइनल करो। और जायेंगे तो १ रुपये सीट पर, थोड़ा पीछे बैठकर देखेंगे।” हमेशा की तरह अनवर के इतना कहने भर से मेरी और सुलभ की पैसों की समस्या समाप्त हो गयी। “यह ठीक रहेगा। सबसे आगे बैठने पर लगेगा जैसे डाकुओं के घोड़े हमारे ऊपर चढ़े चले आ रहे हैं।” मैंने भी जोक मारकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश की। “अनवर ने पैसे का जिम्मा ले लिया है तो मैं फिर योजना बनाने की जिम्मेदारी लेता हूँ।” सुलभ ने स्वयं काम चुन लिया। “और मैं?” अपनी इज़्ज़त कम होता देख मैं बुदबुदा पड़ा। “भाई, तू अपना पसंदीदा काम करना, लगातार डरते रहना।” अनवर और सुलभ दोनों हंस पड़े। सुलभ जिस ख़ुफ़िया तरीके से योजना बना रहा था मानों पिछले जन्म में कोई बड़ा अय्यार रहा हो। वैसे इस पूरे मिशन में हमारे सबसे बड़े दुश्मन थे शारीरिक शिक्षा वाले मास्साब यानी परिमल सर। कहा जाता है कि शुरुआत में बच्चों की सुताई वे ज़रूरतवश करते थे परन्तु समय के साथ उन्होंने इसे अपनी हॉबी में तब्दील का लिया था। गाहे-बगाहे बच्चों को किसी-न-किसी बहाने सूत देने में उन्हें मोक्ष-सा आनंद मिलता था। स्कूल में परिमल सर के नाम से हम बच्चों की रूह कांप जाया करती थी। “फलां बच्चे को मारते-मारते मार डाला।” जैसी किवदंतियों ने परिमल सर की मार्केट वैल्यू और बढ़ा दी थी। “अबे परिमल सर को पता चल गया तो फिर हमारी खैर नहीं।” मैंने स्कूल से लौटते समय शंका ज़ाहिर की। “अबे नहीं यार, तुम ठहरे लल्लू। तुम लोगों ने ध्यान दिया है कि परिमल सर कभी-कभार देर से क्यों आते हैं?” सुलभ ने कुटिल मुस्कान के साथ पूछा। “नहीं, परिमल सर भी कोई ध्यान देने की चीज़ हैं, उनसे जितना दूर रहें, उतना बेहतर।” मैंने कहा। “क्या पता, अगले हफ्ते बच्चों को किस नयी विधि से सूतना है इसकी जानकारी हासिल करने किसी कसाई के यहाँ जाते होंगे।” अनवर ने मुस्कराते हुए कहा। “हर मंगलवार, परिमल सर नरसिंघ मंदिर जाते हैं। उस मंदिर में सुबह होती है भीड़ और परिमल सर को स्कूल पहुँचते-पहुँचते हो जाती यही देर।” सुलभ आत्ममुग्धता से बता रहा था। “अबे वो कहीं भी जाएं, इससे हमें क्या फर्क पड़ता है।” हम इस जानकारी से उतने प्रभावित नहीं थे। “नहीं समझे, बेटा। इसीलिए टिकट मैंने मंगलवार का किया है। जब तक परिमल सर स्कूल में आएंगे, हम क्लास में घुसकर रट्टा मार रहे होंगे।” सुलभ ने इक्का फेंक दिया था। “क्या दिमाग है यार, तेरा।” मैं और अनवर उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो चुके थे। सोमवार को घर लौटते वक्त हमनें पैसे भी जोड़ लिए। अनवर ने काफी कुछ जुटा रखा था। उसके इस महायज्ञ में मैंने और सुलभ ने भी अपनी बचायी चवन्नियों की आहुति डाल दी। तय हुआ कि स्कूल में आकर बैग रखेंगे और धीरे से निकल जायेंगे। मूवी देखकर लंच तक वापस ताकि परिमल सर के आने से पहले हम कक्षा में दाखिल हो जाएँ। मंगलवार को जब हम स्कूल पहुंचे तो सुलभ ने बाकी बच्चों से नज़र छुपा कर हमें ऐसे देखा जैसे हम तीनों कहीं बम फोड़ने वाले हों। हमनें बैग स्कूल में छोड़ा और एक-एक करके निकल गए। सुलभ, अनवर और फिर आखिर में फट्टू मैं। सुलभ ने टिकट लिया और फिर हम तीनों हॉल में अंदर घुसे। पिक्चर शुरू हुई। उस दिन शोले देखने का जो आनंद था वह मुझे शायद ही कभी मिला होगा। जय, वीरू, गब्बर… वाह। सुलभ ने अगली सीट पर यह कहकर बिठाया था ताकि हमें सबसे ज्यादा दिखाई और सुनाई दे। रामगढ़ जाता कालिया का घोड़ा, कई बार लगा हमें कुचल के चला जाएगा। बसंती के नृत्य पर जब सुलभ ने सीटी बजायी तो हमें उसके इस नए टैलेंट का पता चला। पिक्चर हॉल से बाहर निकलते वक्त मेरा भी सारा डर काफ़ूर हो गया था। मैं और अनवर जय-वीरू की तरह चल रहे थे और सुलभ गब्बर की तरह। हम यूँ खुश थे, मानों परिमल सर ठाकुर हों और हमनें आज उनका हाथ काट दिया हो। भीड़ में छाती चौड़ी करके हम निकल ही रहे थे कि हमें किसी ने रुकने की आवाज़ लगायी। “रामगढ़ में किसकी हिम्मत जो गब्बर को पुकार रहा है, बे।” सुलभ ने मुड़ते हुए कहा। पर यह क्या, अचानक से सुलभ गब्बर की रोबीली आवाज़ में दहाड़ने की बजाय सुरमा भोपाली की आवाज़ में मिमियाने लगा। मैंने और अनवर ने मुड़कर देखा तो पैरों तले ज़मीन खिसक गयी। ठाकुर जैसा ही रौद्र रूप लिए साक्षात् परिमल सर खड़े थे। अगले मिनट उन्होंने जिस तबियत से हम तीनों की धुलाई की कि जनता को बिना टिकट एक और मूवी का एक्शन सीन देखने को मिला। ताबड़-तोड़ लात-घूंसों की बौछार के बीच मैंने बड़ी आस से सुलभ की तरफ देखा। निराशा हाथ लगी जब यह देखा कि उसके बाल परिमल सर अपने हाथ में पकड़कर गोल-गोल घुमाने का प्रयास कर रहे थे। परिमल सर ने उस दिन हरफनमौला की तरह हम तीनों में कोई पक्षपात न करते हुए बराबर हाथ साफ़ किया। वैसे भी हमनें इस गुरिल्ला वार की उम्मीद नहीं की थी। खैर, उसके बाद उन्होंने जो किया वह इस पिटाई से भी खतरनाक था। मास्साब द्वारा अकेले में पिटाई अगर कुआँ है तो पूरे स्कूल के सामने वही पिटाई सागर बन जाती है। हम तीनों का झोंटा पकड़कर हमें स्कूल ले जाया गया। प्रिंसिपल से मास्साब ने गुहार लगायी कि असेम्बली बुलाई जाए और इन तीनों को प्रदर्शित किया जाए, ताकि हम तीनों मिसाल बन सकें। अब मिमियाने से काम नहीं चले वाला था, बल्कि अब घिघियाने की बारी थी। जिसमें सबसे आगे मैं था। परिमल सर तो पत्थर के सनम थे पर मुझे प्रिंसिपल सर से उम्मीद थी। पर वह तो आला दर्जे के खिलाड़ी निकले। उन्होंने जब ऑप्शन दिया कि या तो पिता को बुलाया जाए या फिर असेम्बली में जलालत होगी, मैंने दिल पर पत्थर रखकर असेम्बली वाली बात मान ली। अनवर किसी भी बात के लिए तैयार था। सुलभ पिता को बुलाना चाहता था। उसके लिए स्कूल के बच्चों के सामने ज़लील होना नागवार था। र, मेरा मिमियाना और घिघियाना काम आया और एक-एक करके हम तीनों को एक बेंच पर खड़ा करके पूरे स्कूल को प्रदर्शित किया गया। हम तीनों से समवेत स्वर में कहलवाया गया कि मेरा नाम फलाने है और मैं आज शोले मूवी देखने ज्योति सिनेमा, स्कूल गोल कर के गया था। मैं प्राचार्य जी से प्रार्थना करता हूँ कि मुझे उचित दंड दिया जाए और भारी सजा से कृपया माफ़ किया जाए। जिस लेवल का दंड हमें मिल रहा था कि पता नहीं किस भारी सजा से मुक्ति मिलने वाली थी। किन्तु हमारे पास कोई चारा भी नहीं था। उस दिन घर लौटते वक्त मैं सुलभ से बात नहीं कर रहा था। “अबे, जो हुआ अच्छा हुआ। परिमल सर भी हम तीनों को जान गए।” सुलभ ने खिखियाते हुए कहा। “सब तेरी वजह से हुआ, यही है तेरी फूल प्रूफ प्लानिंग। मुझे पहले से पता था, ज़रूर कुछ गड़बड़ होगी।” मैं बहुत गुस्से में था। “यार, इसनें जान-बूझ कर तो ऐसा किया नहीं। तेरे साथ यह भी तो पिटा है। अब जो होना था हो गया। इसे भूल जाओ।” अनवर ने बिचौलिए का काम किया और मेरा और सुलभ का हाथ मिलवाया। “वैसे, परिमल सर जिस तरह धुलाई कर रहे हैं, मानों वो इंसान नहीं जानवर हों।” सुलभ ने अपनी चोट को सहलाते हुए कहा। “अब पता चला न क्यों नरसिंघ मंदिर जाते हैं।” मैंने कहा और तीनों हँसते हुए घर की ओर चल पड़े। ++++++++++++++++++++